SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकृति बंध संक्लेश परिणाम हानि वृद्धि लिये जैसे पाइए तेसे हानि वृद्धि लिये इनका अनुभाग तहाँ उदय होइ । वर्तमान परिणामके अनुसार इनका अनुभाग उरकण अपकर्षण हो है ॥१०६॥ पीतीस प्रकृति भव प्रत्यय है। आमा परिणाम जेसे होई तिनको अपेक्षा रहित पर्याय होका आश्रय करि इनका अनुभाग विषै षट् स्थान रूप हानि वृद्धि पाइये है इनका अनुभागका उदय इहाँ । उपशान्तकषाय गुण स्थान मे ) तीन अवस्था लीऍ है। कदाचित् हानि रूप, कदाचित् वृद्धि रूप, कदाचित अपस्थित जसा का तैसा रहे है 12001 घ. ६/१.१-८/१४/२६३/२४ विशेषार्थ नामको जिन प्रकृतियोका परभव सम्बन्धी देवगतिके साथ बन्ध होता है उन्हे परभविक नामकर्म कहा है। भा० ३-१२ -- ७. बन्ध व सत्व प्रकृतियोंके लक्षण = घ. १२ / ४,२,१४,३८ / ४६५/११ जासि पयडीण ट्ठिदिसतादो उवरि कहि विकाले ट्ठिदिबधो संभवद ताओ बंधपयडोओ णाम । जासि पुण पडणं बधो चैव स्थि, बधे संते वि जासि पयडीणं टूठिदि संताद उवरि सम्यकात बंधी ण संभवदि, ताओ संतपपडीओ. संतपहाता व आहारदुग-विश्ययराण हटवितादो उर बधो अस्थि, सम्माभादी उम्ह सम्मामिच्छता व दाणि तिणि वि सतकम्माणि । - जिन प्रकृतियोका स्थिति सबसे अधिक किसी भी कालमे बन्ध सम्भव है, वे बन्ध प्रकृतियाँ कही जाती है। परन्तु जिन प्रकृतियोका बन्ध ही नहीं होता है और बन्धके होनेपर भी जिन प्रकृतियोका स्थिति सत्त्व से अधिक सदा काल बन्ध सम्भव नही है वे सत्य प्रकृतियों है, क्योकि सत्त्वकी प्रधानता है । आहारक द्विक और तीर्थकर प्रकृतिका स्थिति सत्त्वसे अधिक बन्ध सम्भव नहीं है, क्योकि वह सम्यग्दृष्टियोमे नही पाया जाता है। इस कारण सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व के समान तीनो ही सम प्रकृतियों है। णाम । .. • ८. भुजगार व अल्पतर वन्धादि प्रकृतियोंके लक्षण म. ४२७०/१४२/२ याओ एणि द्विदीओ मचदि वर्णतरादिसहासमये अप्पदरादो महूदर बंधदिति एसो भुजगारबंधो णाम यावी एणि टिवीओ बंधदि अतरउस्सकादिविदिक्कते समये बहुदरादो अप्पदरं बंधदित्ति ऐसो अप्परबंधो नाम या एण्णि रहिदीजो गंधदि असर ओसका विश्वस्सकादिविदि समत्तियाओ सियाओ दित्ति एसो अवटू ठिदिबधो णाम । अबंधदो बधदि त्ति एसो अवत्तब्बबधो वर्तमान समय में जिन स्थितियोको बाँधता है उन्हे अनन्तर अतिक्रान्त समयमे घटी हुई बाँधी गयी अल्पतर स्थितिसे तर गाँधता है यह भुजगारबन्ध है। वर्तमान समय में जिन स्थितियोंको बता है, उन्हें अनन्तर अतिक्रान्त समयमें बड़ी हुई बाँधी गयी बहुतर स्थितिसे अल्पतर बाँधता है यह अल्पतरबन्ध है । " वर्तमान समयमे जिन स्थितियोको बाँधता है, उन्हें अनन्तर अतिक्रान्त समय में घटी दुई वा बढी हुई बाँधी गयी स्थिति उतनी ही बाँधता है, यह अवस्थित बन्ध है । अर्थात - प्रथम समयमे अल्पका बध करके अनन्तर बहुतका बन्ध करना भुजगारबन्ध है । इसी प्रकार बहुतका बन्ध करके अल्पका बन्ध करना अल्पतरबन्ध है । पिछले समयमे जितना बन्ध किया है, अगले समयमें उतना ही बन्ध करना अवस्थितबन्ध है ( गो . / . / ४६६ / ६१५:५६३-६६४/७६४) (गो.क./जी. प्र. / ४५२/६०२/५) बंधका अभाव होनेके भार पुन ता है यह अव्यबन्ध है । गोक/जी/४००/६१८/१० सामान्येन कृ बन्ध । सामान्यपनेसे भय विवक्षाको किये बिना अवक्तव्यवन्ध है । २. प्रकृतियोंका विभाग निर्देश १. पुण्य पाप रूप प्रकृतियोंकी अपेक्षा रा.सू./८/२५-२६ शुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥ २३॥ अतोऽन्यत्पापम् । Jain Education International ८९ २. प्रकृतियोंका विभाग निर्देश ॥२६॥ सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये प्रकृतियाँ पुण्यरूप है | २५ | इनके सिवा शेष सब प्रकृतियाँ पाप रूप है । २६॥ (म./९६९ // २०) (गो जी/जी/६४२ १०६५/३ ) । ( पंस / प्रा / ४५३- ४५६ सायं तिण्णेवाऊग मणुयदुग देवदुव य जाणाहि । पंचसरीरं पचिदियं च संठाणमाईय । ४५३ | तिणि य अंगोवग सत्य विहायगइ आइसघयण । वण्णचउक्कं अगुरु य परघादुस्सास उज्जीवं 1४५४ | आदाव तसचउवकै थिर सुह सुभग च सुस्सर णिमिणं । आदेज्जं जसकित्ती तिथयर उच्च बादाल १४५५| जाणातरायदस्य दंसणणव मोहणीय छब्बीसं । णिरयगइ तिरियदोण्णि य तेसि तह आणुपुब्वीयं । ४५६ | संठाणं पंचैव य सघयण चैव होति पंचैव । वण्णचउक्कं अपसत्य विहायगई य उवधायं । ४५७| एईदियणिरयाऊ तिष्णि य वियलिदियं असायं च । अप्पजत्त थावर सुहुमं साहारणं णाम । ४५८ | दुब्भग दुम्सरमजस अणाइज्जं चेव अथिरमसुह च । णीचागोदं च तहा वासीदी अप्पसत्यं तु |४५६ | गो.क./४२,४४/४४-४५ सट्टी बादानमा ४२ मंद पडिमेवे अगदि सर्व दुधदुरसीदिदरे 1889 पुण्यप्रकृतियाँ साता वेदनीय, नरकामुके बिना सीन आयु. मनुष्य द्विक, देवद्विक, पाँच शरीर, पंचेन्द्रिय जाति, आदिका समचतुरस्त्र संस्थान, तीनों गोपान प्रदास्त विहायोगति, आदिव्य वचवृषभनाराच संहनन, प्रशस्तवर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, आतप, त्रस चतुष्क, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, निर्माण, आय यशस्कीर्ति तीर्थकर और उगो ये ग्यानीस प्रशस्त, शुभ या पुण्य प्रकृतियाँ है ।४५३-४५५१२ पाप प्रकृतियाँज्ञानावरणकी पाँच, अन्तरायको पाँच, दर्शनावरणकी नौ, मोहनीयकी अम्मीस, नरकगति नरकापूर्वी तिि पूर्वी आदिके बिना शेष पाँच संस्थान आदिके बिना शेष पाँचो सहनन, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, उपघात, एकेन्द्रिय जाति, नरकायु, तीन विकलेन्द्रिय जातियाँ, असाता वेदनीय, अपर्याप्त, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, दुर्भग, दुस्वर, अपकीर्ति, अनादेय, अस्थिर, अशुभ, और नीचो ये व्यासी (८) प्रशस्त अशुभ या पापप्रकृतियों है ।४३६-४६३०२, भेड़ अपेक्षासेम प्रकृति पुण्य रूप है और अमेद निरपच ५ संघात और १६ वर्णादिक घटाइये ४२ प्रकृति प्रशस्त है ॥४२॥ भेद विवक्षाकरि बन्ध रूप प्रकृतियाँ है, उदयरूप १०० प्रकृतियाँ है । अभेद विवक्षाकरि वर्णादि १६ घटाइ बन्धरूप ८२ प्रकृति है उदय रूप प्रकृति है ४४ (स.सि //२५-२६/४०४/३), (रा बा./ ८/२५-२६/०६/६.१२) (मो.क./ / ४१-२२/४४), (इ.सं./टी./ १८/१४०/९०) (सस/४/२७५-२०१४)। २. जीव, पुद्गल, क्षेत्र व भवविपाकीकी अपेक्षा प्रा.४६०४१३ पमरस छतिय छ पंच दोणि पंच यहमति अट ठेव सरीरादिय फाता न पडीओ आणुपुथ्वी ४१ अगुरुमलगुमधाया परघाया आदमुज्जोन विषयाम व पतेयविर- सुदरणामानि व चुंग्गल विभागा ४१० आऊणि भवनिवागी खेत्तविवागी उ आणुपुब्वी य अवसेसा पयडोओ जीवविवागी मुणेयव्वा । ४६२१ वेयणोय गोय घाई - णभगई जाइ आण नित्थयरं । तस-जस वायर- पुण्णा सुस्सर - आदेज्ज- सुभगजुयलाइ |४६३॥ -- १. शरीर नामकर्मसे आदि लेकर स्पर्श नामकर्मको प्रकृतियाँ आनुपूर्वीसे शरीर ५, बन्धन ५ और संघात ५, इस प्रकार १५० संस्थान ६, अंगोपांग ३, संहनन ६, वर्ण ५, गन्ध २, रस ५० और स्पर्श आठ, तथा अगुरुलघु, उपधात, परघात, आतप उद्योत निर्माण, प्रत्येक शरीर. साधारण वशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभ ये सर्व ६२ प्रकृतियाँ पुद्गल विपाकी है, (क्योंकि इन प्रकृ पीनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy