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________________ अपरिग्रहमहाव्रत] ६६, जैन-लक्षणावली [अपरीतसंसार ३-२४; त्रि. श. पु. च. १, ३, ६२६)। परिणामों को अपरिवर्तमान परिणाम कहते हैं। १ मोह के उदय से होने वाले 'ममेदभाव को- अपरिश्राविन (प्राचार्य)-जो अन्नस्स वि दोसे न यह मेरा है, इस प्रकार की ममत्वबुद्धि को' परिग्रह कहेइ असो अपरिसावी। (ग. गु. षट्. स्वो. टी. कहा जाता है। उस परिग्रह से निवत्त हो जाना, ७, प. २८)। इसका नाम अपरिग्रहता है। जो पुरुष दूसरों के भी दोषों को न कहे, उसे अपरिअपरिग्रहमहाव्रत--धण-धण्णाइवत्थूणं परिग्गह- श्रावी कहते हैं। विवज्जणं । तिविहेणावि जोगेणं पंचमं तं महव्वयं ।। अपरिश्राविन (स्नातक)-निष्क्रियत्वात् सकल(गु. गु. षट्. स्वो. टी. ३, पृ. १३) । योगनिरोधे त्वपरिश्रावी । (त. भा. सिद्ध. व. धन-धान्यादि सर्व प्रकारके परिग्रह का यावज्जीवन ९-४६)। मन-वचन-काय से त्याग करने को अपरिग्रहमहावत योगों का निरीध हो जाने पर सर्व प्रकारके कर्माकहते हैं। स्रव से रहित हए अयोगिकेवली को अपरिश्रावी अपरिगत दोष-१. तिलतंडुल उसणोदय चणोदय स्नातक कहते हैं। तुसोदयं अविद्धत्थं । अण्णं तहाविहं वा अपरिणदं अपरीक्षित प्रतिसेवना - १. अपरिच्छियत्ति णेव गेण्हिज्जो ।। (मूला. ६-५४)। २. तथाऽपरि- कज्जाकज्जाइं अपरिक्खिउं सेवइ। (जीत. च. प. णतोऽविध्वस्तोऽग्न्यादिकेनापक्वः, तमाहारं पानादि- ३, पं. १६)। २. आय-व्ययमपरीक्ष्य पडिसेवणा। कं वा यद्यादत्तेऽपरिणतनामाशनदोष: । (मूला. वृ. (जीत. चू. वि. व्या. पृ. ३४, ७)। ६-४३)। ३. देयद्रव्यं मिश्रमचित्तत्वेनापरिणमनाद- अपने प्राय-व्यय का विचार न करके जो अपवादपरिणतम् । (योगशा. स्वो. विव. वृ. १-३८, पृ. विशेष नियम–में प्रवृत्त होता है, इसे अपरीक्षित १३७)। ४. तुषचणतिलतण्डुल जलमुष्णजलं च स्व- प्रतिसेवना कहते हैं। वर्णगन्धरसः । अरहितमपरमपीदशमपरिणतम् xx अपरोक्षी-अपरीक्षी युक्तायुक्तपरीक्षाविकलः । X।। (अन. ध. ५-३२)। (व्यवः भा. मलय. वृ. ६३४, पृ. ८४) । २ अग्नि आदि से जिन पदार्थों के रूप, रस, गन्ध योग्य-अयोग्य की परीक्षा से रहित व्यक्ति अपरीप्रादि नहीं बदले हैं, ऐसे पदार्थों को प्राहार में ग्रहण क्षी कहलाता है। करने पर अपरिणत दोष होता है । अपरीतसंसार-१. संसारअपरित्ते दु० प० त० अपरिणामक साधु---जो दव्व-खेत्तकयकाल-भाव- अणादीए वा सपज्जवसिते अणादीए वा अपज्जयो जं जहा जिणक्खायं । तं तह असहा जाण वसिते । (प्रज्ञाप. १८-२४७)। २. अणादियमिअपरिणामयं साहुं । (बृहत्क. ७६४)। च्छादिदी अपरित्तसंसारो अधापवत्तकरणं अपुव्वजिनदेव ने जिस वस्तु को द्रव्य, क्षेत्र, काल और करणं अणियट्टिकरणमिदि एदाणि तिण्णि करणाणि भाव की अपेक्षा जैसा कहा है उसका उसी प्रकार कादूण सम्मत्तं गहिदपढमसमए चेव सम्मत्तगुणेण से श्रद्धान नहीं करने वाले साधु को अपरिणामक पुव्विल्लो अपरित्तो संसारो अोहट्टिदूण परित्तो कहते हैं। पोग्गलपरियदृस्स अद्धमेत्तो होदण उक्कस्सेण चिद्रादि । अपरिमितकाल सामायिक-ईर्यापथादौ (सामा- (धव. पु. ४, पृ. ३३५) । ३. संसारापरीतः सम्ययिकग्रहणं) अपरिमितकालं वेदितव्यम् । (त. वृ. क्त्वादिना अकृतपरिमितसंसारः। Xxx संसाराश्रुत. ६-१८)। परीतो द्विधा-अनाद्यपर्यवसितो यो न कदाचनापि ईर्यापथ आदि में जिस सामायिक को ग्रहण किया संसारव्यवच्छेदं करिष्यति, यस्तु करिष्यति सो अनाजाता है वह अपरिमितकाल सामायिक कहलाती है। दि-सपर्यवसितः । (प्रज्ञाप. मलय. व. १५-२४७, अपरिवर्तमान परिणाम-अणुसमयं वडढमाणा पृ. ३६४)। हायमाणा च जे संकिलेस-विसोहिपरिणामा ते अपरि- २ अनादि मिथ्यादृष्टि जीव अपरीतसंसारयत्तमाणा णाम । (धव. पु. १२, पृ. २७) ।। अनन्तसंसार की परमिततासे रहित-कहलाता है। प्रतिसमय वर्धमान या हीयमान संक्लेश व विशद्ध ३ जिसने सम्यक्त्व प्रादि के द्वारा संसार को परि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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