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________________ प्रस्तावना प्राकम्पित-यह दस आलोचनादाषों में प्रथम है। भगवती पाराधना में इसका लक्षण इस प्रकार कहा गया है-भोजन-पान, उपकरण और क्रियाकर्म (कृतिकर्म) इनके द्वारा गणी (प्राचार्य) को दयार्द्र करके जो आलोचना की जाती है, उसमें चूंकि यह उद्देश रहता है कि इस प्रकार प्राचार्य मेरे ऊपर अनुग्रह करेंगे व पालोचना भी सब हो जावेगी, अत एव इसे प्राकम्पित नाम का प्रथम पालोचनादोष समझना चाहिए। तत्त्वार्थवातिक आदि में भी उसका लक्षण लगभग इसी प्रकार का कहा गया है। विशेषता इतनी है कि भगवती पाराधना में जहाँ अनुकम्पा के हेतुभत भक्त-पान, उपकरण और क्रियाकर्म का निर्देश किया गया है। वहाँ इन ग्रन्थों में केवल उपकरणदान का ही निर्देश किया गया है, भक्त-पानादि का नहीं। मुलाचार की वसुनन्दी विरचित टीका में अवश्य भक्त-पान और उपकरणादि का निर्देश किया गया है। भावप्राभूत की टीका में भट्टारक श्रुतसागर ने सम्भवतः उक्त लक्षण की सार्थकता दिखलाने के अभिप्राय से यह कहा है कि आलोचना करते हुए शरीर में चूंकि कम्प उत्पन्न होता है, भय करता है; इसी से इसे आकम्पित कहा जाता है। उन्होंने तत्त्वार्थवत्ति में उसके लक्षण का निर्देश तत्त्वार्थवार्तिक के ही समान किया है। प्रानुपूर्वी या प्रानुपूर्व्य नामकर्म-इसके लक्षण का निर्देश करते हुए तत्त्वार्थभाष्य में कहा गया है कि विवक्षित गति में उत्पन्न होने वाला जीव जब अन्तर्गति (विग्रहगति) में वर्तमान होता है तब उसे अनुक्रम से जो उस (विवक्षित) गतिके अभिमुख-उसके प्राप्त कराने में समर्थ होता है उसे आनुपूर्वी नामकर्म कहते हैं। इसी भाष्य में मतान्तर को प्रगट करते हुए पुनः कहा गया है कि दूसरे प्राचार्य यह कहते हैं कि जो निर्माण नामकर्म से निर्मित अंग मोर उपांगों के रचनाक्रम का नियामक है उसे आनुपूर्वी नामकर्म कहा जाता है। __सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक आदि के अनुसार जिसके उदय से पूर्व शरीर का आकार विनष्ट नहीं होता है वह आनुपूर्वी नामकर्म कहलाता है। उत्कृष्ट प्रावक-ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक श्रावक को उत्कृष्ट कहा गया है। प्राचार्य मन्तभद्र उसके लक्षण को प्रगट करते हुए रत्नकरण्डक में कहते हैं कि जो घर से-उसे छोड़करमुनियों के आश्रम में चला जाता है और वहाँ गुरु के समीप में व्रतों को ग्रहण करता हा भिक्षा से प्राप्त भोजन करता है, तप का आचरण करता है, तथा वस्त्रखण्ड को-लंगोटी मात्र को-धारण करता है वह उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। यहाँ उस उत्कृष्ट श्रावक के कोई भेद निर्दिष्ट नहीं किए गए। पर वसुन न्दिश्रावकाचार और सागारधर्मामृत में उसके दो भेद निर्दिष्ट करते हुए कहा गया है कि प्रथम उत्कृष्ट श्रावक वह है जो एक वस्त्र को धारण करता है, कैची अथवा उस्तरे से बालों को निकलवाता है, बैठने आदि के समय में उपकरण (कोमल वस्त्रादि) के द्वारा प्रतिलेखन करता है----- झाड़ता है, बैठकर हाथ में अथवा बर्तन में एक बार भोजन करता है, पर्व दिनों में नियम से उपवास करता है, भिक्षा के लिए जाते हुए पात्र को धोता है व किसी गृहस्थ के घर जाकर आँगन में स्थित होता हुमा 'धर्मलाभ' के उच्चारणपूर्वक याचना करता है, वहाँ भिक्षाभोजन प्राप्त हो अथबा न भी हो, यहां से शीघ्र निकल कर दूसरे घर पर जाता है व मौनपूर्वक शरीर को दिखलाता है, यदि मार्ग में कोई • भोजन के लिए प्रार्थना करता है तो प्रथमतः प्राप्त हुए भोजन को खाकर फिर शेष भोजन वहाँ करता.. है। यदि कोई बीच में नहीं रोकता है तो उदरपूर्ति के योग्य भिक्षा के लिए भ्रमण करता है पश्चात किसी एक गृह पर प्रासुक पानी को मांग कर भोजन को सोधता हुमा खाता है और फिर पात्र को बोकर गुरु के समीप जाता है। यदि यह विधि किसी को नहीं रुचती है तो वह एकभिक्षा के नियम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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