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________________ सचित्त प्राक नहीं किये गये हरे अंकुर, हरे बोज, जल, नमकादि पदार्थोंको नहीं खानेवाला दयामूर्ति श्रावक सचित्त विरत माना गया है। जो प्रयोजनत्र पैर से भी छूता हुआ अपनी निन्दा करता है वह श्रावक मिले हुए हैं अनन्तानन्त निगोदिया जीव जिसमें ऐसी वनस्पतियोंको कैसे खायेगा । नोंका जिनागम सम्बन्धी निर्णय. इन्द्रिय विषय आश्चर्यजनक है, क्योंकि वैसे सजन दिखाई नहीं देते जो, प्राणों का क्षय होनेपर भी हरी वनस्पतिको नहीं खाते |१०| ३. सचित्ताविधान आदिके लक्षण 1 स. सि. / ०/३५-३६ / ३७१ / ६ सचित्तं चेतनाबद् द्रव्यम् । तदुपश्लिष्टः संबन्धः । व्यतिकीर्णः संमिश्रः ॥२३॥ पित्रानिक्षेपः सचितनिक्षेपः । अभिधानमावरण सचितेनेव समभ्यते सचितापिधानमिति | ३६ | सचित्त से चेतना द्रव्य लिया जाता है। इससे सम्बन्धको प्राप्त हुआ द्रव्य सम्बन्धाहार है । और इससे मिश्रित यस है | ३|रा बा./०/३६/२-३/०६/२) सचित कमल पत्र आदि में रखना सचित्त निक्षेप है । अपिधानका अर्थ ढाँकना है इस शब्दको भी सचित्त शब्दसे जोड़ लेना चाहिए जिससे सचित्ता. पिधानका सचित्त कमलपत्र आदिसे ढाँकना यह अर्थ फलित होता है। (रा. मा./०/३६/१-२/५६८/२० ) । 1 ४. भोगोपभोग परिमाण व्रत व सचित्त त्याग प्रतिमामें अन्तर भ चा. सा. / ३८/१ बायोपभोगपरिभोपरिमाणशीलतातिचारी तीति । - उपभोग परिभोग परिमाण शीलके जो अतिचार हैं उनका त्याग हो इस प्रतिमामें किया जाता है। सा. घ. / ७ /११ सचित्तभोजनं यत्प्राङ् मलत्वेन जिहासितम्। व्रतयत्यङ्गिपञ्चत्व चकितस्तञ्च पञ्चमः | ११ | व्रती श्रावकने सचित्त भोजन पहले भोगोपभोग परिमाण व्रतके अतिचार रूपसे छोड़ा था उस सचित्त भोजनको प्राणियोंके मरणसे भयभीत पंचम प्रतिमाधारी मत रूपसे छोड़ता है | ११ | - - ला. सं./७/१६ इतः पूर्वं कदाचिद्वै सचित्तं वस्तु भक्षयेत । इतः परं स नानुयासचिद्यपि ।९। पंचम प्रतिमासे पूर्व कभी-कभी सचित्त पदार्थो का भक्षण कर लेता था। परन्तु अब सचित्त पदार्थोंका भक्षण नहीं करता। यहाँ तक कि सचित्त जलका भी प्रयोग नहीं करता । १६। ५. वनस्पतिके सर्व भेद अचित्त अवस्था में ग्राह्य हैं दे. मझ्याभक्ष्य /४/४ [ जिमिबंद आदिको सचित रूपमें खाना संसारका कारण है । ] दे० सचित्त / २ [ सचित्त विरत श्रावक सचित्त वनस्पति नहीं खाता ] दे. सागर पके व विदारे कंद आदि प्राशुक है। सू. आ./८२५-२६ फलकंदमूलकी अपितु जामयं किचि णञ्चा अणेसणीयं गवि य पडिच्छति ते धीरा | २५ | जं हवदि अगिव्वीयं णिवट्टिमं फ्रायं कयं चेत्र । णाऊण एसणीयं तं भिक्ख अग्निवर नहीं के ऐसे कंद मूल बीज, तथा अन्य भी जो कच्चा पदार्थ उसको अभक्ष्य जानकर वे धीर वीर मुनि भक्षणको इच्छा नहीं करते | २५ | जो निर्बीज हो और प्रासुक किया गया है ऐसे आहारको खाने योग्य समझ मुनिराज उसके लेनेकी इच्छा करते हैं ||२६| 1 " ला. सं./२/१०४ विवेकस्यावकाशोऽस्ति देशतो विरतावपि । आदेयं Jain Education International = १५८ सत् प्रायोग्यं नादेयं तद्विपर्ययम् । १०४ देशस्थान मे विवेककी बड़ी आवश्यकता है । निर्जीव तथा योग्य पदार्थोंका ग्रहण करना चाहिए। सचित्त तथा अयोग्य ऐसे पदार्थोंको ग्रहण नहीं करना चाहिए | १०४ | ६. पदार्थोंको प्रासुक करनेकी विधि यू. बा./८५४ = सुक्कं पक्कं तत्तं अंबिल लवणेण मिस्सयं दव्वं । जं जंतेण य छिन्नं साहु भवियं १८२४॥ सूरखी हुई पकी हुई, तपायी हुई, खटाई या नमक आदिसे मिश्रित वस्तु तथा किसी यंत्र अर्थात् चाकू आदि छिन्न-भिन्न की गयी सही वस्तुको प्राशुक कहा जाता है। गो.जी./जी.प्र./२२४/४८३/१४ सुम्कपनमस्ताम्हण मिश्रग्धादि व्यं प्राशुकं सूखे हुए पके हुए मस्त खटाई या नमक आदिसे मिश्रित अथवा जले हुए द्रव्य प्रासुक हैं। ७. अन्य सम्बन्धित विषय १. सचित्त त्याग प्रतिमा व आरम्भ त्याग प्रतिमामें अन्तर । २. सूखे हुए भी उदम्बर फल निषिद्ध हैं । ३. साधुके बिहार के लिए अनि मार्ग। ४. मांसको मासुक किया जाना सम्भव नहीं । -- दे. मांस / २ | ५. अनन्त कायिकको प्रातक करनेमें फह कम है और हिसा अधिक । - दे. भक्ष्याभक्ष्य / ४ /३ ६. वही जीव वा अन्य कोई भी जीव उसी भीजके योनि स्थानमें जन्म धारण कर सकता है । - दे. जन्म / २ । सचित गुणयोग ग सचित्त निक्षेप - दे. निक्षेप । सचित्त योनि योनि । सचित्त संबंध - दे. सचित्त / ३ | ३ । सचित संमिश्र - दे. सचिन/ सचित्तापिधानदेि - दे. आरम्भ । - दे. भक्ष्याभक्ष्य । ३. बिहार /१/० सज्जनचित्त वल्लभ-आ. मलिषेण ( १०४०) द्वारा विर चित अध्यात्म उपदेश रूप संस्कृत छन्द मद्ध ग्रन्थ है। इसमें २५ रोक हैं। सत्- सदका सामान्य लक्षण पदार्थोंका स्वतः सिद्ध अस्तित्व है। जिसका निरन्वय नाश असम्भव है। इसके अतिरिक्त किस गति जाति व कायका पर्याप्त या अपर्याप्त जीव किस-किस योग मार्गणा में अथवा कषाय सम्यक्त्व व गुणस्थानादि में पाने सम्भव हैं, इस प्रकार - की विस्तृत प्ररूपणा ही इस अधिकारका विषय है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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