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________________ प्रसत्यामृषा भाषा] १५४, जैन-लक्षणावली [असदृशवेषग्रहण मोसोxxx ॥ (प्रा. पंचसं. १-८९; धव. पु. जो मन न सत्य है और न असत्य है, वह असत्य१, पृ. २८१ उद्; गो. जी. २१८) । २. तद्विपरीतो मृषा (अनुभय) मन कहलाता है। उसके प्राश्रय से मोषमनोयोगः । [असत्यं वितथं मोघमित्यनर्थान्तरम् । होने वाले योग को असत्य-मषा मनोयोग कहते हैं। असत्ये मनः असत्यमनः, तेन योगः असत्यमनोयोगः ।] वचनयोग-जो व सच्चमोसो त (धव. पु. १, पृ. २८०)। ३. तद्विपरीतः असत्यार्थ जाण असच्चमोसवचिजोगो। अमणाणं जा भासा विषयज्ञानजननशक्तिरूपभावमनसा जनितः प्रयत्न. सण्णीणामंतणीयादी।। (प्रा. पंचसं. १-६२; धव. विशेष: मृषा (असत्य) मनोयोगः । (गो. जी. म. पु. १, पृ. २८६ उद्धृत; गो. जी. २२१)। प्र. व जी. प्र. टी. पृ. २१६)।। सत्यता और असत्यता से रहित (अनुभय) वचन ३ असत्य पदार्थ के विषय करने वाले ज्ञान को के द्वारा जो योग होता है उसे असत्यमृषा वचनयोग उत्पन्न करने वाली शक्तिरूप भावमन से जनित कहते हैं। प्रयत्नविशेष को असत्य मनोयोग कहते हैं। असत्य वचनयोग--१. तव्ववरीयं मोसं । (भ. असत्यामृषा भाषा-१. जं नेव सच्चं नेव मोसं प्रा. ११६४)। २. तबिवरीयो मोसो। (प्रा. णेव सच्च-मोसं असच्चमोसं नाम । तं च उत्थं भास पंचसं.१-११; गो. जी. २२०)। ३. असत्यार्थजायं। (प्राचारा. सू. २, १, १, ३५५ पृ. ३५४) । विषयो वाग्व्यापारप्रयत्नः असत्यवचोयोगः । (गो. २. चतुर्थी भाषा योच्यमाना न सत्या नापि मृषा जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. २२०) । नापि सत्यामृषा आमन्त्रणाज्ञापनादिका साऽत्रा असत्य अर्थ को विषय करने वाले वचन के व्यापार सत्याऽमृषेति । (प्राचारा. शी. व. २, १,१,३५५ रूप प्रयत्न को प्रसत्यवचनयोग कहते हैं। पृ. ३५५)। ३. XXX असच्चमोसा य पडिसेहा ॥ (दशवै. नि. २७२)। ४. यत्तु वस्तुसाधक असदारम्भ---- असन्.-.-असून्दर:-प्रारम्भोऽस्येत्य सदारम्भः, अविद्यमानं वा यदागमे व्यवच्छिन्नं तदाबाधकत्वाविवक्षया व्यवहारपतितस्वरूपमात्राभिधि रभत इत्यसदासम्मः, न सदा-न सर्वदा-स्वशक्तित्सया प्रोच्यते तदसत्यामषम् । (प्राव. ह. वृ. मल, कालाद्यपेक्ष प्रारम्भोऽस्येति वा । (षोडशक व. हेम. टि. पृ. ७६)। ५. या पुनस्ति सृष्वपि भाषास्वनधिकृता तल्लक्षणायोगतस्तत्रानन्तर्भाविनी सा ग्रामंत्रणाज्ञापनादिविषया असत्यामषा । (प्रज्ञाप. असत्-असमीचीन--कार्य के प्रारम्भ करने वाले को असदारम्भ (बाल) कहते हैं । अथवा असत् अर्थात मलय. वृ. ११-१६१) । ६. अणहिगया जा तीसु वि ण य पाराहण-विराहणुवउत्ता। भासा असच्च पागम में जो व्यवच्छिन्न है उसके प्रारम्भ करने वाले को असदारम्भ (बाल) कहा जाता है। प्रथका जो मोसा एसा भणिया दुवालसहा ॥ (भाषार. ६६); या तिसृष्वपि सत्या-मृषा-सत्यामृषाभाषा अपनी शक्ति और काल की अपेक्षा सदा प्रारम्भ नहीं करता है वह असदारम्भ (बाल) कहलाता है। स्वनधिकता, एतेनोक्तभाषात्रयविलक्षणभाषात्वमेत. ल्लक्षणमुक्तम्, च पुनर्न आराधन-विराधनोपयुक्ता, यह असदारम्भ का निरुक्त लक्षण है (असत्-भारम्स एतेनापि परिभाषानियंत्रितमनाराधकविराधकत्वं या अ-सदा-प्रारम्भ) । लक्षणान्तरमाक्षिप्तम्, एषाऽसत्यामृषा भाषा । असदृशानुभाग----अध जे उदीरेदि अणेगास (भाषार. टी. ६६)। वग्गणासु ते असरिसा णाम । (कसायपा. चू. पृ. १ जो भाषा सत्य, असत्य और उभय तीनों रूप से ८८४) । रहित अर्थात् अनुभयरूप हो वह चतुर्थी असत्या अनेक वर्गणाओं में जिन अनभागों की उदीरणा की मृषा भाषा है जो आमंत्रणादिरूप है। जाती है, उनका नाम असदृश अनुभाग है। असत्य-मृषा मनोयोग–ण य सच्चमोसजुत्तो जो असदृश वेषग्रहरण-असदृशवेषग्रहणं नाम स्वयमार्य: दु मणो सो असच्चमोसमणो। जो जोगो तेण हवे सन्ननार्यवेषं करोति, पुरुषो वा स्वं रूपमन्तहित्य असच्चमोसो दु मणजोगो॥ (प्रा. पंचसं. १-६० स्त्रीवेष विदधातीत्यादि। (बृहत्क. वृ. १३०६) । धव. पु. १, पृ. २८२ उद्.; गो. जी. २१६)। स्वयं प्रार्य होते हए अनार्य के वेष के धारण करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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