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________________ पारितापिकी क्रिया पार्श्वस्थ ४. ओदयिकादि भावों में भी कथंचित् पारिणामिक व जीवका स्वतत्त्वपन। -दे० भाव/२॥ ५ सासादन, भव्यत्व, अभव्यत्व, व जीवत्वमें कचित् पारिणामिक व औदायकपना। -दे वह वह नाम। ६ सिद्धों में कुछ पारिणामिक भावोंका अभाव -दे० मोक्ष/३। ७. मोक्षमार्ग में पारिणामिक भावकी प्रधानता। -दे. मोक्षमार्ग।। ८. ध्यानमें पारिणामिक भावकी प्रधानता। -दे० ध्येय। बाह्य पारिषद देधियॉ क्रमसे ७००,६००,५००, ४००, ३००, २०० और १०० है ।३२७ पाथिवी धारण-दे० पृथिवी। पाश्व-नेमिनाथ भगवान का शामक यक्ष-दे० तीर्थ कर/५/३ । पावकृष्टि-दे० कृष्टि । पाश्वनाथ-म. पु/७३/श्लोक पूर्वके नवमें भवमें विश्वभूति ब्राह्मण के घरमें मरुभूति नामक पुत्र थे (७-६) । फिर वज्रघोष नामक हाथी हुए (११-१२)। वहाँसे सहस्रार स्वर्ग में देव हुए (१६-२४)। फिर पूर्व के छठे भवमे रश्मिवेग विद्याधर हुए ( २५-२६)। तत्पश्चात् अच्युत स्वर्ग मे देव हुए (२६-३१)। बहाँसे च्युत हो वज्रनाभि नामके चक्रवर्ती हुए (३२)। फिर पूर्व के तीसरे भवमें मध्यम प्रैवेयकमें अहमिन्द्र हुए (४०) फिर आनन्द नामक राजा हुए (४१४२) । वहाँसे प्राणत स्वर्ग में इन्द्र हुए (६७-६८ )। तत्पश्चात वहाँसे च्युत होकर वर्तमान भव में २३ वे तीर्थकर हुए। अपरनाम 'सुभौम' था।१०। (और भी दे म. पु/७३/१६६) विशेष परिचय-दे० तीर्थंकर/५॥ पाश्वनाथ काव्य पंजिका-आचार्य शुभचन्द्र (ई० १५१६ १५५६) द्वारा रचित संस्कृत काव्य ग्रन्थ । पाश्वं पंडित-पार्श्वनाथ पुराण के रचयिता एक कन्नड़ कवि। समय- ई १२०५ । (ती./४/३११) । पारितापिकी क्रिया--दे० क्रिया/३/२ । पारियात्र-विन्ध्य देशका उत्तरीय भाग (ज प/प्र/१४ A. N. Up. होरालाल)। पारिषद-१ पारिषद देवोंका लक्षण स सि./४/४/२३६/४ वयस्यपीठमर्द सदृशा परिषदि भवा' पारिषदाः। - जो सभामे मित्र और प्रेमी जनोके समान होते है वे पारिषद कहलाते है। (रा. वा./४/४/४/२१२/२६), (म.पु/२२/२६) । ति प/३/६७ बाहिरमझम्भतरत डयसरिसा हवं ति तिप्परिसा ।६७। -राजाकी बाह्य, मध्य और अभ्यन्तर समितिके समान देवोमे भी तीन प्रकारकी परिषद्ध होती है। इन परिषदो में बैठने योग्य देव कमश बाह्य पारिषद, मध्यम पारिषद और अभ्यन्तर पारिषद कहलाते है । (त्रि सा./२२४), (ज प./११/२७०)। ज प /११/२७१-३८२ सविदा चंदा य जदू' परिसाणं तिणि होति णामाणि । अब्भतरमझिमबाहिरा य कमसो मुणेयव्वा।२७१। बाहिरपरिसा णेया अइरु'दा पिट्ठुरा पयंडा या बठा उज्जुदसत्था अवसारं तत्थ घोसति ।२८०। वेत्तलदागहियकरा मज्झिम आरूढवेसधारी य। कंचुइकद अतेउरमहदरा बहुधा ।२८। वव्वरिचिलादिखुज्जाकम्मतियदासिचे डिवग्गो य। अतेउराभिओगा कर ति णाणाविधे धेमे ।२८२१ = अभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य, इन तीन परिषदोके, क्रमश समिता, चन्दा व जतु ये तीन नाम जानना चाहिए ।२७१। (ति सा/२२६) बाह्य पारिषद देव अत्यन्त स्थूल, निष्ठुर, क्रोधी, अविवाहित और शस्त्रोसे उद्यक्त जानना चाहिए। वे वहाँ 'अपसर' (दूर हटो) की घोपणा करते है ।२८०। वेत रूपी लताको हाथ में ग्रहण करनेवाले, आरूढ वेषके धारक तथा कंचुकीकी पोषाक पहने हुए मध्यम ( पारिषद ) बहुधा अन्त पुरके महत्तर होते है ।२८१। वर्वरो, किराती, कुब्जा, कर्मान्तिका, दासी और चेटो इनका समुदाय ( अभ्यन्तर पारिषद ) नाना प्रकारके वेषमे अन्त पुरके अभियोगको करता है ।२८। * भवनवासी आदिइन्द्रोंके परिवारमें पारिषदोका प्रमाण -दे० भवनवासी आदि भेद । ण-पार्श्व पुराण नामके कई ग्रन्थ लिखे गये है। १. पद्म कीर्ति ( ६४२) कृत संस्कृत काव्य जिसमें अधिकार है। यह १६०० श्लोक प्रमाण है । कविवर भूधरदास जी (वि १७८६) ने इसका भाषानुवाद किया है । २ वादि राज (ई १०२५) कृत 'पार्श्वनाथ चरित्र' नामक सस्कृत काव्य । (ती/३/१२)। ३, पद्मकीर्ति (ई.१०७७) कृत अपभ्रश कान्छ। (तो /३/२०५) । ४. सकल कीर्ति (ई १४०६. १४४२) कृत सस्कृत रचना । (ती/३/३३४)| कवि रइधु (ई१४३६) कृत अपभ्रश काव्य (ती/४/१६८)। ६. वादि चन्द्र (वि. १६३७. १६६४) कृत १५८० छन्द प्रमाण । (ती/४/७२) । २. कल्पवासी इन्द्रोके पारिषदोंकी देवियोंका प्रमाण ति, प/८/१२४-३२७ आदिमदो जुगलेसु बम्हादिमु चउसु आणद च उक्के । पुह पुह सचिदाण अभतरपरिसदेवीओ।३२४। पचसयचउसयाणि तिसया दोसयाणि एक्कसयं । पण्णासं पुवो दिदठाणेसं मज्झिमपरिसाए देवीओ।३२६। सत्तच्छपंचचउतियदुगएक्कसयाणि पुवठाणेसु । सविदाणं होति हु बाहिरपरिसाए देवीओ।३२७) -आदिके दो युगल, ब्रह्मादिक चार युगल और आनतादिक चारमें सब इन्द्रो की अभ्यन्तर पारिषद देवियों क्रमश' पृथक्-पृथक् ५००, ४००, ३००, २००, १००,५० और पच्चीस जाननी चाहिए ।३२४-३२॥ पूर्वोक्त स्थानोमें मध्यम पारिषद देवियाँ क्रमसे ६००, ५००, ४००, ३००, २००, १००, और ५० है ।३२६। पूर्वोक्त स्थानोंमें सब इन्द्रोके पाश्वस्थभ, आ./मू./१२६६,१२६६ केई गहिदा इंदियचोरेहि कसायसावदेहि वा। पथ छडिय णिज्जति साधुसत्थस्स पासम्मि ।१२६६। इंदिय कसाय गुरूपसणेण चरण तणं व पस्सतो। णिद्धम्मोहू सबित्ता सेवदि पासस्थ सेवायो। १३००। कितनेक मुनि इन्द्रिय रूपी चोर और कषायरूप हिस्र प्राणियोसे जब पकड़े जाते हैं तब साधुरूप व्यापारियोका त्याग कर पार्श्वस्थ मुनिके पास जाते है। १२६६। पार्श्वस्थ मुनि इन्द्रिम कषाय और विषयों से पराजित होकर चारित्र को तृण के समान समझता है । उसकी सेवा करने वाला भी पार्श्वस्थ तुल्य हो जाता है । १६०० । मू आ /५६४ दसणणाणचारित्तेतविणए णिच्चकाल पासत्था। एदे अवंदणिज्जा छिहप्पेही गुणधराणाम् ।५६४। -दर्शन, ज्ञान, चारित्र, और तप विनयसे सदा काल दूर रहनेवाले और गुणी संयमियोके सदा दोषों को देखनेवाले पावस्थादि हैं। इसलिए नमस्कार करने योग्य नहीं है ।।६।। भ, आ./वि /१६५०/१७२२/३ निरतिचारसयममार्ग जानन्नपि न तत्र वर्तते, किंतु सयममार्गपार्श्वे तिष्ठति नै कान्तेनासंयत., न च निरतिचारसयमः सोऽभिधीयते पार्श्वस्थ इति ।.... उत्पादन षणादोषदृष्ट वा भुक्ते, नित्यमेकस्यां वसतौ वसति, एकस्मिन्नेव संस्तरे शेते, एकस्मिन्नेव क्षेत्रे वसति। गृहिणा गृहाभ्यन्तरे निषधां करोति,... जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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