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________________ संज्ञी १. संज्ञी - असंज्ञी सामान्यका लक्षण १. शिक्षा आदि घाटीके अर्थ पं. सं. / प्रा./१/१९७३ सिक्खाकिरिओवएसा आलावगाही मनोवल बेण । जो जोवो सो सण्णी तव्त्रिवरीओ असण्णी य । १७३। जो जीव मनके अवलम्बनसे शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलापको ग्रहण करता है उसे ही कहते हैं, जो इससे विपरीत है उसको असं बढ़ते हैं। ( . १४१.१०४/१०/१५२) (रा.सा./२/१२); (गो. जी./मू./ ६६१) (पं.सं./सं. १/३९६) । रा. वा./१/०/११/६०२/२७ शिक्षा काही संको, तद्विपरीतोऽसंज्ञो । जो जीब शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलापको ग्रहण करता है सो संज्ञी और उससे विपरीत असंज्ञी है । ( ध. १ / १.१.४/ १५२/४ ); (ध. ७/२,१,३ / ७ / ७); ( पं. का./ता. वृ./११७/१८०/१३ ) | २. मन सहित अर्थमें त. सू. / २ / २४ संज्ञिनः समनस्काः | २४| मनवाले जीवसंज्ञी होते हैं। ४. १/१.१.२५/२५६/६ १२२ पं. सं. / /१/१०४-१७६ मीमंस जो मचमिदर च । सिक्ख णामेणेदिय समणो अमणो य विवरीओ | १७४ | एवं कए मए पुण एवं होदित्ति कज्ज णिष्पत्ती। जो दु विचार जीवो सो सणि असणि इयरो य । १७५१ - जो जीव किसी कार्यको करने से पूर्व कर्तव्य और अकर्तव्यकी मीमांसा करे, तत्त्व और अतत्वका विचार करे, याग्यको सांधे और उसके नामको पुकारनेपर आवे सो समनस्क है उससे विपरीत अमनस्क है। ( गो. जी./मू / ६६२ ) जो जीव ऐसा विचार करता है कि मेरे इस प्रकार कार्यके करनेपर कार्यकी निष्पत्ति होगी, वह संज्ञी है और इससे विपरीत असज्ञी है । " रा. बा. २/६/२/१०/१३ हिताहितापरीक्षा प्रत्यसामध्ये अशिल| हिताहित परीक्षा के प्रति असामर्थ्य होना सो अहिल है। मनः सदस्यास्तीति १/११/१२/३ सम्यक् जानातीति संज्ञी | जो भली प्रकार जानता है उसको संज्ञ अर्थात् मन कहते हैं. वह मन जिसके पाया जाता है उसको संज्ञी कहते हैं । गो, जो./मू./६६० णोई दिय आवरणखओवसमं तज्जबोहणं सण्णा । सा जस्मा सो दुसरो कर्मके क्षयोपशमसे तज्जन्य ज्ञानको संज्ञा कहते हैं वह जिसको हो उसको संज्ञी कहते हैं और जिनके यह संज्ञा न हो किन्तु केवल यथासम्भव इन्द्रिय ज्ञान हो उसको असंही कहते हैं। पं. का./ता.वृ./११७/१००/१५ नोद्रियावरणस्यापि क्षयोपशमलाभात्यो भन्नोद्रियावरण कर्मके क्षयोपशम से जीव संक्षी होते हैं। पाटी इ. सं/टी./१२/२०११ समस्त शुभाशुभ नानाविकल्पजालरूपं मनो भण्यते, तेन सह ये वर्तन्ते ते समनस्काः सज्ञिनः तद्विपरीता अमनस्का असंज्ञिनः ज्ञातव्या । समस्त शुभाशुभ विकल्पोंसे रहित परमात्मरूप द्रव्य उससे विलक्षण अनेक तरह के विकल्पजाल रूप मन है, उस मनसे सहित जीवको संज्ञी कहते है। तथा मनसे शून्य अमनस्क अर्थात् असंज्ञी है । २. संज्ञी मार्गणाके भेद ९/९.१९०२/४०८ पानादेण अस्थि सग्गी असण्णी | १७२ ) [णेत्र सण्णि क्षेत्र असण्णणां वि अस्थिध / २ ] । -संज्ञी मार्गणा अनुवाद से संज्ञी और असंज्ञी जीव होते हैं । १७२ ॥ संज्ञी तथा असंज्ञी विकल्प रहित स्थान भी होता है। ( रा. वा./६/७/ १९/६०४/१८); ( ध. २ / ११ / ४१६ / ११ ); (द्र.सं./टी./१३/४०/३) । Jain Education International ३. संज्ञी मार्गणाका स्वामित्व २. गति आदिकी अपेक्षा दिया पेया पं.का./सू./१९९ मपरिणामविरहिया जीवा = मन परिणामसे रहित एकेन्द्रिय जीव जानने । रा.पा/२/११/२/१२/२० एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां पद्रियेषु केषश्चित मनोविषय विशेषव्यवहाराभावात अमनस्क एक, दो, सीम, चार और पाँच इन्द्रियों कोई जीव मनके विषयभूत विशेष व्यापार के अभाव से अमनस्क हैं। इ.टी./१२/२०१४. संपर्स पियास्तिर्यच एवं नारवमनुष्य देवाः पचेन्द्रिया एवं साहात परे सर्वे द्वित्रिपतुरिन्द्रियाः। बाहरसूक्ष्मा एकेन्द्रियास्तेऽपि अनि ए = पञ्चेन्द्रिय जीव संज्ञी तथा असंज्ञी दोनों होते हैं, ऐसे संज्ञी तथा असंही दोनों पचेन्द्रिय तिच ही होते हैं। नारकी मनुष्य और देव संज्ञी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। पंचेन्द्रिय से भिन्न अन्य सब इन्द्रिय, त्रीय और चतुरिन्द्रियजीव मन रहित असंही होते हैं। बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय हैं वे भी...असंज्ञी है । गो.ज./जी.प्र./६१०/११११/- जीवसमासौ संहिपर्याय | संज्ञी हो । तुन असंज्ञिणीनः स्थावरकायायसंपन्त मिध्यादृक्षिगुणस्थाने एव स्यान्नियमेन तत्र जीवसमासा द्वादशसंज्ञिनो द्वयाभावात् । -संज्ञीमार्गणामें पर्याप्त और अपने दो जीवसमास होते हैं असंही जी स्थायस्कायसे लेकर अज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त होते हैं। इनमें एक मिथ्यात्व गुणस्थान तथा जोवसमास संज्ञी सम्बन्धी पर्याप्त और इन दोको छोड़कर शेष बारह होते हैं । २. गुणस्थान व सम्यक्त्वकी अपेक्षा प. ९/११/१००/४०८ रुग्णी मिष्याट्ठि-पड जाय लोककसाय - वीयराय-छदुमत्था त्ति | १७३ - संज्ञी जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय, वीतराग, छद्मस्थ गुणस्थान तक हते हैं। टि. प./५/२६६ तेतीस संजूद सिरिजमाण सब्वकालम्मि । मिच्छत्तगुणद्वाणं वोच्छं सण्णीण तं मानं । २हासंज्ञी जीवोंको छोड़कर शेष तेतीस प्रकारके भेदोंसे युक्त तियंचोंके (दे. जीवसमास ) सर्व काल में एक मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है । गो.जी./मू./६६०सी वियहुदी लोग साओति होदिनियमेण । - ही जी सही मिध्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त होते हैं। दे. संज्ञी/३/१ में गो. जो. असंज्ञी जीवोंमें नियमसे एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। गो.क./जी. प्र./५५१/०५३/४ सासादनरुचौ... असं ज्ञिसंज्ञितिथंडमनुष्येषु सासादनसम्यक् संज्ञी असंज्ञी विच मनुष्यों ४. एकेन्द्रियादिकमै मनके अभाव संबंधी शंका समाधान रावा./२/१६/३०-३२/४०२/२६ यदि मनोऽन्तरे या बेदनागमो न स्पाय एकेन्द्रियविश्लेन्द्रियाणामस पिचेन्द्रियार्णा च वेदनातगमो न स्यात् । ३०/ पृथगुपकारानुपलम्भात् तदभाव इति चेत्; म गुणदोषविचारादि३१ स्वन्तःकरणं मनःयदि मनके बिना इन्द्रियोंमें स्वयं सुख-दुःखानुभव न हो तो एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और असंही पंचेद्रियजमोको दुःखका अनुभव नहीं होना चाहिए। प्रश्न - मनका ( इन्द्रियों से ) पृथक उपकारका अभाव होनेसे मनका भी अभाव है ? उत्तर- नहीं, गुण-दोष विचार आदि मनके स्वतन्त्र कार्य हैं इसलिए मनका स्वतन्त्र अस्तित्व है । ध. १/१.१७३ / ३१४/४ विकलेन्द्रियेषु मनसोऽभावः कुतोऽवसीयत इति चेदात कथमार्थस्य प्रामाण्यमिति चेत्स्वाभाव्याप्रयस्येव । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016011
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages551
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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