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________________ सत्यदत्त २७४ सत्त्व | गतिप्रकृतिके सत्त्वसे जीवके जन्मका सम्बन्ध नहीं, आयुके सत्त्वसे है। -दे. आयु/२ आयु प्रकृति सत्त्व युक्त जीवकी विशेषताएँ । -दे. आयु/६ । जघन्य स्थिति सत्त्व निषेक प्रधान है और उत्कृष्ट काल प्रधान । ६ जघन्यस्थिति सत्त्वका स्वामी कौन । सातिशय मिथ्यादृष्टिका सत्त्व सर्वत्र अन्तःकोटाकोटिसे भी हीन है। -दे. प्रकुतिबन्ध/७/४ अयोगीके शुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग सत्त्व पाया जाता है। -दे, अपकर्षण/४/ प्रदेशोंका सत्व सर्वदा १॥ गुणहानि प्रमाण होता मंगवाये (१६८-१६६) । इसके फल में राजा द्वारा दण्ड दिया जानेपर आतध्यानसे मरकर सर्प हुआ (१७५-१७७) अनेकों भवोंके पश्चात् विद्वयुद्धदंष्ट्र विद्याधर हुआ। तब इसने सिंहसेनके जीव संजयन्त मुनि पर उपसर्ग किया। -विशेष दे. विद्य दंष्ट्र । २. इसीके रत्न उपरोक्त सत्यघोषने मार लिये थे। इसकी सत्यतासे प्रसन्न होकर राजाने इसको मन्त्री पदपर नियुक्त कर सत्यघोष नाम रखा। -दे. चंद्र मित्र सत्यदत्त-एक विनयबादी -दे, वैनयिक । सत्य प्रवाद-द्रव्यश्रुतका छठा पूर्व -दे. श्रुतज्ञान/II सत्यभामा-ह. पु./सर्ग/श्लोक-सुकेतु विद्याधरकी पुत्री थी। कृष्णको रानी थी (३६/५८) इसके भानु नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई (४४/१) । अन्तमें दीक्षा धारण कर ली ( ६१/४०)। सत्यमनोयोग-दे. मन । ' सत्यवचनयोग-दे, वचन । सत्यवाक कंगुनीवरम्-एक राजा था। समय-ई, १०८-६५० (जोवन्धर चम्पू/प्र./१४) । सत्य शासन परीक्षा-आ.विद्यानन्दि(ई.७७५-८४०)द्वारा रचित संस्कृत भाषा बद्ध न्यायविषयक ग्रन्थ है जिसमें न्याय पूर्वक जिनशासनकी स्थापना की गयी है । (ती./२/३५७)। सत्यादेवी-रुचकपर्वत निवासिनी दिक्कुमारीदेवी --दे. लोक५/१३॥ सत्याभ-एक लौकान्तिकदेव -दे. लौकान्तिक । सत्योपचार-दे. उपचार/१। सत्त्व-सत्त्व का सामान्य अर्थ अस्तित्व है, पर आगममें इस शब्दका प्रयोग संसारी जीवोंमें यथा योग्य कर्म प्रकृतियोंके अस्तित्व के अर्थ में किया जाता है। एक बार बँधनेके पश्चात् जब तक उदयमें आ-आकर विवक्षित कर्म के निषेक पूर्णरूपेण झड़ नहीं जाते तब तक उस कर्मको सत्ता कही गयी है। प्रकृतियोंके सत्त्वमें निषेक रचना। -दे. उदय/३ सत्वके साथ बन्धका समानाधिकरण नहीं। सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थिति सत्व २ समय कैसे। पाँचवेंके अभिमुखका स्थिति सत्त्व पहलेके अभिमुखसे हीन है। सत्त्व व्युच्छित्ति व सत्व स्थान सम्बन्धी दृष्टिभेद सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ ३ सत्त्व निर्देश सत्व सामान्यका लक्षण । उत्पन्न व स्वस्थान सत्वके लक्षण । बन्ध उदय व सत्त्वमें अन्तर । सत्व योग्य प्रकृतियोंका निर्देश । -दे, उदय/२ | प्रकृति सत्व न्युच्छित्तिकी ओघ प्ररूपणा । सातिशय मिथ्यादृष्टियों में सर्व प्रकृतियोका सत्त चतुष्क। - प्रकृति सत्व असत्व की आदेश प्ररूपणा । ४ मोह प्रकृति सत्वको विभक्ति अविभक्ति। | मूलोत्तर प्रकृति सत्व स्थानको ओघ प्ररूपणा। मूल प्रकृति सत्त्र स्थान सामान्य प्ररूपणा। मोहप्रकृति सत्त स्थान सामान्य प्ररूपणा । मोह सत्त स्थान ओष प्ररूषणा । मोह सत्व स्थान आदेश प्ररूपणाका स्वामित्व विशेष । मोह सत्व स्थान आदेश प्ररूपणा। नाम प्रकृति सत्व स्थान सामान्य प्ररूपणा। जीव पदोंकी अपेक्षा नामकर्म सत्व स्थान प्ररूपणा। नामकर्म सत्त्र स्थान ओघ प्ररूपणा । नामकर्म सत्व स्थान आदेश प्ररूपणा । नाम प्रकृति सत्व स्थान पर्याप्तापर्याप्त प्ररूपणा। | मोह स्थिति सत्त्वकी ओघ प्ररूपणा। | मोह स्थिति सत्त्वक्री आदेश प्ररूपणा। सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृतिके सत्त्व कालकी प्ररूपणा विशेष । -दे. काल/६ | सत्त्व प्ररूपणा सम्बन्धी नियम तीर्थकर व आहारकके सत्व सम्बन्धी। अनन्तानुबन्धीके सत्व असत्व सम्बन्धी। ३ । छब्बीस प्रकृति सत्त्वका स्वामी भिश्यादृष्टि होता है। २८ प्रकृतिका सत्त्व प्रथमोपशमके प्रथम समयमें होता है। प्रकृतियों आदिके सत्त्वकी अपेक्षा प्रथम सम्यक्त्वकी योग्यता। -दे. सम्यग्दर्शन/IV/R - - - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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