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________________ अनृतानन्द ८२, जैन-लक्षणावली [अनेकाङ्गिक अप्रशस्त वचन अथवा असत् अर्थके वचन का नाम अनेकद्रव्यस्कन्ध-१. से कि तं अगदवियखंधे ? अनृत (असत्य) है। तस्स चेव देसे अवचिए, तस्स चेव देसे उवचिए, अनृतानन्द (रौद्रध्यान)-१, अनृतवचनार्थं स्मृति- से तं अणेगदविप्रखंधे । (अनुयो. सू. ५३) । २. अनेसमन्वाहारो रौद्रध्यानम् । (त. भा. ६-३६)। कद्रव्यश्चासौ स्कन्धश्चेति समासः, तस्यैवेत्यत्रानुवर्त२. प्रबलराग-द्वेष-मोहस्यानृतानन्दं द्वितीयम् । अनृत- मानं स्कन्धमात्रं सम्बध्यते, ततश्च 'तस्यैव' यस्य प्रयोजनं कन्या-क्षिति-निक्षेपव्यपलाप-शिश्नाभ्यासा- कस्यचित् स्कन्धस्य यो देशो नख-दन्त-केशादिलक्षणः सद्भुतघातातिसन्धानप्रवणमसदभिधानमनतम्, तत्प- अपचितो जीवप्रदेशविरहितो यश्च तस्यैव देशः रोपघातार्थमनुपरततीव्ररौद्राशयस्य स्मृतेः समन्वा- पृष्ठोदर-चरणादिलक्षण उपचितो जीवप्रदेशाप्त हारः तत्रैवं दृढं प्रणिधानमनृतानन्दम् । (त. भा. इत्यर्थः । तयोर्यथोक्तदेशयोविशिष्टकपरिणामपरिहरि.. [-३६)। ३. प्रबलराग-द्वेष-मोहस्य अन- णतयोर्यो देहाख्यः समुदायः सोऽनेकद्रव्यस्कन्धः, सचेतप्रयोजनवत् कन्या-क्षिति-निक्षेपापलाप-पिशनास. तनाचेतनानेकद्रव्यात्मकत्वादिति भावः । (अनुयो. त्यासद्भूतघाताभिसन्धानप्रवणमसदभिधानमन्तम् । मल. हेम. वृत्ति ५३, पृ. ४२)। (अग्रे हरि. वत्तिवत)। (त. भा. सिद्ध. व.8-३७। २विशिष्ट परिणाम से परिणत अपचित (जीव२ प्रबल राग, द्वेष व मोह से प्राक्रान्त व्यक्ति प्रदेश विरहित नख व दांत आदि) और उपचित असत्य प्रयोजन के साधनभूत कन्या, भूमि व धरो- (जीवप्रदेशों से व्याप्त पीठ व पेट आदि) स्कन्ध हर का अपलपन और परनिन्दा आदि रूप जो देशों का जो शरीर नामक समुदाय है वह अनेकअसमीचीन भाषण करता है, तथा दूसरों के घात द्रव्यकन्ध कहलाता है । का निरन्तर दुष्ट अभिप्राय रखता है और उसी अनेकसिद्ध-१. इगसमए वि प्रणेगा सिद्धाः तेऽणेका बार-बार चिन्तन करता है। इसे अनृतानन्द गसिद्धा य । (नवतत्त्व. गा. ५६) । २. अनेकसिद्धा रौद्रध्यान कहते हैं। इति एकस्मिन् समये यावत् अष्टशतं सिद्धम् । अनेक (नाना)-एकात्मतामप्रजहच्च नाना। (नन्दी. हरि. वत्ति प. ५१, श्रा. प्र. टी. ७७)। (युक्त्यनु. ४६)। ३. एकस्मिन् समये अनेके सिद्धाः अनेकसिद्धाः । जो वस्तु एकरूपता को नहीं छोड़ती है, वही वस्तु (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-७)। ४. एकस्मिन् समये वस्तुतः नाना या अनेक कही जाती है-एकरूपता अष्टोत्तरं शतं यावत सिद्धा अनेकसिद्धाः । (योगशा. से निरपेक्ष वस्तु का वास्तव में वस्तुत्व ही अस- स्वो. विव. ३-१२४)। ५. एकस्मिन् ससये अनेकैः म्भव है, क्योंकि एकत्व और नानात्व ये दोनों धर्म सह सिद्धाः अनेकसिद्धाः । (शास्त्रवा. वृ. ११-५४)। परस्पर सापेक्ष रह कर ही वस्तु का बोध कराते हैं। ४एक समय में अनेक (१०८ तक) जीवों के एक अनेकक्षेत्रावधिज्ञान-१. तदनेकोपकरणोपयोगो- साथ सिद्ध होने को अनेकसिद्ध कहते हैं। ऽनेकक्षेत्रः। (त. वा. १, २२, ४, पृ. ८३, पं. २६)। अनेकसिद्धकेवलज्ञान—एकस्मिन् समयेऽनेकेषां २. जमोहिणाणं पडिणियदखेत्तं वज्जिय सरीरसव्वा सिद्धानां केवलज्ञानमनेकसिद्धकेवलज्ञानम्, एकस्मिश्च वयवेसु वट्टदि तमणेयखेत्तं णाम । तित्थयर-देव-णेरइयाणं प्रोहिणाणमणेयक्खेत्तं चेव, सरीरसव्वावय समयेऽनेके सिद्धयन्त उत्कर्षतोऽष्टोत्तरशतसंख्या वेहि सगविसयभूदत्थग्गहणादो। (धव. पु. १३, वेदितव्याः । (प्राव. मलय. व. ७८) । एक समय में सिद्ध होने वाले अनेक जीवों के केवलपू. २६५)। ज्ञान को अनेकसिद्धकेवलज्ञान कहते हैं। २ जो अवधिज्ञान शरीर के शंख-चक्रादि रूप किसी नियत अवयव में न प्रवृत्त होकर उसके सभी अव- अनेकाडिक (अपरिशाटिरूप संस्तारक)-अनेयवों में रहता है, उसे अनेकक्षेत्रावधि कहते हैं। काङ्गिकः कन्थिकाप्रस्तारात्मकः । (व्यव. सू. भा. तीर्थकर, देव और नारकियों का अवधिज्ञान शरीर मलय.व.-८)। के सभी अवयवों द्वारा अपने विषयभत अर्थ को अनेक पुराने वस्त्रों के जोड़ से बनाई गई कथड़ी प्रहण करने के कारण अनेकक्षेत्र कहा जाता है। और तण एवं पत्तों आदि से निर्मित प्रस्ताररूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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