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________________ ज्ञी = प्रश्न - विकलेन्द्रियोंमें मनका अभाव है यह किस प्रमाण से जाना जाता है। उत्तर-आगम प्रमाणसे जाना जाता है। और आगम प्रत्यक्ष की भाँति स्वभाव से प्रमाण है। पं.का./ता.वृ./१०/१८०/९६ योपशम विकल्परूपं हि मनो भव्यते तत्तेषामप्यस्तीति कथमसंज्ञिनः । परिहारमाह । यथा पिपीलिकाया गन्धविषये जातिस्वभावेनैवाहारादिसंज्ञारूप पटुत्वमस्ति न चान्यत्र कार्यकारणव्या शिज्ञानविषये अन्येषामप्यज्ञिनां तथैव। प्रश्नयो मन होता है। वह एकेन्द्रियादिके भी होता हैं, फिर से असंज्ञी कैसे हैं उसका परिहार करते हैं। जिस प्रकार चींटी आदि गन्धके विषय में जाति स्वभावसे ही आहारादि रूप संज्ञामें चतुर होती है, परन्तु अन्यत्र कारणकार्य व्याप्तिरूप ज्ञानके विषय मे चतुर नहीं होती, इसी प्रकार अन्य भी असंज्ञी जीवों के जानना । = ५. मनके अभाव में श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति कैसे ध. १ / १.१,३५ / २६१/१ अथ स्यादर्थालोकमनस्कारचक्षुभ्यः संप्रवर्तमानं ज्ञानं समनस्केषूपलभ्यते तस्य कथममनस्केष्वाविर्भाव इति नैष दोषः भिन्नजातिस्वात् प्रश्न-पदार्थ, प्रकाश, मन और अक्षु इनसे उत्पन्न होनेवाला रूप ज्ञान समनस्क जीवों में पाया जाता है, यह तो ठीक है, परन्तु अमनस्क जीवों में उस रूपज्ञानकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि समनस्क जीवों के रूप ज्ञानसे अमनस्क जीवोंका रूप ज्ञान भिन्न जातीय है । २.११.१.७३ / ३९४ / ९ मनसः कार्ययेन प्रतिपक्षविज्ञानेन सह सतन विज्ञानस्य ज्ञानस्वं प्रत्यविशेषान्मनो निमन्नमनुमीयतइति श भिन्नजातिस्तिविज्ञानेन सहाविशेषाः प्रश्न मनुष्यों मनके कार्यरूपसे स्वीकार किये गये विज्ञानके साथ विकलेन्द्रियों में होनेवाले विज्ञानकी ज्ञान सामान्यकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है. इसलिए यह अनुमान किया जाता है कि विकलेन्द्रियोंका विज्ञान भी मनसे उत्पन्न होता होगा उतर नहीं, क्योंकि भिन्न जाति में स्थित विज्ञानके साथ भिन्न जातिमें स्थित विज्ञानकी समानता नहीं बनती । 1 - • १/१.१.११६ / ३६१/- अमनसा तदपि कथमिति चेन्न मनोऽन्तरेण वनस्पतिषु हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्युपलम्भतोऽनेकान्ताय प्रश्नमन रहित जीवोंनें अंतज्ञान से सम्भव है। उत्तर- नहीं, क्योंकि, मनके बिना पतिकायिक जीवों के हित में प्रवृत्ति और अहित से निवृत्ति देखी जाती है, इसलिए मन सहित जीवोंके ही श्रुतज्ञान माननेमें उनसे अनेकान्त दोष आता है। (और भी दे. अगला शोर्ष ।) ६. श्रोत्रके अभाव में श्रुतज्ञान कैसे 5 - १/९.१.११६/३६९/६ कथमेकेन्द्रियाणां तहानमिति चन भवात श्रोत्राभावान्न शब्दागतिस्तदभावान दान इति नैष दोषः यतो नायमेकान्तोऽस्ति शब्दार्थावबोध एव श्रुतमिति । अपितु अशदरूपावपि ज्ञानमपि श्रुतमिति प्रश्नएकेन्द्रियोंके श्रुतज्ञान कैसे हो सकता है। उत्तर- कैसे नहीं हो सकता है। प्रश्न एकेन्द्रियोंके श्रोत्र इन्द्रियका अभाव होनेसे शब्द का ज्ञान नहीं हो सकता है, शान के अभाव में शब्द के विषयभूत अर्थका भी ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए उनके श्रुतज्ञान नहीं होता यह बात सिद्ध है। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह एकान्त नियम नहीं है कि शम्यके निमित्त होनेवाले पार्थ ज्ञानको ही घुल कहते है किन्तु शब्द से भिन्न रूपादिक लिंग भी जो लिगका ज्ञान होता है उसे भी महान कहते हैं। • १३/५,५,२१/२१०/६ एदित्सु सोद - णोई दियवज्जिसु कथं सुदणागुप्पती सरथ मन बिना जारिविसेसेण सिगिविसयाणापुष्पत्तीए विरोहाभावादी प्रश्न एकेन्द्रिय जीव श्रोत्र और । - - Jain Education International १२३ संघ मन्यसे रहित होते हैं. उनके सहानकी उत्पति कैसे हो सकती है। उत्तर- नहीं, क्योंकि वहाँ मनके बिना भी जातिविशेष के कारण लिंगी विषयक ज्ञानकी उत्पत्ति माननेमे कोई विरोध नहीं आता । ७. संज्ञीमें क्षयोपशम भाव कैसे है। ध. ७/२.१,८३/१११/१० णोइंदियावरणस्स सव्यघादिफद्दयाणं जादिवसेण अनंतगुणहाणीए हाइदूण देसघादित्तं पाविय उवसंताणमुदण सविसनादो नोद्रवरण कर्म सर्वघाती स्पर्धक के अपनी जाति विशेष के प्रभाव से अनन्तगुणी हानिरूप पासके द्वारा देशघातिको प्राप्त होकर उपशान्त हुए पुनः उन्होंके उदयसे संज्ञित्व उत्पन्न होता देखा जाता है । ८. अभ्य सम्बन्धित विषय १. संज्ञा व संज्ञीमें अन्तर । २. संधी जीप सम्मूर्च्छन भी होते हैं। ३. असंज्ञी जीवोंमें वचन प्रवृत्ति कैसे सम्भव है । ४. अशियों देवादि गतियोंका उदय व तासम्बन्धी शंका - दे० संज्ञा । - दे० सम् समाधान । - दे० उदय / ५ । ५. संशित्वमें कौन सा भाव है। -- दे० भाव / २ | ६. - दे० वह वह नाम । शीके गुणस्थान, जीवसमास, आदिके स्वामित्व संज्ञीके सम्बन्धी २० रूयणायें। ७. संधी सत्, संख्या, क्षेत्र आदि सम्बन्धी ८ प्ररूपणाऐं। - दे० वह वह नाम । ८. सभी मार्गणामें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम । - दे० मार्गणा । - -दे० योग/४ । संग्रह - म. पु. / १६/१७६ दशग्राम्यास्तु मध्ये यो महान् ग्रामः स संग्रहः । दश गाँवोंके बीच जो एक बड़ा भारी गाँव होता है, उसे संग्रह ( जहाँ हर वस्तुओंका संग्रह रखा जाता हो ) कहते हैं । संग्रह कृष्टिकृष् । संग्रह नय / IM संघ - १. संघका लक्षण स.सि./६/१३/३३९ / ९२ रोपे नवगणाः संघः । स.सि./१/२४/४४२/१ चातुर्वर्णश्रमणन संचारयुक्त श्रमणका समुदाय संध कहलाता है । ( रा. वा./६/१३/३/५२३) चार व श्रमणों समुदायको संघ कहते हैं। ( रा. वा./१/२४/४४२/१) चाहा./१५१/४) (म साता वृ./२४६/३४३/९०) २] आचार्य लेकर गंग पर्यन्त सर्व साधुओंकी व्याधि दूर "करना संघ वैश्य कहलाता है। * संघके भेद - दे. इतिहास / ५ । १. एक मुनिको असंध पना हो जायेगा मा. पा./टी./०८/२२३/१ ऋषिमुनियस्यमगारनिमहः संथ अथवा पाकाकानिमहः संघ ऋषि मुनि, यति और अनगार के समुदायका नाम संध है। अथमा ऋषि आर्थिक और भाषिका समुदायका नाम संप है ( और भी वे अगला शीर्षक) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only रा. बा./६/१३/४/२२४/१ स्वावेव सहयो गयो बृन्दमित्यनर्थान्तर तस्य कथमेकस्मिन् वृत्तिरिति । तन्नः किं कारण अनेक गुण www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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