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________________ अपरमर्मवेधित्व] ६५, जैन-लक्षणावली [अपरिग्रह अपरमर्मवेधित्व-अपरमर्मवेधित्वं परमर्मानुद्घ- भयं प्रति नान्यस्या उपघातं करोति सा अपरावर्तट्टनस्वरूपत्वम् । (समवा. अभय. वृत्ति ३५, रायप. माना । (पंचसं. स्वो. वृ. ३-४४) । २. यास्त्ववृ.प.१६-१७)। न्यस्याः प्रकृतेर्बन्धमुदयमुभयं वाऽनिवार्य स्वकीयं दूसरे के मर्मस्थान के नहीं भेदने वाले वचन का बन्धमुदयमुभयं वा दर्शयन्ति, ता न परावर्तन्त इति बोलना, इसका नाम अपरमर्मवेधित्व है। कृत्वाऽपरावर्तमाना उच्यन्ते । (शतक. दे. स्वो. अपरविदेह-मेरोः सकाशात् पश्चिमायां दिश्यपर- टी. १)। विदेहः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-१०)। २ जो प्रकृतियां अन्य प्रकृतियों के बन्ध, उदय या दोनों मेरु पर्वत से पश्चिम की ओर जो विदेह क्षेत्र का को ही नहीं रोक कर अपने बन्ध, उदय या दोनों प्राधा भाग अवस्थित है वह अपरविदेह कह- को प्राप्त होती हैं, परिवर्तित नहीं होती हैं, उन्हें लाता है। अपरावर्तमान प्रकृति कहते हैं। अपरसंग्रह-द्रव्यत्वादीन्यवान्तरसामान्यानि मन्वा- अपरिखे दित्व-अपरिखेदित्वं अनायाससम्भवः । नस्तभेदेषु गजनिमीलिकामवलम्बमानः पुनरपरसं- (समवा. अभय. वृ. ३५; रायप. वृ. पृ. १७)। ग्रहः ॥ धर्माधर्माकाश-काल-पुद्गल-जीवद्रव्याणा- अनायास -- विना परिश्रम के-ही वचन के निर्गमैक्यं द्रव्यादिभेदादित्यादिर्यथा ।। (प्र. न. त. ७, मन को अपरिखेदित्व कहा जाता है। यह सत्य १९-२०; स्याद्वादम. टी. श्लो. २८; जैनतर्कप. वचन के पैंतीस अतिशयों में चौतीसवां है। पृ. १२७; नयप्र. पृ. १०१)। अपरिगृहोता-या गणिकात्वेन पुंश्चलीत्वेन वा जो द्रव्यत्व प्रादि अवान्तर सामान्यों को स्वीकार परपुरुषगमनशीला अस्वामिका सा अपरिगृहीता। करता हुआ उनके भेदो की उपेक्षा करता है उसे (स. सि. ७-२८; त. वा. ७, २८, २; त. सुखबो. वृ. अपरसंग्रहनय कहते हैं। ७-२८ त. वृ. श्रुत. ७-२८)। अपर संग्रहाभास-द्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्वि- जो पतिविहीन स्त्री गणिका या पुंश्चली रूप से पर शेषान् निनुवानस्तदाभासः । (प्र. न. त.७-२१)। पुरुषों के पास प्राती जाती हो उसे अपरिगृहीता इत्वद्रव्यत्व आदि अवान्तर सामान्यों के मानने वाले रिका कहते है। तथा उनके विशेष भेदों का परिहार करने वाले अपरिगृहीतागमन-१. अपरिगृहीता नाम वेश्या नय को अपरसंग्रहाभास कहते हैं। अन्यसक्ता गृहीतभाटी कुलाङ्गना वा अनाथेति, अपराजित-१. तैरेव विघ्नहेतुभिर्न पराजिताः । तद्गमनम् अपरिगृहीतागमनम्। (श्रा.प्र.टी. २७३; अपराजिताः । (त. भा. ४-२०) । २. तैरेव चाभ्यु- प्राव. हरि. वृ. ६, पृ. ८२५) । २. वेश्या स्वैरिणी दयविघातहेतुभिर्न पराजिता इत्यपराजिताः। (त. प्रोषितभर्तृ कादिरनाथा अपरिगृहीता, तदभिगममाभा. सिद्ध. वृ. ४-२०)। चरतः स्वदारसन्तुष्टस्यातिचारः, न तु निवृत्तपर. जो विघ्न के कारणों से पराजित न हों, उन्हें अप- दारस्य। (त. भा. सिद्ध. वृ.७-२३)। राजित विमान कहा जाता है । वेश्या अधवा अन्य पुरुष में प्रासक्त होकर भाड़े को अपराध (प्रवराह)-१. संसिद्धिराघसिद्धी साधि- ग्रहण करने वाली अनाथ व कुलीन स्त्री अपरिगृहीता दमाराधिदं च एयट्ठो। अवगदराधो जो खलु चेदा कहलाती है। इस प्रकारको अपरिगृहीता स्त्री के सो होदि अवराहो ॥ (समयप्रा. ३३२) । २. पर- साथ समागम करना, यह ब्रह्मचर्य-अणुवत का एक द्रव्यपरिहारेण शुद्धस्वात्मनः सिद्धिः साधनं वा राधः, अतिचार है। अपगतो राधो यस्य भावस्य सोऽपराधः । (समयप्रा. अपरिग्रह-१. ममेदंभावो मोहोदयजः परिग्रहः, अमृत. वृ. ३३२)। ततो निवृत्तिरपरिग्रहता। (भ. प्रा. विजयो. टी. २ पर द्रव्यों का परिहार करके शुद्ध प्रात्मा को ५७)। २. विज्ञाय जन्तुक्षपणप्रवीणं परिग्रहं यस्तृणसिद्ध करना, इसका नाम राध है। इस प्रकारके वज्जहाति । विमर्दितोद्दामकषायशत्रुः प्रोक्तो मुनीराध से जो रहित है उसे अपराध कहते हैं । न्द्ररपरिग्रहोऽसौ ॥ (धर्मप. २०-६१)। ३. सर्वअपरावर्तमाना (प्रकृति)-१. या तु बन्धोदयो. भावेषु मूर्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः । (योगशा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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