SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपवादसापेक्ष उत्सर्ग:] ६६, जैन-लक्षणावली [अपान हुआ) है, अथवा रोगपीड़ित है; उसके द्वारा संयम पालयत उत्कृष्टः। मृदुना प्रमृज्य जन्तून् परिहरतो के मूल साधनभूत उस शरीर का जिस प्रकार मध्यमः । उपकरणान्तरेच्छया जघन्यः। (त. वा. ६, विनाश न हो, इस प्रकार से कुछ मृदु (शिथिल) ६, १५; त. श्लो . वा. ६-६; त. व. श्रुत. ६-६; संयम भी आचरण योग्य है। इस प्रकारका विशेष कातिके. टी. ३९९)। २. प्राणीन्द्रियपरिहारोऽपविधान। हृतसंयमः । (चा. सा. पृ. ३२)। ३. अपहृत्यसंयम अपवादसापेक्ष उत्सर्ग-बाल-वृद्ध-श्रान्त-ग्लानेन इति-प्रोज्झ्य परिवर्त्य संयमं लभते, वस्त्र-पात्रासंयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न द्यतिरिक्तमनुपकारकं चरणस्य वर्ज़यतः संयमलाभः । यथा स्यात्तथा संयतस्य स्बस्य योग्यमतिकर्कशमा- भक्त-पानादि वा संसक्तं विधिना परित्यज्यत इति । चरणमाचरता शरीरस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनभूत- (त. भा. सिद्ध. व. ६-६)। ४. अपहरणमपनयनं संयमसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा पञ्चेन्द्रिय - द्वीन्द्रियादीनामपनयनमुपकरणेभ्योऽन्यत्र बाल-वृद्ध-श्रान्त-ग्लानस्य स्वस्य योग्यं सृद्वप्याचरण- संक्षेपणमु[म]पवर्तनम्, तस्य संयमः निराकरणम्, माचरणीयमित्यपवादसापेक्ष उत्सर्गः ।। (प्रव. सा. उदरकृम्यादिकस्य वा निराकरणमपहरणसंयमः । अमृत. वृ. ३-३०, पृ. ३१४) । (मूला. वृ. ५-२२०)। बाल, वृद्ध, श्रान्त और रोगपीड़ित साधु के द्वारा अपहृतसंयम उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद शुद्ध प्रात्मतत्त्व का साधन होने से मूलभूत संयम से तीन प्रकारका है। उनमें प्रासुक वसति व का जिस प्रकार विनाश न हो, इस प्रकार संयत के आहार मात्र बाह्य साधनों से सहित होते हुए अपने योग्य अतिशय कठोर आचरण के करते हुए बाहिरी जीवों के आने पर उनसे अपने आपको दूर भी उक्त संयम के मल साधनभूत शरीर का जिस कर उनकी रक्षा करते हए निर्दोष संयम के पालन प्रकार से विनाश न हो; इस प्रकार उक्त वाल, करने को उत्कृष्ट अपहृतसंयम कहते हैं । मोरपिच्छी वृद्ध, श्रान्त व रुग्ण साध के द्वारा अपने योग्य मुद जैसे मृद उपकरण से जीवों को दूर करना मध्यम भी प्राचरण पाचरणीय होता है। इस प्रकारका अपहृतसंयम है। अन्य उपकरण से जीवों को दूर विधान अपवादसापेक्ष-उत्सर्ग कहलाता है। करना जघन्य अपहृतसंयम है। अपवादिक लिङ्ग - यतीनामपवादकारणत्वात् अपात्र-१. गतकृपः प्रणिहन्ति शरीरिणो वदति परिग्रहोऽपवादः । अपवादो यस्य विद्यत इत्यपवादिकं यो वितथं परुषं वचः । हरति वित्तमदत्तमनेकधा परिग्रहसहित लिङ्गमस्येत्यपवादिकलिङ्गम्। (भ. मदनवाणहतो भजतेऽङ्गनाम् ॥ विविधदोषविधायिप्रा. विजयो. व मूला. टी. ७७)। परिग्रहः पिवति मद्यमयंत्रितमानसः । कृमिकुलासाधु के लिए अपवाद का कारण होने से परिग्रह कुलितं असते पलं कलिलकर्मविधानविशारदः ।। दृढअपवाद है, अतः उस परिग्रह-सहित वेष को अप- कुटुम्बपरिग्रहपञ्जरः प्रशमशीलगुणव्रतवर्जितः । वादिक लिङ्ग कहा जाता है। गुरुकषाय-भुजङ्गमसेवितो विषयलोलमपात्रमशन्ति अपवृद्धि–संजमासंजम-संजमलद्धीहितो हेदा परि- तम् ॥ (अमित. श्रा. ३६-३८)। २. अपात्रः सम्यवदमाणस्स संकिलेसवसेण पडिसमयमणंतगुणहाणि- क्त्वरहितप्राणी। (सा.ध. स्वो. टी. २-६७) । परिणामो ओवढित्ति भण्णदे। (जयध. पत्र ८१६)। ३. व्रतसम्यक्त्वनिर्मुक्तो रागद्वेषसमन्वितः। सोऽपात्रं संयमासंयम और संयम लब्धियों से च्युत होते हुए भण्यते जैनों मिथ्यात्वपटावृतः ॥ (पूज्य. उपा. जीव के जो संक्लेश के वश प्रतिसमय अनन्त- ४८)। गुणित हानिरूप परिणाम होते हैं, इसका नाम अप- २ जो सम्यक्त्व से रहित हो उसे अपात्र कहते हैं । वृद्धि है। अपान--१. तेनैव (वीर्यान्तराय-ज्ञानावरणक्षयोपअपहृत (त्य) संयम-१. अपहृतसंयमस्त्रिविध:- शमाङ्गोपाङ्गनामोदयापेक्षिणा) आत्मना बाह्यो उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्चेति । तत्र प्रासुकवसत्या- वायुरभ्यन्तरीक्रियमाणो निःश्वासलक्षणोऽपानः । हारमात्रबाह्यसाधनस्य स्वाधीनेतरज्ञानचरणकरणस्य (स. सि. ५-१६; त. वा. ५, १६, ३६; त. वृत्ति बाह्यजन्तुपनिपाते प्रात्मानं ततोऽपहृत्य जीवान परि- श्रुत. ५-१६; कातिके. टीका २०६)। २. अधो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy