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________________ जैन-लक्षणावली पूर्वक मुनि के आहार के बाद भोजनार्थ जाता है, यदि अन्तराय आदि होता है तो फिर गुरु के समीप चार प्रकार के उपवास को ग्रहण करता है और सबकी आलोचना करता है। दूसरा उत्कृष्ट श्रावक उक्त प्रथम के ही समान है। विशेष इतना है कि वह बालों का नियम से लोच करता है, 'पिच्छी को धारण करता है, लंगोटी मात्र रखता है, और हाथ में ही भोजन करता है। पं. प्रशाधर के अभिमतानुसार इसका नाम प्रार्य है (प्रथम की कोई संज्ञा निर्दिष्ट नहीं की गई)। प्रा. वसुनन्दी ने अन्त में यह सूचना की है कि उक्त दोनों प्रकार के उत्कृष्ट श्रावक का कथन सूत्र के अनुसार किया गया है। उपभोग-भोग और उपभोग ये दोनों शब्द अनेक ग्रन्थों में व्यवहृत हए हैं। पर उनके लक्षण में एकरूपता नहीं रही । तत्त्वार्थसूत्र में इन दोनों शब्दों का उपयोग २-३ वार हुआ है। किन्तु सूत्रात्मक ग्रन्थ होने से उनके लक्षणों का निर्देश वहां नहीं किया गया है। रत्नकरण्डक में इनके पृथक्-पृथक् लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि जिसे एक बार भोग कर छोड़ दिया जाता है वह भोग और जिसे एक बार भोग कर फिर से भोगा जा सकता है वह उपभोग कहलाता है । जैसे क्रमश: भोजन प्रादि और वस्त्र प्रादि। ___ सर्वार्थसिद्धि (२-४) में नौ प्रकार के क्षायिक भाव की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि समस्त भोगान्तराय के क्षय से जो अतिशययुक्त अनन्त क्षायिक भोग प्रादुर्भूत होता है उससे कुसुमवृष्टि प्रादि उत्पन्न होती हैं तथा सम्पूर्ण उपभोगान्तगय के क्षय से जो अनन्त क्षायिक उपभोग होता है उससे सिंहासन, चामर एवं तीन छत्र प्रादि विभूतियां प्रादुर्भूत होती हैं। इसका फलितार्थ यह प्रतीत होता है कि जो कुसुमादि एक बार भोगने में प्राते हैं उन्हें भोग ओर जो छत्र-चामरादि अनेक बार भोगे जाते हैं उन्हें उपभोग समझना चाहिए । प्रागे (२-५४) यहाँ कार्मण शरीर की विशेषता को प्रगट करते हुए कहा गया है कि अन्तिम (कार्मण शरीर) उपभोग से रहित है। यहाँ उपभोग का स्पष्टीकरण करते हुए यह कहा गया है कि इन्द्रियों के द्वारा जो शब्दादिक की उपलब्धि होती है उसे उपभोग जानना चाहिए । यहाँ सम्भवतः एक व अनेक बार इन्द्रियों के द्वारा उपलब्ध होने वाले सभी पदार्थों को उपभोग शब्द से ग्रहण किया गया है। यहीं पर दिग्ब्रतादि सात शीलों के निर्देशक सूत्र (७-२१) की व्याख्या में उपभोग-परिभोगपरिणामव्रत का विवेचन करते हुए भोजन प्रादि-जो एक ही बार भोगे जाते हैं-उन्हें उपभोग और वस्त्राभूषणादि-जो बार-बार भोगे जाते हैं-उन्हें परिभोग कहा गया है। तत्त्वार्थवार्तिक में सर्वार्थसिद्धिकार के ही मभिप्राय को पुष्ट किया गया है। विशेष इतना है कि यहाँ (७,२१,६-१०) उपभोग का निरुत्यर्थ करते हुए कहा गया है कि 'उपेत्य भुज्यते इत्युपभोगः' अर्थात् जिन प्रशन-पानादि वस्तुओं को प्रात्मसात् करके भोगा जाता है उन्हें उपभोग कहा जाता है तया 'परित्यज्य भुज्यत इति परिभोगः' अर्थात् जिन वस्त्राभूषणादि को एक बार भोग कर व छोड़कर फिर से भोगा जाता है उन्हें परिभोग कहा जाता है। तत्त्वार्थवार्तिककार के द्वारा निर्दिष्ट इस निरुक्तार्थका अनुसरण हरिवंशपुराण, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और चारित्रसार में भी किया गया है। इस प्रकार उक्त दोनों ग्रन्थों में प्रथमतः (२-४) जो उपभोग का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है. उसमे अन्त में (७ २१) निर्दिष्ट किया गया. उसका लक्षण भिन्न है। १. ज्ञान-दशन-दान-लाभ-मागापभागवायाण च (+-४), निरूपभोगमन्त्यम् (२-४४, श्वे. २-४५), दिग्देशानर्थदण्डविरति ........... (७-२१, श्वे. ७-१६)। २. भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः। उपभोगोऽशन-वसनप्रतिपांचेन्द्रियो विषयः ॥१३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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