SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्याद्वाद २. अपेक्षा निर्देश १. सापेक्ष व निरपेक्षका अर्थ न. च. वृ./ २५० अवरोप्परसावेक्खं जयविसयं अह पमाण विसयं वा । ताण विवरीयं । प्रमाण व नयके अपेक्षा करके हैं अथवा एक नयका अपेक्षा करता है, इसीको सापेक्ष तत्त्व तं सावेक्खं तत्त' णिरवेक्खं विषय परस्पर एक-दूसरेको विषय दूसरी नयके विषय की कहते हैं। निरपेक्ष तत्व इससे विपरीत है। २. विवक्षा एक ही अंशपर लागू होती है अनेकपर नहीं - पं. घ. पू. ३०० नहि किचिद्विधिरूपं किंचिच्छेो निषेधशिस् बास्तो] साधनमस्मिनाम न निर्विशेषत्वात् २००१ कुछ विधि रूप और उस विधि से शेष रहा कुछ निषेध रूप नहीं है तथा ऐसे निरपेक्ष विधि निषेध रूप सत्के साध्य करने में हेतुका मिलना तो दूर, विशेषता न रहनेसे द्वैत भी सिद्ध नहीं हो सकता है। ४९८ २. विवक्षाकी प्रयोग विधि 1 रा.वा./२/१६/१/१३९/- स्पर्शनादीनां करणसाधनत्वं पारतयात् कर्तृसाघनखं च स्वातन्त्र्याद् बहुलवचनात् । कुतः पारतन्त्र्यात् । इन्द्रियाणां हि लोके पारतन्त्र्येण विवक्षा विद्यते, आत्मनः स्वातन्त्र्यविवक्षायां यथा यने चतुषा सुष्ठु पश्यामि अनेन कर्णेन सुष्ठु शृणोमि' इति । ...कतृ साधनं च भवति स्वातन्त्र्यविवक्षायाम् । ... यथा इदं मेऽक्षि सुष्ठु पश्यति, अयं मे कर्णः सुष्ठु शृणोतीति । - सर्शन आदिक इन्द्रियोंका परतन्त्र विवक्षासे करण साधनत्व और स्वतन्त्र विवक्षा कर्तृ' साधनत्व दोनों निष्पन्न होते हैं |१| कैसे सो ही बताते हैं-इन्द्रियोंको लोकपरतन्त्रताके द्वारा विवक्षा होती है और अपने में स्वतन्त्र विवक्षा होनेसे जैसे- 'इस चक्षुके द्वारा मैं अच्छा देखता हूँ और इस कर्ण द्वारा मैं अच्छा सुनता हूँ । स्वतन्त्र विवक्षा साधन भी होता है जैसे यह मेरी आँख अच्छा देखती है, यह मेरे कान अच्छा सुनते हैं इस प्रकार । (स.सि./२/११७०१३ ) पं.का./ता.वृ./१०/२०/१० जैनमते पुनरनेकस्वभावं वस्तु तेन कारपेन द्रव्यार्थिकनयेन द्रव्यरूपेण नित्यत्वं घटते पर्यायार्थिकनयेन पर्यायरूपेणानि च घटते। तौ च द्रव्यपययौ परस्परं सापेक्षौ । जैन में वस्तु अनेकस्वभावी है इसलिए इम्याधिक नयसे द्रव्यरूपसे नित्यत्व घटित होता है, पर्यायार्थिक नयसे पर्याय रूपसे अनिल घटित होता है। दोनों ही पार्थिक व पर्यायार्थिक नय परस्पर सापेक्ष हैं (दे, उत्पाद/२) = 1 दे द्रव्य / ३ / ५ धर्मादिक चार शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्यायके अभाव से अरिणामी या नित्य कहलाते हैं, परन्तु अर्थ पर्यायी अपेक्षा सभी पदार्थ परिणामी कहलाते हैं और व्यंजन पर्याय होनेके कारण जीव 'व पुद्गल नित्य भी । 1 Jain Education International ४. विवक्षाको प्रयोग विधि प्रदर्शक सारणी न. प. गद्य/पृ. ६६-६७ अपेक्षा सं. १ स्यादस्ति २ ३ स्यादेकत्व स्यादनेकरव ४ स्यादभेदस्य ५ स्यानास्ति स्यान्नित्यत्व स्यादनित्यत्व ७ स्यादभेदस्व स्यादभव्यत्व स्यादभव्यस्व ६ स्याच्चेतन स्यादचेतन स्यान्मूर्त स्वादपूर्त ८स्यात्परम स्यादपरम स्वादनेक प्रदेशत्व १० स्याच्छुद्ध इति व्यवहारेणैव असद्दभूत व्यव हारेणेति इति परमभावेनेव पारिणामिक स्वभावत्वेनेति विभाव इति कर्मज रूपेव यादे दनानि स्यादशुद्धत्व ११ स्थापचरित प्रयोग स्वरूपेणास्ि इति पररूपेण व रूपेण निरति इति पर्यायरूपेणैव मिति सामान्यरूपेणेति इति विशेष जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - For Private & Personal Use Only सद्भूत व्यवहार रूपेणेति इतिद्रव्यार्थिकेनैव स्वकीयरूपेण भवनादि इति पररूपेणैव कुर्यात चेतनस्वभाव प्रधानत्वेन सत्येनेति इतिव्यमहारे व केवल स्वभाव प्रधानत्वेनेति इति मिश्रभावेनेव स्वभावस्याप्य न्यत्रोपचारादिति स्यानुपचारित इति निश्रयादेव २. अपेक्षा निर्देश प्रयोजन अनेकस्वभावाराघत्व संस्कारादिदोषरहितव चिरकाल स्थायित्व निज हेतुओंके द्वारा स्वभावी कर्म का ग्रहण त्याग होता है । सामान्यपने में समर्थ है। अनेक स्वभाव दर्शकम व्यवहारकी सिद्धि परमार्थ सिद्धि स्वपर्याय परिणामित्व पर्याय त्यागिन कर्म की हानि कर्मका ग्रहण कर्म बन्ध स्वभावका अपरित्याग स्वभाव अचलचि स्वभाव में विकृति निश्चयसे एकध्व अनेक कार्यकारित्व स्वभाव प्राप्ति तद्विपरीत पर (भाव) को जानना सद्विपरीत नोट- मे तथा अन्य भी अनेकों विधिनिषेधात्मक अपेक्षाएँ एक ही पदार्थ में उसके किसी एक ही गुण या पर्यायके साथ अनेकों भिन्न दृष्टियों से लागू की जानी सम्भव है। ऐसा करते हुए उनमें विरोध भी नहीं आता। ५. अपेक्षा प्रयोगका कारण वस्तुका जटिल स्वरूप न... इदि त्ता धम्मा सियावेक्खा न गेहनाए जो हु सोहू मिच्छाइट्ठी णायवो पवयणे भणिओ । ७४| इस प्रकार पूर्वोक्त धर्मोंको जो सापेक्ष रूपसे ग्रहण नहीं करता है उसे मिथ्यादृष्टि जानो। ऐसा आगममें कहा है। www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy