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________________ शिर.कंप शालगुहा-भरत क्षेत्रका एक नगर-दे. मनुष्य/४।। शालिभद्र-भगवान् वीरके तीर्थ में अनुत्तरोपपादक हुए हैं।-दे. अनुत्तरोपपादक। शालिवाहन-१. भृत्य वंशके गोतमी पुत्र सातकर्णीका ही दूसरा प्रसिद्ध नाम शालिवाहन था। इसने वी. नि. ६०५ (ई.८०) मे शक वंशके अन्तिम राजा नरवाहन को परास्त करने के उपलक्ष्यमें शक संवत् चलाया था। यह भृत्य बंशका दूसरा राजा था। मगध देश की राज्य वंशावलीके अनुसार इसका समय-वी. नि. ६००-६४६ (ई. ७४-१२०) विशेष-दे, इतिहास/३/४) । २. शालिवाहन विक्रम संवत् शक संवत्को ही कहते हैं-दे. इतिहास/२/३ तथा कोश /परिशिष्ट। शालि सिक्थ मत्स्य-दे. संमूर्च्छन/७।। शाल्मली वृक्ष-देवकुरुमें स्थित अनादि शाल्मलीका वृक्ष । यह पृथिवीकायका है।-दे. वृक्ष । शाल्मली वृक्षस्थल-देवकुरुमें स्थित एक भू भाग जिसमें शाल्मली वृक्ष व उसके परिवार वृक्षोंका अवस्थान-दे. लोक/३/१३ ॥ शाश्वत उपादान कारण-दे. उपादान । शाश्वतासंख्यात-दे. असंरख्यात । शासन-१. स्या, म./२१/२६३७ आ सामस्त्येनानन्तधर्मविशिष्टतया ज्ञायन्तेऽबबुद्धयन्ते जीवाजीवादयः पदार्था यया सा आज्ञा आगमः शासनं । जिसके द्वारा समस्त रूप अनन्तानन्त धर्म विशिष्ट जीवाजीवादिक पदार्थ जाने जाते हैं वह आज्ञा या आगम शासन कहलाता है। २. आत्माको जानना समस्त जिन शासनका जानना है।-दे. श्रुतकेवली/२/६ ।। शासन दिवस-दे. महाबीर /२। शास्त्र-१.कल्प शास्त्रादिका लक्षण भ. आ./वि./१३०/३०७/१४ काप्यते अभिधीयते येन अपराधानुरूपो दण्डः स कल्पः। भ. आ./वि./६१२/८१२/७ स्त्रीपुरुष रक्षणं निमित्तं, ज्योतिनि, छन्दः अर्थशास्त्र, वेद्य', लौकिकवैदिकसमयाश्च बाह्यशास्त्राणि । -१. जिसमें अपराधके अनुरूप दण्डका विधान कहा है उस शास्त्रको कल्पशास्त्र कहते हैं। २. स्त्री पुरुषके लक्षणोंका वर्णन करनेवाले शास्त्रको निमित्तशास्त्र कहते हैं। ३. ज्योतिनि, छन्दशास्त्र, अर्थशास्त्र, वैद्यक शास्त्र, लौकिक शास्त्र, मन्त्रवाद आदि शास्त्रों को बाह्यशास्त्र कहते हैं। मू /भाषा./१४४ । ४ व्याकरण गणित आदि लौकिक शास्त्र हैं। ५. सिद्धान्त शास्त्र वैदिक शास्त्र कहे जाते हैं, ६. स्याद्वाद न्याय शास्त्र व अध्यात्म शास्त्र सामायिक शास्त्र जानना। २. शास्त्र लिखने व पढ़नेसे पूर्व षटु आवश्यक ध.१/गा, १/७ मंगल-णिमित्त-हेउ परिमाणं णाम तह य कत्तारं । बागरिय छ पि पच्छा बखाणउ सत्यमाइरियो। - मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम, कर्ता इन छह अधिकारों का व्याख्यान करने के पश्चात आचार्य शास्त्रका व्याख्यान करें।१। १. अन्य सम्बन्धी विषय १. शास्त्र सामान्यका लक्षण व विषय -दे. आगम। २. शास्त्र व देवपूजामें कथंचित् समानता ३ शास्त्रमें कथंचित् देवत्व --दे, देव/1१। ४ शास्त्र श्रद्धानका सम्यग्दर्शनमें स्थान -देसम्यग्दर्शन/11/१ ५ शास्त्रार्यके विधि निषेध सम्बन्धी -दे. वाद शास्त्रज्ञान-दे. आगम । शास्त्रदान-दे. दान । शास्त्र वार्ता समुच्चय-श्वेताम्बराचार्य यशोविजय (ई. १६२८-१६८८) द्वारा संस्कृत भाषामें रचित न्याय विषयक ग्रन्थ । शास्त्रसार समुच्चय-माघनन्दि योगीन्द्र (ई.श.१२ उत्तरार्ध) कृत १६६ संस्कृत सूत्र प्रमाण सिद्धान्त ग्रन्थ । (सी./३/२८५)। शास्त्राभ्यास-दे. स्वाध्याय । शिकार-दे. आखेट । शिक्षा-भ. आ./वि./६७/१६४/६ शिक्षाश्रुतस्य अध्ययनमिह शिक्षाशब्देनोच्यते। जिणबयणं कलुसहरं अहो य रत्ती य पढिदव्य मिदि । शास्त्राध्ययन करना यह शिक्षा शब्दका अर्थ है। जिनेश्वरका शास्त्र पाप हरनेमें निपुण है अतः उसको दिनरात पढ़ना चाहिए। शिक्षाकाल - दे. काल/१। शिक्षा गुरु-दे, गुरु/१ । शिक्षा व्रत-भ. आ./म./२०८२-२०८३ भोगाणं परिसंवा सामाझ्य मतिहिसंविभागो य। पोसहविधी य सब्बो चदुरो सिक्वाउ बुत्ताओ ।२०६२। आसुकारे मरणे अव्वोच्छिण्णाए जोविदासाए । णादीहि वा अमुक्को पच्छिमसालेहणमंकासी ।२.८३-भोगोपभोग परिमाण, सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथि संविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं ।२०७२। इन व्रतोंको पालनेवाला गृहस्थ सहसा मरण आनेपर जीवितको आशा रहनेपर, जिसके बन्धुगणने दीक्षा लेनेकी सम्मति नहीं दी है ऐसे प्रसंगमें सल्लेखना धारण करता है। (स. सि./७/२१,२२/३५६,३६३/७.१) । र. क. श्रा./११ देशावकाशिकं वा सामायिक प्रोषधोपवासो वा। वैयावृत्यं शिक्षावतानि चत्वारि शिष्टानि ।११-देशावकाशिक तथा सामायिक, प्रोषधोपवास और यावृश्य ये चार शिक्षाबत कहे गये हैं। चा. पा./मू./२६ सामाइयं च पढमं विदियं च तहेब पोसई भणियं । तइयं च अतिहिपुज्ज चउत्थ सल्लेहणा अंते । = पहला सामायिक शिक्षाबत, दूसरा प्रोषधवत, तीसरा अतिथि पूजा और चौथा शिक्षाबत अन्त समय सल्लेखना है ।२६। वसु, श्रा./२१७-२१६,२७० भोगविरति, परिभोग-निवृत्ति तीसरा अतिथि सविभाग व चौथा सग्लेखना नामका शिक्षा व्रत होता है। शिखडी-दुपद राजाका पुत्र था। इसके बाणोंसे तारित होकर भीष्म पितामहने संन्यास धारण कर लिया। (पा. पु/१६/२४३) । शिखरी-रा.वा./३/११/११/१८४/१ शिखराणि कुटान्यस्य सन्तीति शिखरीति संज्ञायते। अन्यत्रापि तव सद्भावे रूढिवशाद्विशेषे वृत्तिशिखण्डित -जिसके शिखर अर्थात् कूट हो उसकी शिखरी संज्ञा है। यह रूढ संज्ञा है जैसे कि मोरकी शिखंडी संज्ञा रूढ है। (यह ऐरावत क्षेत्रके दक्षिणमैं स्थित पूर्वापर लभ्लायमान वर्षधर पर्वत है)। विशेष -दे. लोक/५/३५. २. शिरवरी पर्वतस्थ एक कूट व उसका स्वामी देव-दे. लोक/४ । ३. पद्म ह्रदमें स्थित एक कूट-दे. लोक/५/७।। शिखाचारण ऋद्धि-दे धि। शिप्रा-भरत क्षेत्र आर्य खण्डको एक नदी-दे. मनुष्य/४ । शिरःप-कालका परिमाण विशेष। अपरनाम श्रीकल्प-दे, गणित/म। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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