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________________ पाप पारिणामिक निर्दयपना मिथ्याज्ञानदर्शनरूप उपयोग पापकर्मके आस्रवके कारण है ।२३५॥ रा. वा /६/२२/४/५२८/१८ चशब्द' क्रियते अनुक्तस्यास्रवस्य समुच्चयार्थ । क. पुनरसौ। मिथ्यादर्शन-पिशुनताऽस्थिरचित्तस्वभावताकूटमानतुलाकरण - सुवर्ण मणिरत्नाद्यकृति - कुटिलसाक्षित्वाङ्गोपाङ्गच्यावनवर्ण गन्धरसस्पर्शान्यथाभावन-यन्त्रपचरक्रियाद्रव्यान्तरविषय - सबन्धनिकृतिभूयिष्ठता- परनिन्दात्मप्रशसा-नृतवचन परद्रव्यादानमहारम्भपरिग्रह- उज्ज्वलवेषरूपमद - परुषासभ्यप्रलाप-आक्रोशमौवर्य-सौभाग्योपयोगय शीकरण प्रयोगपरकुतूहलोत्पादनालकारा - दर - चैत्यप्रदेशगन्धमाल्यधुपादिमोषण-विलम्बनोपहास-इष्टिकापाक - दवाग्निप्रयोग-प्रतिमायतनप्रतिश्रयारामोद्यानविनाशनतीवक्रोधमान - मायालोभ-पापकर्मोपजीवनादिलक्षण । स एष सर्वोऽशुभस्य नाम्न आस्रव । -च शब्द अनृक्तके समुच्चयार्थ है। मिथ्यादर्शन, पिशुनता, अस्थिरचित्तस्वभावता, भूठे बाट तराजू आदि रखना, कृत्रिम सुवर्ण मणि रत्न आदि बनाना, झूठी गवाही, अग उपागोका छेदन, वर्ण गन्ध रस और स्पर्शका विपरीतपना, यन्त्र पिजरा आदि बनाना, माया बाहूल्य, परनिन्दा, आत्म प्रशसा, मिथ्या भाषग, पर द्रव्यहरण, महार भ, महा परिग्रह; शौकीन वेष, रूपका घमण्ड, कठोर असभ्य भाषण, गानो बकना, व्यर्थ बक्वास करना, वशीकरण प्रयोग, सौभाग्योपयोग, दूसरेमे कौतूहल उत्पन्न करना, भूषणोमें रुचि, मंदिरके गन्धमाल्य या धूपादिका चुराना, लम्बी हसी, ईटोका भट्टा लगाना, वनमे दावाग्नि जलबाना, प्रतिमायतन बिनाश, बाश्रय-विनाश, आराम-उद्यान विनाश, तीच काध, मान, माया व लभ और पापकर्म जीविका आदि भी अशुभ नामके आस्रवके कारण है। (स. सि./६/२२/३३७/१२); ( ज्ञा /3/8-७)। ६ अन्य सम्बन्धित विषय १ व्यवहार धर्म परमार्थतः पाप है। -दे० धर्म/४ २ पापानुबन्धी पुण्य । -दे० मिथ्यादृष्टि/४। ३ पुण्य व पापमें कथंचित् भेद व अभेद। -दे० पुण्य/२,४ । ४. पापकी कथचित इष्टता । -दे० पुण्य/३॥ ५ पाप प्रकृतियोंके भेद । -दे० प्रकृतिबन्ध/२। ६. पापका आस्रव व बन्ध तत्वमें अन्तर्भाव । -दे० पुण्य/२/४ । ७. पूजादिमे कथंचित् सावध हे फिर भी वे उपादेय है। -दे० धर्म/५/१॥ ८. मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है। -दे० मिथ्यादर्शन । ९ मोह राग द्वेषमे पुण्य-पापका विभाग । -दे० राग/२। ४. पापका फल दु.ख व कुगतियों की प्राप्ति त. सू.19/8-१० हिसादिष्विहामुत्रापायवादर्शनम् ।। दुरखमेव वा ।१०। हिसादिक पाँच दोषो मे ऐहिक और पारलौकिक उपाय और अवद्यका दर्शन भारने योग्य है ।। अथवा हिसादिक दुख ही है ऐसी भावना करनी चाहिए ।१०। प्र, सा./म./१२ असहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरड्यो। दुक्खसहस्से हि सदा अभिंधुदो भमदि अच्चता ।१२। -अशुभ उदयसे कुमानुष, तिच, और नारकी होकर हजारो दुखोसे सदा पीडित होता हुआ (संसारमे) अत्यन्त भ्रमण करता है ।१२। ध, १/१,१,२/१०५/५ काणि पावफलाणि। णिरय - तिरियकुमाणुसजोणीसु जाइ-जरा-मरण-बाहि-बेयणा-दालिदादीणि | - प्रश्न-पापके फल कौनसे है। उत्तर-नरक, तिर्यच और कुमानुषकी योनियोमें जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र आदिकी प्राप्ति पापके फल है। पापोपदेश-दे० अनर्थदण्ड । पामिच्छ-वसतिकाका एक दोष । -दे० बसतिका। पामीर -ज.प // /A.N.Up.H L Jain "पामौरका पूर्व प्रदेश चीनी तुर्किस्तान है । (१४०) । हिन्दुकुशपर्वतका विस्तार वर्तमान भूगोलके अनुसार पामीर प्रदेश और काबुल के पश्चिम कोहे बाबा तक माना जाता है । (४१)। वर्तमान भूगोलके अनुसार पामीरका मान १५०x१५० मील है। वह चारो ओर हिन्दुकुश, काराकोरम, काशार, कर्तार पहाडोसे घिरा हुआ है। -पौराणिक कालमे इसका नाम मेरुमण्डल या काबीज था। पारंचिक परिहार प्रायश्चित्त-दे० परिहार-प्रायश्चित्त । पारपरिमित---Transfinite Cardinals या finite Card:___nals -(ध.५/प्र /२८)। पारमार्थिक प्रत्यक्ष-दे० प्रत्यक्ष । पारा -भरत आर्य खण्डको एक नदी --दे० मनुष्य/४ । पारामृष्य-आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४| पाराशर-एक विनयवादी-दे० वैनयिक । पारिणामिक-प्रत्येक पदार्थ के निरुपाधिक तथा त्रिकाली स्वभावको उसका पारिणामिक भाव कहा जाता है। भले ही अन्य पदार्थोंके सयोगकी उपाधिवश द्रव्य अशुद्ध प्रतिभासित होता हो, पर इस अचलित स्वभावसे वह कभी च्युत नहीं होता, अन्यथा जीव घट बन जाये और घट जीव। ५. पाप अत्यन्त हेय है स. सा./आ/३०६ यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादि. स शुद्वात्मसिद्धयाभावस्वभावत्वेन स्वयमेवापराधस्वाद्विषकुम्भ एव । - प्रथम तो जो अज्ञानजनसाधारण (अज्ञानी लोगोको साधारण ऐसे) अप्रतिक्रमणादि है वे तो शुद्ध आत्माकी सिद्धिके अभाव रूप स्वभाववाले है इसलिए स्वयमेव अपराध स्वरूप होनेसे विषकुम्भ ही है। (क्योकि वे तो प्रथम ही त्यागने योग्य है।) प्र.सा./त. प्र./१२ ततश्चारित्रलवस्याप्यभावादत्यन्तहेय एवायमशुभोप. योग इति । = चारित्रके लेशमात्रका भी अभाव होनेसे यह अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है। १. पारिणामिक सामान्यका लक्षण स. सि /२१/१४६/ द्रव्यात्मलाभमानहेतुक परिणाम.। [स.सि./२/७/ १६१/२]" पारिणामिकत्वम् कर्मोदयोपशमक्षयक्षयोपशमानपेक्षिरवात / - १. जिसके होने में द्रव्यका स्वरूप लाभ मात्र कारण है वह परिणाम है। (पं का./त प्र/५६) । २, कर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके बिना होनेसे पारिणामिक है। (रा.वा./२/१/५/१००/२१)। रा, बा /२/७/२/११०/२२ तद्भाबादनादिद्रव्यभवनसंबन्धपरिणामनिमित्तवात पारिणामिका इति । रा.वा /२/9/१६/११६/१७ परिणाम स्वभाव. प्रयोजनमस्येति पारिणामिक' इत्यन्वर्थसंज्ञा। -कर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमकी अपेक्षा न रखनेवाले द्रव्यको स्वभावभूत अनादि पारिणामिक शक्तिसे ही आविर्भूत ये भाव परिणामिक है। (ध, १/१,१,८/१६१/३); जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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