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________________ ,जैन - लक्षणावली Jain Education International श्रवमान ] वा नालिश्राए वा श्रक्खेण वा मुसलेण वा XXX एएणं श्रवमाणपमाणेणं किं पद्मश्रणं एएणं ? श्रवमाणपमाणेणं खाय-चित्र- रइन- करकचिय- कड-पड-भित्तिपरिक्खेवसंसियाणं दव्वाणं श्रवमाणपमाणणिव्वित्ति. लक्खणं भवइ से तं श्रवमाणे । ( श्रनुयो १३२, पृ. १५४) । २. निर्वर्तनादिविभागेन क्षेत्रं येनावगाह्य मीयते तदवमानं दण्डादि । (त. वा. ३, ३८, ३) । ४. अवमीयते तथा अवस्थितमेव परिच्छिद्यतेऽनेनावमीयत इति वाऽवमानं । ( अनुयो हरि वृ. पृ. ७६) । ४. निर्वर्तनादिविभागेन क्षेत्रं येनावगाह्य मीयते तदवमानं दण्डादि । (त. सुखबो. ३ - ३८ ) । १ जिसके द्वारा प्रवमित किया जाता है - कुएं श्रादि का प्रमाण जाना जाता है-उसको प्रथवा जो कुछ ( कुवां प्रादि) जाना जाता है उसको भी अवमान प्रमाण कहा जाता है। इसके द्वारा खात ( खाई या कुवां आदि), चित ( ( ईंट श्रादि), रचित ( प्रासादपीठ आदि), कचित ( करोत से चीरी गई लकड़ी श्रादि), चटाई, वस्त्र और भित्ति आदि को परिधि का प्रमाण जाना जाता है । श्रवमौदर्य- - १. बत्तीसा किर कवला पुरिसस्स दु होदि पर्यादिश्राहारो । एगकवलादिहिं तत्तो ऊणियगहणं उमोदरियं । ( मुला. ५ - १५३ ) । २. संयमप्रजागर-दोषप्रशम-सन्तोष-स्वाध्यायादिसुखसिद्ध्यर्थं - मवमौदर्यम् । ( स. सि. ६-१६; त. वा. ६, १६, ३) । श्रवममित्यूननाम, अवममुदरमस्य (इति) अमोदरः, श्रवमोदरस्य भावः श्रवमौदर्यम् - न्यूनोद रता । ( त. भा. ९-१९ ) । श्रवलम्बनाकरण - परिभविश्राउउवरिमट्ठिदिदव्वस्स प्रोक्कड्डणाए हेट्ठा णिवदणमवलंबणाकरणं नाम (धव पु. १०, पृ. ३३० ) । १ पुरुष का जो बत्तीस ग्रास प्रमाण स्वाभाविक परभबिक श्रायु कर्म की उवरिम स्थिति के द्रव्य का श्राहार है, उसमें क्रमशः एक-दो प्रासादि कम करके श्रपकर्षण के वश नीचे गिरने का नाम अवलम्बनाएक ग्रास तक प्रहार के ग्रहण करने को श्रवमौदर्य करण हैं । तप कहते हैं । प्रवलम्ब ब्रह्मचारी1- १. अवलम्बब्रह्मचारिणः श्रवमौदर्यातिचार - मनसा बहुभोजनादरः, परं क्षुल्लक रूपेणागममभ्यस्य परिगृहीतगृहावासा भवन्ति । बहु भोजयामीति चिन्ता, भुङ्क्ष्व यावद् भवतस्तृप्ति- (चा. सा. पृ. २०; सा. ध. स्वो टी. ७-१९) । रिति वचनम्, भुक्तं मया बह्नित्युक्ते सम्यक् २. पूर्वं क्षुल्लकरूपेण समभ्यस्यागमं पुनः । गृहीतकृतमिति वा वचनं कण्ठदेशमुपस्पृश्य हस्तसंज्ञया गृहवासास्तेऽवलम्बब्रह्मचारिणः ॥ ( धर्मसं. श्री. प्रदर्शनं वमौदर्यातिचारः । (भ. श्री. विजयो. व मूला. टी. ४८७) । मन से अधिक भोजन में रुचि रखना, दूसरे को अधिक खिलाने की चिन्ता करना, 'जब तक तृप्ति न हो तब तक खाते रहो' इस प्रकार के वचन १३८, [ अवलोकन कहना, 'मैंने बहुत खाया' इस प्रकार कहने पर 'बहुत अच्छा किया' इस प्रकार के अनुमोदनात्मक वचन कहना, गले का स्पर्श करके हाथ के संकेत से यह कहना कि श्राज तो कण्ठ पर्यन्त भोजन किया है; ये सब प्रवमौदर्यव्रत के प्रतिचार हैं- उसे मलिन करने वाले हैं । श्रवर्णवाद - १. गुणवत्सु महत्सु श्रसद्भूतदोषोद्भावनमवर्णवादः । ( स. सि. ६-१३) | २. श्रन्तःकलुषदोषादसद्द्भूतमलोद्भावनमवर्णवादः । गुणवत्सु महत्सु स्वमतिकलुषदोषात् प्रसद्भूतमलोद्भावनमवर्णवाद इति वर्ण्यते । (त. वा. ६, १३, ७; त. श्लो. ६-१३) । ३. गुणवत्सु महत्सु चान्तःकालुष्य सद्भावादसद्भूतदोषोद्भावनमवर्णवदनमवर्णवाद: । (त. सुखबो. ६-१३ ) । ४. गुणवतां महतां प्रसद्भूतदोषोद्भावनमवर्णवादः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१३ ) । १ गुणी महा पुरुषों में जो दोष नहीं हैं, उनको अन्तरंग की कलुषता से प्रगट करने को प्रवर्णवाद कहते हैं । अवलम्बना- अवलम्बते इन्द्रियादीनि स्वोत्पत्तये इत्यवग्रहः अवलम्बना । ( धव. पु. १३, पृ. २४२) । चूंकि श्रवग्रह मतिज्ञान अपनी उत्पत्ति में इन्द्रियादि का अवलम्बन लेता है, अतः उसका अवलम्बना यह दूसरा सार्थक नाम है । ε-२१) । गुरु के समीप क्षुल्लक वेष धारण करके परमागम का अभ्यास कर जो पीछे गृहवास को स्वीकार करते हैं उन्हें अवलम्ब ब्रह्मचारी कहते हैं । अवलोकन - अवलोकनं हरतां चौराणामपेक्षा बुद्धया For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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