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________________ असद्ध्यान] १५५, जैन-लक्षणावली [असद्भूतव्यवहार को, अथवा पुरुष होते हुए स्त्री के वेष के धारण करने (चक्कबंध-मुरवबंध-विज्जाहरबंध-णागपासबंध-संसरको असदृशवेषग्रहण कहते हैं। वासबंधादीणं) तेसु (सीवण्णी-खइरऽसोगकट्रादिस) असद्ध्यान- १. पापाशयवशान्मोहान्मिथ्यात्वा- 8वणा असब्भावट्ठवणबंधो णाम । (धव. पु. १४, द्वस्तुविम्रमात् । कषायाज्जायतेऽजस्रमसद्ध्यानं शरी- पृ. ५) । रिणाम् ।। (ज्ञानार्णव ३-३०, प. ६६); अज्ञात- श्रीपर्णी, खैर और अशोक वक्ष की लकड़ी आदि वस्तुतत्त्वस्य रागाद्युपहतात्मनः । स्वातन्त्र्यवृत्तिर्या में चक्रबन्ध व मुरजबन्ध आदि बन्धभेदों की जन्तोस्तदसध्यानमुच्यते ।। (ज्ञानार्णव २५-१६)। अयथास्वरूप से-उन आकारों के न रहने पर वस्तुस्वरूप के न जानने और राग-द्वेषादि से भी-स्थापना करना; इसे असदभावस्थापनाबन्ध माविष्ट होने के कारण जीव के जो स्वेच्छाचारिता कहते हैं। होती है, उसे असद्ध्यान कहा जाता है। यह दुनि प्रसभावस्थापनाभाव-तविवरीदो (सब्भावदृष्ट अभिप्राय व मिथ्यात्वादि के निमित्त से हा ढवणभावादो विवरीदो) असम्भावदवणभावो' । करता है। (धव. पु. ५, पृ. १८३)। असद्भावस्थापना-प्राकृतिमति सद्भावस्थापना, विराग और सरागी भावों का अनुकरण नहीं करने अनाकृतिमति तद्विपरीता। (धव. पु. १४, पृ. ५) वाली स्थापना को प्रसवभावस्थापनाभावनिक्षेप विवक्षित वस्तु के आकार से शन्य वस्तु में उस कहते हैं। वस्तु की स्थापना को असद्भावस्थापना कहते हैं। असद्भावस्थापनामङ्गल--१. बुद्धीए समारोदूसरे नाम से इसे अतदाकारस्थापना भी कहा। विदमंगलपज्जयपरिणदजीवगुणसरूवक्ख-वराडयादयो जाता है। असब्भावट्ठवणमङ्गलं । (धव. पु. १, पृ. २०) । प्रसभावस्थापनाकाल - असब्भावट्ठवणकालो २. मुख्याकारशून्या वस्तुमात्रा पुनरसद्भावस्थापना, णाम मणिभेद-गेस्प-मट्टी-ठिक्करादिस्सु वसंतो ति परोपदेशादेव तत्र सोऽयमिति संप्रत्ययात् । (त. श्लो. बुद्धिबलेण ठविदो । (धव. पु. ४, पृ. ३१४)। १, ५, ५४, पृ. १११)। मणिभेद, गेरू, मट्टी और ठीकरे आदि में जो बुद्धि- १ अक्ष (चौपड़ खेलने के पास) और वराटक बल से यह वसन्त है' इस प्रकार से जो वसन्त काल (कौड़ी) आदि में मंगल पर्याय से परिणत जीव के का आरोप किया जाता है उसे असदभावस्थापना- गण स्वरूप की बुद्धि से कल्पना करना असदभावकाल कहते हैं। स्थापनामंगल है। असद्भावस्थापनानिबन्धन-तविवरीयं (सब्भा- असभावस्थापनावेदना-अण्णा (पाएण अणुबट्ठवणणिबंधणविवरीयं) असब्भावट्ठवणणिबंधणं । हरंतदव्वभेएण इच्छिददव्वठवणरूवसब्भावट्ठवणवेय(धव. पु. १५, पृ. २) । णाविवरीदा) असम्भावठवणवेयणा । (धव. पु. १०, जो निबन्धन विवक्षित द्रव्य का अनुकरण करता है पृ. ७)। उसकी उस रूप से कल्पना करने रूप सदभावस्था- वेदना के आकार से रहित द्रव्य में वेदना की स्थापना से विपरीत स्वरूप वाला असद्भावस्थापना- पना करने को असद्भावस्थापनावेदना कहते हैं। निबन्धन होता है। प्रसद्भूतव्यवहार-१. अण्णे सिं अण्णगुणो भणइ असद्भावस्थापनापूजा -- वराटकादौ सङ्कल्प्य असब्भूदXX.XI (बृ. न. च. २२३)। २. असजिनोऽयमिति बुद्धितः । याऽर्चा विधीयते प्राच्यर- भूतव्यवहारो द्रव्यादेरुपचारतः । परपरिणतिसद्भावा मता त्वियम् । (धर्मसं. श्रा. ६-८६)। श्लेषजन्योxxx॥ (यः परद्र व्यस्य परिणत्या जिनेन्द्र के आकार से रहित कौडी प्रादि में 'यह । मिश्रितः अर्थात् द्रव्यादेर्धर्माधर्मादेरुपचारत उपचर णात् परपरिणतिश्लेषजन्यः-परस्य वस्तुनः परिणतिः पूजन की जाती है उसे प्राच्य जन असदभाव. परिणयनं, तस्य श्लेषः संसर्गः तेन जन्यः परपरिणतिस्थापना पूजा कहते हैं। श्लेषजन्यः) असद्भूतव्यवहारः कथ्यते । (द्रव्यानु. टी. असभावस्थापनाबन्ध---अजहासरूवेण. (एदेसि ७-४, प्र.१००)। ३. अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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