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________________ सत्य २७३ सत्यघोष ३. असत्य सम्भाषणका निषेध भ. आ./मू./८४७, ८५०/१७५,६७७ अलियं सकि पि भणिदं घादं कुणदि बहुगाण सव्वाणं। अदिसंकिदो य सयमवि होदि अलियभासणो पुरिसो।९४७ परलोगम्मि वि दोस्सा ते चेव हवं ति अलियवादिस्स । मोसादीए दोसे जत्तण वि परिहरंतस्स ।८५०।- एक मार मोला हुआ असत्य भाषण अनेक मार बोले सत्य भाषणोंका संहार करता है। असत्यवादी स्वयं डरता है तथा शंकायुक्त है कि मेरा असत्य भाषण प्रकट होगा तो मेरा नाश होगा।८४७. असत्य भाषीके अविश्वास आदि दोष परलोकमें भी प्राप्त होते हैं परजन्ममें प्रयत्नसे इनका त्याग करने पर भी इन दोषों का उसके ऊपर आरोप आता है 1८1 कुरल/१२/६ नीतिं मनः परित्यज्य कुमागं यदि धावते। सर्वनाश विजानीहि तदा निकटसंस्थितम् ।६-जन तुम्हारा मन सत्यसे विमुख होकर असत्यकी ओर झुकने लगे तो समझ कि तुम्हारा सर्वनाश निकट ही है। ममतामयी स्निग्ध दृष्टिमें ही धर्मका निवासस्थान है ३ नम्रता और प्रिय-सम्भाषण, बस ये ही मनुष्यके आभूषण हैं अन्य नहीं। असत्य भाषण मत करो यदि मनुष्य इस आदेशका पालन कर सके तो उसे दूसरे धर्मको पालन करनेकी आवश्यकता नहीं है ।। ज्ञा.//२७,२६ व्रतश्रुतयमस्थानं विद्याविनयभूषणम् । चरणज्ञानयोर्मीजं सत्यसंशं तं मतम् ।२७। चन्द्रमूर्तिरिवानन्दं वर्द्ध यन्ती जगत्त्रये । स्वर्गिभिधियते मूनों कोतिः सत्योत्थिता नृणाम् ॥२६॥सत्यवत श्रुत और यमोंका स्थान है, विद्या और विनयका भूषण है, और सम्यग्ज्ञान व सम्यरचारित्र उत्पन्न करनेका कारण सत्य वचन ही है।२७ तीन लोकोंमें चन्द्रमाके समान आनन्दको बढ़ानेवाली सत्यवचनसे उत्पन्न हुई मनुष्योंको कीर्तिको देवता भी मस्तकपर धारण करते हैं ।२६॥ (पं. वि./१/६२-६३)। ४. कटु सम्भाषणका निषेध कुरल./१३/८,६ एकमेव पदं वाण्यामस्ति चेन्मर्मघातकम् । विनष्टास्तहि विज्ञेया उपकाराः पुराकृताः दग्धमङ्ग पुनः साधु जायते कालपाकतः। कालपाकमपि प्राप्य न प्ररोहति वावक्षतम् ।। कुरल./१४/४ विद्याविनयसंपन्नः शालीनो गुणवान् भरः। प्रमादादपि दुर्वाक्यं न ब्र ते हि कदाचन । यदि तुम्हारे एक शब्दसे भी किसीको कष्ट पहुँचता है तो तुम अपनी सम भलाई नष्ट हुई समझो । आगका जला हुआ तो समय पाकर अच्छा हो जाता है, पर वचनका घाव सदा हरा बना रहता है ।। अवाच्य तथा अपशब्द, भूलकर भी संयमी पुरुषके मुखसे नहीं निकलेंगे। ७. धर्मापत्तिके समय सत्यका त्याग भी न्याय है सा.ध./४/३६ कन्यागोक्ष्मालोक-कूटसाक्ष्यन्यासापलापवत् । स्यात्सत्याणुबती सत्यमपि स्वान्यापदे त्यजन् ।३०-व्रती श्रावक कन्या अलीक, गोअलीक, पृथ्वी अलीक, कूटस्थ अलीक और न्यासालापकी तरह अपने तथा परको विपत्तिके हेतु सत्यको भी छोड़ता हुआ सत्याणुव्रतधारी कहलाता है ॥३॥ अमि. श्रा./4/४७ सत्यमपि विमोक्तव्यं परपीडारम्भतापभयजनकम् । पापं विमोक्तुकामैः सुजनैरिव पापिना वृत्तम् । = पापारम्भको छोड़नेकी वाँछावाला पुरुष पर जीवोंको पीडाकारक आरम्भ, भय व सन्ताप जनक ऐसे सत्य वचनको भी छोड़े।४७। * धर्म हानिके समय बिना बुलाये भी बोले-दे. वाद। ५. व्यर्थ सम्भाषणका निषेध कुरल./२०/७,१० उचितं बुध चेद भाति कुर्याः कर्कशभाषणम् । परं नैव वृथालापं यतोऽस्माद्वै तदुत्तमम् 18 वाचस्ता एव वक्तव्या या श्लाघ्याः सम्यमानवैः । वर्जनीयास्ततो भिन्ना अवाच्या या बृथोक्तयः ।१०। यदि समझदारको मालूम पड़े तो मुखसे कठोर शब्द कह ले, क्योंकि यह निरर्थक भाषणसे कहीं अच्छा है ।७। मुखसे बोलने योग्य वचनोंका ही तू उच्चारण कर, परन्तु निरर्थक शब्द मुखसे मत निकाल १०१ ८. सत्यधर्म व भाषा समितिमें अन्तर स. सि./8/६/४१२/७ ननु चैतद् भाषासमितावन्तर्भवति। नैष दोषः; समिती प्रवर्तमानो मुनिः साधुष्वसाधुषु च भाषाव्यवहारं कुर्वन् हितं मितं च ब्र या अन्यथा रागादनर्थदण्डदोषः स्यादिति वाक्समितिरित्यर्थः । इह पुनः सन्तः प्रब्रजितास्तभक्ता बा तेषु साधु सत्यं ज्ञानचारित्रशिक्षणादिषु बह्वपि कर्तव्यमित्यनुज्ञायते धर्मोपबृहणार्थम । -प्रश्न-इसका ( सत्यका ) भाषा समितिमें अन्तर्भाव नहीं होता है ! उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि समिति के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला मुनि साधु और असाधु दोनों प्रकार के मनुष्योंमें भाषा व्यवहार करता हुआ हितकारी परिमित वचन बोले, अन्यथा राग होनेसे अनर्थदण्ड दोष लगता है यह वचन समितिका अभिप्राय है। किन्तु सत्य धर्म के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला मुनि सज्जन पुरुष, दीक्षित या उनके भक्तोंमें साधु सत्य वचन बोलता हुआ भी ज्ञान चारित्रके शिक्षण के निमित्त बहुविध कर्तव्यों की सूचना देता है और यह सन धर्मकी अभिवृद्धिके अभिप्रायसे करता है। इसलिए सत्य धर्मका भाषा समितिमें अन्तर्भाव नहीं होता। (रा. वा./8/६/१०/ ५६६/६). ६. सत्यकी महत्ता सत्यका अहिंसामें अन्तभोव-दे, अहिंसा/३। भ, आ./मू./८३५-८५२ ण डहदि अग्गी सच्चेण णरं जलं च तं ण बुड्डेइ । सच्चमलियं खु पुरिसंण बहदि तिक्खा गिरिणदी वि३८॥ सच्चेण देवदावो णवंति पुरिसस्स ठंति व वसम्मि। सच्चेण य गहगहिदं मोएइ करेंति रक्खं च ।८३६।-सत्यवादीको अग्नि जलाती नहीं, पानी उसको डुनोनेमें असमर्थ होता है। सत्य भाषण हो जिसका सामर्थ्य है ऐसे मनुष्यको भड़े वेगसे पर्वतसे कूदनेबाली नदी नहीं बहा सकती।८३८। सत्यके प्रभावसे देवता उनका बन्दन करते हैं, उसके वश होते हैं, सत्यके प्रभावसे पिशाच भाग जाता है तथा देवता उनके रक्षण करते हैं ।३१। (ज्ञा /8/२८)। कुरल./१०/३.५ स्नेहपूर्णा, दयादृष्टिार्दिकी या च वाक्सुधा। एतयोरेब मध्ये तु धर्मो वसति सर्वदा ।। भूषणे द्वे मनुष्यस्य नम्रताप्रियभाषणे। अन्यद्धि भूषणं शिष्टाढतं सभ्यसंसदि ।। कुरल./३०/७ न वक्तव्यं न वक्तव्यं मृषावाक्यं कदाचन । सत्यमेव परो धर्मः किं परधर्मसाधनैः ७१ = हृदयसे निकली हुई मधुर वाणी और पुत्र-१भावि कालीन २३, २४ वें तीर्थ करका पूर्व अनन्तर भव-दे, तीर्थ कर/५ । २. वर्तमान कालीन ११वाँ रुद्र ८ । दे. शलाका पुरुष/७। सत्यघोष-१.म पु./१६/श्लोक सं. सिंहपुर नगरके राजा सिंहसेन राजाका श्रीभूति नामक मन्त्री था। परन्तु इसने अपनेको सत्यघोष प्रसिद्ध कर रखा था (१४६-१४७)। एक समरा भद्र मित्र सेठके रत्न लेकर मुकर गया ( १५१) । तब रानीने चतुराई से इसके घरसे रत्न भा०४-३५ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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