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________________ अवग्रहावरणीय] १३७, जैन-लक्षणावली [अवमान जणणजोग्गावत्था, तदणंतरमप्पण्णं णाणमवग्गहो। अवधारण में जो उस सबको देखता है उसे प्रव(धव. पु. ६, पृ. १६); अवग्गहो णाम विषय-विसइ- धारवान् या अवधारणावान् कहते हैं। सण्णिवायाणंतरभावी पढमो बोधविसेसो । (धव. पु. अवधिमरण-१. अवधिर्मर्यादायाम, अवधिर्नाम ६, पृ. १८); विषय-विषयिसन्निपातानन्तरमाचं यानि द्रव्याणि साम्प्रतं प्रायुष्कत्वेन गृहीतानि पुनग्रहणमवग्रहः । (धव. पु.६, पृ. १४४ व पु. १३, पृ. रायुष्कत्वेन गृहीत्वा मरिष्यति, इत्यतोऽवधिमरणम् । २१६); अवगृह्यते अनेन घटाद्यर्था इत्यवग्रहः। (उत्तरा. चूणि ५, प. १२७-२८)। २. यो (धव. पु. १३, पृ. २४२)। ६. अक्षार्थयोगजात- यादृशं मरणं साम्प्रतमुपैति तादृगेव मरणं यदि वस्तुमात्रग्रहणलक्षणात् । जातं यद् वस्तुभेदस्य ग्रहणं भविष्यति तदवधिमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. तदवग्रहः । (त. श्लो. १, १५, २) । २५; भा. प्रा. टी. ३२) । ३. अवधिर्मयादा, तेन ३ पदार्थ और उसे विषय करने वाली इन्द्रियों का मरणमवधिमरणं, यानि हि नारकादिभवनिबन्धनयोग्य देश में संयोग होने के अनन्तर उसका सामान्य तयाऽऽयु:कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते यदि पुनस्ताप्रतिभासरूप दर्शन होता है, उसके अनन्तर वस्तु न्येवानुभूय मरिष्यति तदा तदवधिमरणमुच्यते । का जो प्रथम बोध होता है उसे अवग्रह कहते हैं। (समवा. अभय. वृ. १७, पृ. ३३)। ४. यादृशेन अवग्रहावरणीय-अवग्रहस्य यदावरकं कर्म तद- मरणेन पूर्वं मृतस्तादृशेनैव मरणमवधिमरणम् । (भ. वग्रहावरणीयम् । (धव. पु. १३, पृ. २१७' । प्रा. मूला. टी. २५)। ५. एतदुक्तं भवति-देशतः जो कर्म अवग्रहज्ञान को आच्छादित करता है उसे सर्वतो वा सादृश्येनावधीकृतेन विशेषितं मरणमवअवग्रहावरणीय कहते हैं। धिमरणम् । (भा. प्रा. टी. ३२)। अवदान-अवदीयते खण्डयते परिच्छिते अन्येभ्यः २ जैसा मरण वर्तमान काल में प्राप्त होता है वैसा अर्थः अनेनेति अवदानम् । (धव. पु. १३, पृ. ही मरण यदि भविष्य काल में होने वाला है तो २४२)। उसे अवधिमरण कहते हैं। ३ अवधि का अर्थ जिसके द्वारा विवक्षित पदार्थ अन्य पदार्थों से पृथक् मर्यादा है, उस अवधि से होने वाला मरण अवधिरूप में जाना जाता है उसका नाम अवदान है। यह मरण कहलाता है, अर्थात् नारक प्रादि भव के अवग्रहज्ञान का नामान्तर है । कारणभत जिन प्रायकर्मप्रदेशों का अनभव करके अवद्य- १. अवयं गह्यम् । (स. सि. ७-६) । २. मरता है उनका ही अनुभव करके यदि भविष्य में प्रवद्यं गह्यम, निन्द्यमिति यावत् । (त. सुखबो. मरेगा तो उसे अवधिमरण कहा जायगा। अवनमन (ोरणद)-प्रोणदं अवनमनं भूमानिन्दित या गहित वस्तु को अवद्य कहते हैं। वासनमित्यर्थः। (धव. पु. १३, पृ. ८६)। अवधारण-अवधारणं दत्तावधानतया ग्रहणम् । भूमि स्थित होना-भूमि का स्पर्श कर अवनति (धर्मबि. मु. वृ. ३-६०)। (नमस्कार) करना, यह अवनमन है। साबधानता से पदार्थ या सूत्रार्थ के ग्रहण करने को अवबद्ध-अवबद्धः परेभ्यो द्रव्यं गृहीत्वा मासअवधारण कहते हैं। वर्षादिपर्यन्तं सेवां गतः । (प्रा. दि. पु. ७४) । अवधारणी भाषा-अवधार्यतेऽवगम्यतेऽर्थोऽनये- दूसरों से धन लेकर मास या वर्ष प्रादि नियत काल त्यवधारणी, अवबोधबीजभूता इत्यर्थः । भाष्यते तक सेवा के बन्धन में बंध जाने को अवबद्ध कहते इति भाषा, तद्योग्यतया परिणामितनिसृज्यमान- हैं। ऐसा व्यक्ति दीक्षा के अयोग्य होता है। द्रव्यसंहतिः। (प्रज्ञाप. मलय. व. ११-१६१)। अवमस्तकशयन-अवमस्तकशयनमधोमुखदानम् । पदार्थ का निश्चय करने वाली–ज्ञान की बीजभत (भ. प्रा. मूला. टी. २२५) । -भाषा को अवधारणी भाषा कहते हैं। नीचे मुख करके सोने को अवमस्तकशयन कहते हैं । अवधारवान-वहारवमवहारे आलोयंतस्स तं अवमान-से कि तं प्रोमाणे ? जण्णं प्रोमिज्जइ । सव्वं ॥ (गु.गु. षट्. स्वो. वृ.७, पृ. २८)। तं जहा-हत्थेण वा दंडेण वा धनुक्केण वा जुगेण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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