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________________ स्याद्वाद ४९७ १. स्याद्वाद निर्देश स्व. स्तो./म्./१०२-१०३ (सर्वथा नियमत्यागी यथादृष्टमपेक्षकः । स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ।१०२। अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽपितान्नयाद ॥१०॥ विवक्षाको प्रयोग विधि प्रदर्शक सारणी। । वस्तुमें अनेकों विरोधी धर्म व उनमें कथंचित् अविरोध -दे, अनेकान्त//५। अनेकों अपेक्षासे वस्तुमें भेदाभेद -दे, सप्तभंगी।५। भेद व अभेदका समन्वय -दे. द्रव्य/४। नित्यानित्यत्वका समन्वय -दे. उत्पाद/२। अपेक्षा प्रयोगका कारण वस्तुका जटिल स्वरूप । एक अंशका लोप होनेपर सबका लोप हो जाता है। अपेक्षा प्रयोगका प्रयोजन । | मुख्य गौग व्यवस्था मुख्य व गौणके लक्षण मुख्य गौण व्यवस्थासे ही वस्तु स्वरूपकी सिद्धि है।' सप्तभंगीमें मुख्य गौण व्यवस्था । विवक्षा वश मुख्यता व गौणता होती है। गौणका अर्थ निषेध करना नहीं। स्यात् व कथंचित् शब्द प्रयोग विधि स्यात्कारका सम्यक् प्रयोग ही कार्यकारी है। | व्यवहारके साथ ही स्यात्कार आवश्यक है निश्चयके साथ नहीं। स्यात्कारका सच्चा प्रयोग प्रमाण ज्ञानके पश्चात् ही सम्यक् होता है -दे. नय/II/१०। स्यात्कारका प्रयोग धर्मोमें होता है गुणोंमें नहीं। स्यात्कार भावमें आवश्यक है शब्दमें नहीं। स्यात् शब्दकी प्रयोग विधि -दे. सप्तभंगी/२/३:५। कथंचित् शब्दके प्रयोग। स. सा./ता. वृ./स्याद्वाद अधिकार/५१६/११/ पर उद्धत-धर्मिणोऽनन्तरूपत्वं धर्माणां न कथंचन । अनेकान्तोऽप्यनेकान्त इति जैनमतं ततः । --१. सर्वथा रूपसे-सत ही है, असत् ही है इत्यादि रूपसे प्रतिपादन के नियमका त्यागी और यथादृष्टको-जिस प्रकार से वरतु प्रमाण प्रतिपन्न है उसको अपेक्षामें रखनेवाला जो स्यात शब्द है वह आपके न्याय ( मत ) में है । दूसरों के न्यायमें नहीं है जो कि आपके वैरी हैं ।१०२। आपके मतमें अनेकान्त भी प्रमाण और नय साधनोंको लिये हुए अनेकान्त स्वरूप है, प्रमाणकी दृष्टि से अनेकान्त स्वरूप दृष्टिगत होता है और विवक्षित नयकी अपेक्षासे अनेकान्तमें एकान्त रूप सिद्ध होता है ।१०३। (स. सा स्याद्वाद अधिकार/ता. वृ./ ५१६/९) । २. धर्मी अनेकान्त रूप है क्योंकि वह अनेक धर्मोका समूह है परन्तु धर्म अनेकान्त रूप कदाचिद भी नहीं क्योंकि एक धर्म के आश्रय अन्य धर्म नहीं पाया जाता (इस प्रकार अनेकान्त भी अनेकान्त रूप है अर्थात अनेकान्तात्मक वस्तु अनेकान्त रूप भी है और एकान्तरूप भी है। स. सा./ता. वृ. स्याद्वाद अधिकार/२१३/१७ स्यात्कथंचित् विवक्षितप्रकारेणानेकान्तरूपेण वदनं वादो जल्पः कथनं प्रतिपादनमिति स्याद्वादः । =स्यात् अर्थात् कथं चिद या विवक्षित प्रकारसे अनेकान्त रूपसे बदना, वाद करना, जल्प करना, कहना प्रतिपादन करना स्याद्वाद है। स्यात्कारका कारण व प्रयोजन स्यात्कार प्रयोगका प्रयोजन एकान्त निषेध । स्यात् शब्दसे ही नय सम्यक् होती हैं। स्यात्कार प्रयोगके अन्य प्रयोजन। स्याद्वादका प्रयोजन हेयोपादेय बुद्धि -दे. अनेकान्त/३/२। सप्त भंगीमें स्यात् शब्द प्रयोगका फल । एवकार व स्यात्कारका समन्वय । स्व, स्तो./टी./१३४/२६४ उत्पाद्यत उत्पाद्यते येनासौ वादः, स्यादिति वादो वाचकः शब्दो यस्यानेकान्तवादस्यादौ स्याद्वादः । = 'उत्पाद्यते' अर्थात जिसके द्वारा प्रतिपादन किया जाये वह वाट कहलाता है। स्याद्वादका अर्थ है वह वाद जिसका वाचक शब्द 'स्याव हो अर्थात अनेकान्तवाद है। २. विवक्षाका ठीक-ठीक स्वीकार ही स्याद्वादकी सत्यता है स. सा./पं. जयचन्द/३४४/४७३ आत्माके कर्तृत्व-अकर्तृत्वकी विवक्षाको यथार्थ मानना हो स्याद्वादको यथार्थ मानना है। , १. स्याद्वाद निर्देश १. स्याद्वादका लक्षण न. च. वृ./२५१ णियमणिसेहणसीलो णिपादणादो य जोहु खलु सिद्धो। सो सियसद्दो भणियो जो सावेव पसाहेदि ।२५११ - जो नियमका निषेध करनेवाला है, निपातसे जिसकी सिद्धि होती है, जो सापेक्षता की सिद्धि करता है वह स्यात शब्द कहा गया है। ३. स्याद्वादके प्रामाण्यमें हेतु। न्या.बि./३/०४/३६४ स्याद्वादः श्रवण ज्ञानहेतुत्वाच्चक्षुरादिवत । प्रमा प्रमितिहेतुत्वात्प्रामाण्यमुपगम्यते ।८१) शब्द को सुननेका कार्य वाच्य पदार्थका ज्ञान है उसके कारण ही स्याद्वाद की स्थिति है। इस लिए भगवत्प्रवचन रूप शाब्दिक स्याद्वाद उपचारसे प्रमाण है पर तजनित ज्ञान रूप स्याद्वाद पशु आदि ज्ञानवत् मुख्यतः प्रमाण है, क्योंकि उसकी हेतु प्रमाकी प्रमिति है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०४-६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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