SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शरीर शलाका पुरुष होना संसारके दुःखोंका मूल कारण है। इसलिए शरीरमें आत्मत्वको छोड़कर बाह्य इन्द्रिय विषयोंसे प्रवृत्तिको रोकता हुआ आत्मा अन्तरंगमें प्रवेश करे ।१५॥ आ.अनु./१६५ आदौ तनोर्जननमत्र हतेन्द्रियाणि काङ्क्षन्ति तानि विषया विषयाश्च मानहानिप्रयासभयपापकुयोनिदाः स्यु-मूलं ततस्तनुरनर्थ परंपराणाम् ।१९५॥ -- प्रारम्भमें शरीर उत्पन्न होता है, इससे दुष्ट इन्द्रियाँ होती हैं, वे अपने-अपने विषयों को चाहती हैं। और वे विषय मानहानि, परिश्रम, भय, पाप एवं दुर्गतिको देनेवाले हैं। इस प्रकारसे समस्त अनर्थों की मूल परम्पराका कारण शरीर है ।१६॥ ज्ञा.२/६/१०-११ शरीरमेतदादाय त्वया दुःख विसह्यते । जन्मन्यस्मिस्ततस्तद्धि निःशेषानर्थमन्दिरम् ।१०। भवोद्भवानि दुःखानि यानि यानीह देहिभिः । सह्यन्ते तानि तान्युच्चैर्व पुरादाय केवलम् ।१०-हे आत्मन । तूने इस संसार में शरीरको ग्रहण करके दुःख पाये वा सहे हैं. इसीसे तू निश्चय जान कि यह शरीर ही समस्त अनर्थोंका घर है, इसके संसर्ग से सुखका लेश भी नहीं मान ।१०। इस जगदमें संसारसे उत्पन्न जो-जो दुःख जीवोंको सहने पड़ते हैं वे सब इस शरीरके ग्रहणसे ही सहने पड़ते हैं, इस शरीरसे निवृत्त होनेपर कोई भी दुःख नहीं है ।११॥ २. शरीर वास्तव में अपकारी है इ. उ./१६ यज्जोबस्योपकाराय तदेहस्यापकारकं । यद देहस्योपकाराय तज्जीवस्यापकारकं ।१६। - जो अनशनादि तप जीवका उपकारक है वह शरीरका अपकारक है, और जो धन, वस्त्र, भोजनादि शरीरका उपकारक है वह जीवका अपकारक है ।११! अन. ध./४/१४१ योगाय कायमनुपालयतोऽपि युक्त्या, क्लेश्यो ममत्वहतये तव सोऽपि शक्त्या। भिक्षोऽन्यथाक्ष्सुखजीवितरन्धलाभात, तृष्णा सरिद्विधुरयिष्यति सत्तपोद्रिम् ।१४१- योग-रत्नत्रयात्मक धर्म की सिद्धि के लिए संयम के पालनमें विरोध न आवे इस तरहसे रक्षा करते हुए भी शक्ति और युक्तिके साथ शरीरमें लगे ममत्वको दूर करना चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार साधारण भी नदी जरासे भी छिद्रको पाकर दुर्भेद्य भी पर्वतमें प्रवेशकर जर्जरित कर देती है उसी प्रकार तुच्छ तृष्णा भो समीचीन तप रूप पर्वतको छिन्न-भिन्नकर जर्जरित कर डालेगी ।१४१३ 1. धर्मार्थीके लिए शरीर उपकारी है ज्ञा.२/६/१ तैरेव फलमेतस्य गृहीतं पुण्यकर्मभिः। विरज्य जन्मनः स्वार्थे यैः शरीरं कथितम् । = इस शरीरके प्राप्त होनेका फल उन्होंने लिया है, जिन्होंने संसारसे विरक्त होकर, इसे अपने कल्याण मार्गमें पुण्यकर्मोसे क्षीण किया।। अन. ध./४/१४० शरीरं धर्मसंयुक्त रक्षितव्यं प्रयत्मतः । इत्याप्तवाचस्त्वग्देहस्त्याज्य एवेति तण्डुलः ॥१४०। -धर्मके साधन शरीरकी प्रयत्न पूर्वक रक्षा करनी चाहिए', इस शिक्षाको प्रवचनका तुष समझना चाहिए। 'आत्मसिद्धिके लिए शरीररक्षाका प्रयत्न सर्वथा निरुपयोगी है। इस शिक्षाको प्रवचनका तण्डल समझना चाहिए । अन, ध// शरीमाद्य किल धर्मसाधनं, तदस्य यस्येव स्थितयेऽशनादिना। तथा यथाक्षाणि वशे स्युरुत्पथं, न वानुधावन्त्यनुबद्धतृड्वशात् ।। -रत्नरूप धर्मका साधन शरीर है अतः शयन, भोजनपान आदिके द्वारा इसके स्थिर रखनेका प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु इस बातको सदा लक्ष्यमें रखना चाहिए कि भोजनादिकमें प्रवृत्ति ऐसी और उतनी हो जिससे इन्द्रियाँ अपने अधीन रहें। ऐसा न हो कि अनादिकालकी वासनाके वशवर्ती होकर उन्मार्गकी तरफ दौड़ने लगें ।। ४. शरीर ग्रहणका प्रयोजन आ. अनु./७० अवश्यं नश्वरैरेभिरायुः कायादिभिर्यदि। शाश्वतं पदमायाति मुधायातमवैहि ते ७० - इसलिए यदि अवश्य नष्ट होनेवाले इन आयु और शरीरादिकोंके द्वारा तुझे अविनश्वर पद प्राप्त होता है तो तू उसे अनायास ही आया समझ/७।। ५. शरीर बन्ध बतानेका प्रयोजन पं.का./ ता. वृ./३४/७३/१० अत्र य एव देहाद्भिन्नोऽनन्तज्ञानादिगुणः शुद्धात्मा भणितः स एव शुभाशुभसंकल्पविकल्पपरिहारकाले सर्वत्र प्रकारेणोपादेयो भवतीत्यभिप्रायः। यहाँ जो यह देहसे भिन्न अनन्त ज्ञानादि गुणोंसे सम्पन्न शुद्धात्मा कहा गया है, वह आत्मा ही शुभ व अशुभ संकल्प विकल्पके परिहारके समय सर्व प्रकारसे उपादेय होता है, ऐसा अभिप्राय है। द्र.सं./टी./१०/२७/७ इदमत्र तात्पर्यम्-देहममत्वनिमित्तेन देहं गृहीत्वा संसारे परिभ्रमति तेन कारणेन देहादिममत्वं त्यक्त्वा निर्मोहनिजशुद्धात्मनि भावना कर्तव्येति। तात्पर्य यह है-जीव देहके साथ ममत्वके निमित्तसे देहको ग्रहणकर संसारमें भ्रमण करता है, इसलिए देह आदिके ममत्वको छोड़कर निर्मोह अपने शुद्धारमामें भावना करनी चाहिए। शरीर पर्याप्ति-दे. पर्याप्ति । शरीर पर्याप्ति काल-दे. काल/१। शरीर मद-दे. मद। शरीर मिश्र काल-दे. काल/१। शकराप्रभा-१, स. सि./३/१/२०१८ शर्कराप्रभासहचरिता भूमिः शर्कराप्रभा। ...एताः संज्ञा अनेनोपायेन व्युत्पाद्यन्ते। -जिसकी प्रभा शर्कराके समान है वह शर्कराप्रभा है ।...इस प्रकार नामके अनुसार व्युत्पत्ति कर लेनी चाहिए। (ति. प./२/२१); (रा. वा./२/१/ ३/९५६/१८); (ज. प./११/१२१) । २. शर्कराप्रभा पृथिवीका लोकमें अवस्थान । दे. नरक/५/११:३. शर्कराप्रभा पृथिवीका नकशा। दे. लोक/२/। शरावती-भरत क्षेत्रस्थ आर्य खण्डकी एक नदी-दे, मनुष्य/४। शलाका-जो विवक्षित भाग करनेके अर्थ किच्छ प्रमाण कल्पना कीजिये ताका नाम यही शलाका जानना। विशेष-दे. गणित/II/२ शलाका पुरुष-तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि प्रसिद्ध पुरुषों को शलाका पुरुष कहते हैं । प्रत्येक कल्पकाल में ६३ होते हैं। २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, हबलदेव, हनारायण, प्रतिनारायण। अथवाह नारद, १२ रुद्र २४ कामदेव, व १६ कुलकर आदि मिलानेसे १६६ शलाका पुरुष होते हैं। शलाका पुरुष सामान्य निर्देश ६३ शलाका पुरुष नाम निर्देश । १६९ शलाका पुरुष निर्देश। शलाका पुरुषोंकी आयु बन्ध योग्य परिणाम । -दे. आयु/३। कौन पुरुष मरकर कहाँ उत्पन्न हो और क्या गुण प्राप्त करे। -दे. जन्म/६॥ * जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy