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________________ पुरुषपुर पुरुषार्थ पुरुषपुर-वर्तमान पेशावर नगर (म. पु/प्र.५०/५० पन्नालाल ) । पुरुषप्रभ-व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० व्यन्तर । पुरुषवाद-दे० अद्वैतवाद । पुरुष व्यभिचार-दे० नय/III/६/८ । पुरुष सिंह-म. प्र./६९/श्लोक पूर्वके दूसरे भवमे राजगृह नगरका । राजा सुमित्र था (५७)। फिर महेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ (६३-६५)। बहाँसे च्युत होकर वर्तमान भवमें वॉ नारायण हुआ (७१)। (विशेष दे० शलाकापुरुष ) । पुरुषाद्वैत-दे० अद्वैत। पुरुषार्थ-पुरुष पुरुषार्थ प्रधान है, इसलिए लौकिक व अलौकिक सभी क्षेत्रों में वह पुरुषार्थ से रिक्त नहीं हो सकता। इसीसे पुरुषार्थ चार प्रकारका है-धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। इनमे से अर्थ व काम पुरुषार्थका सभी जीव रुचि पूर्वक आश्रय लेते है और अकल्याणको प्राप्त होते है। परन्तु धर्म ब मोक्ष पुरुषार्थका आश्रय लेनेवाले जीव कल्याणको प्राप्त करते है। इनमेंसे भी धर्म पुरुषार्थ पुण्य रूप होनेसे मुख्यतः लौकिक कल्याणको देनेवाला है, और मोक्ष पुरुषार्थ साक्षात् कल्याणप्रद है। १. चतुःपुरुषार्थ निर्देश १. पुरुषार्थका लक्षण स म /१५/१६२/विवेलख्यातिश्च पुरुषार्थः। -( सारण्य मान्य ) पुरुष तथा प्रकृतिमें भेद होना ही पुरुषार्थ है। अष्टशती-पौरुष पुनरिह चेष्टितम् । = चेष्टा करना पुरुषार्थ है। २. पुरुषार्थके भेद ज्ञा /३/४ धर्मश्चार्थश्च कामश्च मोक्षश्चेति महर्षिभि.। पुरुषार्थोऽयमुद्दिष्टश्चतुर्भेद पुरातनै 181 -महर्षियोंने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह चार प्रकारका पुरुषार्थ कहा है।४। (प.वि./७/३५) । ५. मोक्ष पुरुषार्थ ही महान् व उपादेय है प.प्र./स./२/३ धम्म अत्थहँ कम्मह वि एयह सयल है मोक्खु । उत्तमु पभणहिं णाणि जिय अण्णे जेण ण सोक्खु ।३। - हे जीव । धर्म, अर्थ और काम इन सब पुरुषार्थों में से मोक्षको उत्तम ज्ञानी पुरुष कहते है, क्योंकि अन्य धर्म, अर्थ कामादि पुरुषार्थों में परमसुख नहीं है। ज्ञा./३/५ त्रिवर्ग तत्र सापायं जन्मजातङ्कदूषितम् । ज्ञात्वा तत्त्वविद. साक्षाद्यतन्ते मोक्षसाधने ।। चारों पुरुषार्थोंमें पहिले तीन पुरुषार्थ नाश सहित और ससारके रोगोंसे दूषित हैं, ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुष अन्तके परम अर्थात् मोक्षपुरुषार्थ के साधन करने में ही लगते है। क्योंकि वह अविनाशी है। प.वि./9/२५ पुंसोऽर्थेषु चतुषु निश्चलतरो मोक्षः परं सत्सुख । शेषास्तद्विपरीतधर्मकलिता हेया मुमुक्षोरत । ..॥२५॥ - चारो पुरुषार्थों में केवल मोक्ष पुरुषार्थ ही समीचीन सुरवसे युक्त होकर सदा स्थिर रहनेवाला है। शेष तीन इससे विपरीत स्वभाव वाले होनेसे छोडने योग्य है ।२४ ६. मोक्षमार्गका यथार्थ पुरुषार्थ क्या है प्र.सा./मू./१२६ कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्पत्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं । यदि श्रमण 'कर्ता, कर्म, करण और कर्म फल आत्मा है' ऐसा निश्चय वाला होता हुआ अन्यरूप परिणमित नहीं हो तो वह शुद्धात्माको उपलब्ध करता है।१२६। त. सु./१/१ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग 10 -सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षका मार्ग है। प्र. सा./त. प्र./. य एव...आरमान परं च...निश्चयत परिच्छिनत्ति, स एव सम्यगवाप्तस्वपरविवेक' सकल मोह क्षपयति । जो निश्चयसे . आत्माको और परको जानता है। वही (जीव), जिसने कि सम्यग्रूपसे स्व परके विवेकको प्राप्त किया है, सम्पूर्ण मोहका क्षय करता है। प्र.सा./त प्र./१२६ एवमस्य बन्धपद्धती मोक्षपद्धतौ चात्मानमेकमेव भाव यत. परमाणोरिवैकत्वभावनोन्मुखस्य परद्रव्यपरिणतिर्न जातु जायते। .. ततः परद्रव्यासंपृक्तत्वात्मविशुद्धो भवति । इस प्रकार (षट् कारकी रूपसे ) बन्धमार्ग तथा मोक्षमार्गमें आश्मा अकेला ही है, इस प्रकार भानेवाला यह पुरुष, परमाणुकी भाँति एकत्व भावनामें उन्मुख होनेसे, उसे परद्रव्यरूप परिणति किंचित् नहीं होती। इसलिए परद्रव्यके साथ असम्बद्धताके कारण सुविशुद्ध होता है। पु सि. उ./११,१५ सर्व विवत्तॊत्तीर्ण यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति। भवति तदा कृतकृत्य सम्यक्पुरुषार्थ सिद्धिमापन्न ॥११॥ विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वं । यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थ सिद्धयुपायोऽयं ॥१५॥ -जिस समय भले प्रकार पुरुषार्थ की सिद्धिको प्राप्त उपर्युक्त अशुद्ध आत्मा सम्पूर्ण विभावोके पारको प्राप्त करके अपने निष्कंप चैतन्यस्वरूपको प्राप्त होता है, तब यह आत्मा कृतकृत्य होता है ।११। विपरीत श्रद्धानको नष्ट कर निज स्वरूपको यथावद जानके जो अपने उस स्वरूपसे च्युत न होना वह ही पुरुषार्थसिद्धिका उपाय है ।१५॥ ७. मोक्षमें भी कथंचित् पुरुषार्थका सद्भाव स. म //08/२० प्रयत्नश्च क्रियाव्यापारगोचरो नास्त्येव, कृतकृत्यत्वात् । वीर्यान्तरायक्षयोत्पन्नतस्त्वस्येव प्रयत्न. दानादिलब्धिवत । --प्रश्न-मुक्त जीवके कोई प्रयत्न भी नहीं होता, क्योंकि मुक्त जीव कृतकृत्य है ? उत्तर-दानादि पाँच लब्धियोकी तरह वीर्यान्तरायकर्मके क्षयसे उत्पन्न वीर्य लब्धि रूप प्रयत्न मुक्त जीवके होता है। ३. अथ व काम पुरुषार्थ हेय हैं भ, आ./मू /१८१३-१८१६/१६२८ असहा अत्था कामा य...1१८१३॥ इहलोगियपरलोगियदोसे पुरिसस्स आवहइ णिच्च । अत्थो अणत्यमूलं महाभयं मुत्तिपडिपंथो ।१८१४। कुणिमकुडिभवा लहुगत्तकारया अप्पकालिया कामा। उवधो लोए दुक्खवहा य ण य होंति सुलहा (१८१५। -अर्थ पुरुषार्थ और काम पुरुषार्थ अशुभ है ।१८१३॥ इस लोकके दोष और परलोकके दोष अर्थ पुरुषार्थ से मनुष्यको भोगने पड़ते है। इसलिए अर्थ अनर्थका कारण है, मोक्ष प्राप्तिके लिए यह अर्गलाके समान है ।१८१४। यह काम पुरुषार्थ अपवित्र शरीरसे उत्पन्न होता है, इससे आत्मा हत्की होती है, इसकी सेवासे आमा दुर्गतिमें दुख पाती है। यह पुरुषार्थ अल्पकाल में ही उत्पन्न होकर नष्ट होता है और प्राप्त होनेमें कठिन है। १८१५।। * पुण्य होने के कारण निश्चयसे धर्म पुरुषार्थ हेय है -दे० धर्म/४/५॥ ४. धर्म पुरुषार्थ कथंचित् उपादेय है भ,आ./म./१८१३ एओ चेव सुभो णवरि सब्बसोक्वायरो धम्मो।- एक धर्म (पुरुषार्थ) ही पवित्र है और वही सर्वसौख्योका दाता है ।१८१३।। (प.वि./७/२५)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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