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________________ प्रकृति बंध तियोंका फल स्वरूप विपाक पुद्गल रूप शरीरमें होता है । ) २ आयु कर्मकी चारो प्रकृतियाँ भवविपाकी है ( क्योकि इनका विपाक नरकादि भवो होता है।) ३. चारों आनुपूर्वी प्रकृतियों क्षेत्रविपाकी है क्योंकि हम विपाक विग्रह गतिरूपमे होता है) ४ शेष ७८ प्रकृतियाँ जीवविपाकी जानना चाहिए, ( क्योकि उनका विपाक जीवमें होता है ।४६०-४६२| वेदनीयकी २ गोत्रकी २, पातिकको ४७ विहायोगति २ गति ४ जाति ५. नासोच्छ्वास १, तोर्थकर १, तथा त्रस, यश कोर्ति, बादर, पर्याप्त, सुस्वर, आदेय और सुभग, इन सात युगलोकी १४ प्रकृतियाँ इस प्रकार सर्व मिलाकर ७८ प्रकृतियाँ जीव विपाकी है ।४६३| (रा. वा. /- /२३/०/५/०२/२२), (घ. १४/गा, १-४/१३-१४) (गो. यू. ४०-५०/ ४०) (पं.स./स./४/३२६-३३३ ) । ३. परिणाम, मव व परभविक प्रत्ययको अपेक्षा * ल सा / जी / ३०६-३०० बोदय प्रकृतयस्तै जसकार्मणशरीरवर्णगन्धरसस्पर्श स्थिस्थिरशुभाशुभगुरुनिनामानो द्वादश भना देययशस्कीर्तय उच्चैर्गोत्रं पञ्चान्तररायप्रकृतय. केवलज्ञानावरणीय निद्रा प्रचलापेति पञ्चविंशतिप्रकृतय परिणामप्रत्यया २०६ माधिमनयज्ञानावरणचतुष्टयं चक्षुरचक्षुरधिदर्शनावरणत्रयं सातासात वेदनीयद्वयं मनुष्यायुर्मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजात्यौदारिशरीरतदोपाङ्गाय हमनत्रयषट्संस्थानोपधातपरातोवासविहायोगति प्रत्येक सादरपर्याप्स्वनामप्रकृतयश्चतुर्वि - शतिरिति चतुस्त्रिंशत्प्रकृतिभवप्रत्यया । ३०७। १. तेजस, कार्माण शरीर, वर्णादि ४, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु, निर्माण ये नामकर्मकी अबदी १२ प्रकृति र सुभग आधे यश कीर्ति, उच्चगोत्र, पाँच अन्तराय, केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण अर निद्रा, प्रचला ये पचीस प्रकृति परिणाम प्रत्यय है । ३०६ । २. अवशेष ज्ञानावरणको ४, दर्शनावरणकी ३, वेदनीयकी २, मनुष्यायु, मनुष्यगति पचेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, औदारिक अगोपाग, आदिके तोन संहनन, ६ संस्थान, उपघात, परघात, उच्छूबास, विहायोगति दो प्रत्येक त्रस बादर, पर्याप्त स्वरकी दो ऐसे ३४ प्रकृति भव प्रत्यय है । • " घ. ८/११-१२/२६३ / २६ पर विशेषार्थ-परभनिक नाम को प्रक्रतियाँ कमसे कम २७ और अधिक से अधिक ३० होती है । -१. देवगति, २ पचेन्द्रिय जाति, ३-६ औदारिक शरीरको छोड़कर चार शरीर, ७ समचतुरससरथान, वैक्रियिक और ६. आहारक अगोपांग १० देवयानुपूर्वी ११. वर्ग १२ ध १३. रस १४. स्पर्श. १५-१८ अगुरुलघु आदि चार, १६ प्रशस्त विहायोगति, २०-२३. सादि चार, २४, स्थिर, २५. शुभ, २६, सुभग, २७, सुस्वर, २. आय २६ निर्माण और ३० तीर्थंकर । इनमेसे आहारक शरीर, आहारक अगोपाग और तोथंकर, ये तीन प्रकृतियाँ जब नहीं तो राम शेष २७ ही बँधती है। ४. बन्ध व अबन्ध योग्य प्रकृतियोंकी अपेक्षा १. अन्य योग्य प्रकृतियों पं सं / प्रा . / २ / ५ पंच णव दोणि छब्बीसमयि चउरो कमेण सत्तट्ठी । दोणिय पंच व भगिया एवाओ घडीओ 18- ज्ञानावरणीयकी पाँच, दर्शनावरणीयकी नौ, वेदनीयकी दो, मोहनीयकी छब्बीस, आयुकर्मकी चार, नामकर्मकी सडसठ, गोत्रकर्म की दो और अन्तरायकर्म की पाँच, इस प्रकार १२० बँधने योग्य उत्तर प्रकृतियाँ कही गयी है ॥५॥ (गोक /मू./३५/४०) । गो. क /मू./१०/४९ भेवेदरे बंधे हति मीरा- भेद विवक्षा मित्र और सम्यमत्य प्रकृति बिना १४६ प्रकृतियाँ बन्ध योग्य है। अर अभेद विवक्षासे १२० प्रकृतियाँ बन्ध योग्य है । Po Jain Education International २. प्रकृतियोका विभाग निर्देश २. बन्ध अयोग्य प्रकृतियाँ पं. स. / प्रा / २ / ६ वण्ण-रस-गंध-फासा चउ च हगि सत्त सम्ममिच्छत्त । होति अबधा बधण पण पण सघाय सम्मत्तं |६| -चार वर्ण, चार रस, एक गन्ध, सात स्पर्श, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, पाँच बन्धन और पाँच सघाउ. ये अट्ठाईस (२८) प्रकृतियों बन्धके अयोग्य होती है ।। ५. सान्तर निरन्तर व उमय बन्धीको अपेक्षा पं. सं./३/७४-७७ तित्थयराहारदुअ चउ आउ धुवा य वेइ चउवण्णं । एयाणं सव्वाण पयडीण णिरतरो बधो |७४ | सठाण संघयणं अंतिमदस्यं च साइ उज्जोयं । इगिविगलिदिय थावर सढित्थी अरइ सोय असं च ॥७५॥ दुब्भग दुस्सरमसुभ सुहुम साहारणं अध्पया गिरयदुमणादेयं असायमधिर विहायमपत्य १७६॥ च तीसं पयडीणं बधो नियमेण संतरो भणिओ। बत्तीस सेसियाण बंधो समयम्मि उभओ वि ॥७७॥ घ. ८/३६/१०/२ तास नामपि सो कीरत जहा-सादा वेदणीयपुरिसवेद हस्रदितिरनगर-मगुस्सग - देवगड- चिदिय-जादि ओरालिय-वेउब्विय सरीर समचउरससंठाण - ओरालिय- वेडब्बिय सरीर अगोवंग- वज्जरिसह - वइरणारायणसरीरसंघडण - तिरिवखगड़मस्सगइ देवगड़पाओग्गाणुपुव्वि परधादुस्सास पसत्थ-विहा यगड तस बादर पज्जन्त- पत्ते यसरीर थिर-सुह-सुभग सुस्सर आदेज्ज-जसविधि-णीचागोदमिति खातर गिरतरंग बज्झमाणपयडीओ - १. तीर्थंकर आहारकडिक, चारो आयु और मवबन्धी तालीस प्रकृतियों, इन सब चौवन प्रकृतियोका निरन्तर बन्ध होता है 1७४ । २. अन्तिम पाँच संस्थान, अन्तिम पाँच सहनन, साता वेदनीय, उद्योग, एकेन्द्रिय जाति, तीन विकलेन्द्रिय जातियाँ, स्थावर, नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, अरति शोक, अयश कीर्ति, दुर्भग, दुःस्वर, अशुभ, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त नरकद्विक, अनादेय, असातावेदनीय, अस्थिर, और अप्रशस्त विहायोगति इन चौतीस प्रकृतियोका नियमसे सान्तर बन्ध कहा गया है " (ध. ८/३.६/९६/६ ) । ३ शेष बची बत्तीस प्रकृतियोका बन्ध परमागममें उभय रूप अर्थात् सान्तर और निरन्तर कहा गया है । ७७३ उनका नाम निर्देश किया जाता है। वह इस प्रकार है- सातावेदनीय, पुरुष वेद, हास्य, रति तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति बीदारिक शरीर वैक्रियिक शरीर, समचतुरखसंस्थान, औदारिक शरीरागोपाग, वैक्रिमिक शरीरागोपाग, वज्रभनाराषशरीर संहनन, तिर्यगुमनुष्य न देवगति पूर्वी परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीति, नीच गोत्र, उच्चगो मे सान्तर निरन्तर रूपसे वैधनेवाली है। (घ ८/३.६/गा, /१०-१२/१०). ( गो . / /४०४-४००१५६८६ सं./सं./३/१२-१०१) - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only - - - ६. सादि अनादि बन्धी प्रकृतियोंकी अपेक्षा २/२२२६ बनायो व बंधोदुम्म छकस्स । तइए साइयसेसा अणाइधुव सेसओ आऊ | २३५ उत्तरपयडीसु तहा ध्रुवियाणं बंध चउवियप्पो दु । सादिय अधुवियाओ सेसा परियन्तमाणीओ 1२३६ । १. मूल प्रकृतियोंकी अपेक्षा-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय, इन छह कर्मोंका सादि, अनादि, धव और अधु व चारों प्रकारका बन्ध होता है । वेदनीय कर्मका सादि बन्धको छोड़कर शेष तीन प्रकारका बन्ध होता है। आयुकर्मका अनादि और ध ुव बन्धके सिवाय शेष दो प्रकारका बन्ध होता है ।२३५ | २. उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा उत्तर प्रकृतियोंमें जो सेतालीस बनन्धो प्रकृतियाँ है. उनका चारो प्रकारका बन्ध होता है। तथा शेष बच्ची जो तेहत्तर प्रकृतियाँ है, उनका सादिमन्ध और अमव मन्ध होता है । २३६। ( गो . / . / १२४ / १२६) www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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