SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 585
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वृक्ष ५७८ १. कल्पवृक्ष निर्देश बरवीणापटुपटहमुइंगझलरीसंखा । दंदुभिभभाभेरीकाहलपहूदाइ देति तूरग्गा |३४४। तरओ वि भूसण गा ककणकडिसुत्तहारकेयूरा। मंजीरकडयकुंडलतिरीडमउडादिय देति ।३४॥ वत्थंगा णित्त पड़चीणसुवरखउमपहुदिवस्थाणि । मणणयणाण दर णाणावस्थादि ते देंति १३४६। सोलसविहमाहार सोलसमेयाणि वेंजणाणि पि। चोदसबिहसोबाई' रवज्जाणि विगुणच उवण ३४७१ सायाणं च पयारे तेसट्ठीसंजुदाणि तिसयाणि रसभेदा । तेसट्ठी देति फुडं भोयण गदुमा ।३१८। सथिअणदावत्तप्यमुहा जे के वि दिब्वपासादा। सोलसभेदा रम्मा देति हुते आलमगदुमा ।३४६) दीवदुमा साहापबालफलकुसुमम कुरादीहिं । दोवा इव पज्ज लिदा पासादे देति उज्जोब ।३५० भायणअगा कचणबहरयणविणिम्मियाइ धवलाइ । भिंगारकलसगग्गरिचामरपीढादिय देति ॥३५१६ वल्लीतरुगुच्छलदुम्भवाण सोलससहस्सभेदाण । मालागदुमा देति हु कुसुमाण विविहमालाओ ।३५२॥ तेजगा मज्झदिण दिणयरको डीणकिरणसंकासा । णवत्तच दसरप्पहुदोणं कतिसहरणा (२५३॥ म. पृ/३/३७-३६ मद्याडा मधुमैरेयसीध्वरिष्टासवादिकान् । रसभेदास्ततामोदान वितरन्त्यमृतोपमान ।३७१ कामोद्दीपनसाधात मद्यमित्युपचर्यते। तारको रसभेदोऽय य सेव्यो भोगभूमिजै ।३८मदस्य करण मद्य पान शौण्डै र्यदारतम् । तद्वर्जनीयमाणाम् अन्त करणमोहदम् ३६ - इनमें से पानांग जातिके कल्पवृक्ष भोगभूमिजोको मधुर, सुस्वादु, छह रसोसे युक्त, प्रशस्त. अतिशीत और तुष्टि एव पुष्टिको करनेवाले, ऐसे बत्तीस प्रकारके पे द्रव्य दिया करते हैं। (इसीका अपर नाम मद्याग भी है, जिसका लक्षण अतमे क्यिा है ) ३४३। तूर्याग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम बीणा, पटु, पटह, मृदंग, झालर, शरख, दुदुभि, भंभा, भेरी और काहल इत्यादि भिन्न-भिन्न प्रकारके वादित्रोंको देते है।३१४। भुषणाग जातिके कल्पवृक्ष ककण, कटिसूत्र, हार, केयूर, म जोर, कटक, कुण्डल, किरीट और मुकुट इत्यादि आभूषणोको प्रदान करते है।३१। वे वस्त्राग जातिके कल्पवृक्ष नित्य चीनपट एव उत्तम क्षौमादि वस्त्र तथा अन्य मन और नयनोको आनन्दित करनेवाले नाना प्रकारके वस्त्रादि देते है।३४६। भोजाग जातिके कल्पवृक्ष सोलह प्रकारका आहार व सोलह प्रकारके व्य जन, चौदह प्रकारके सूप (दाल आदि ), एक सौ आठ प्रकारके खाद्य पदार्थ, स्वाद्य पदार्थोके तीन सौ तिरेसठ प्रकार, और तिरेसठ प्रकारके रसभेदोको पृथक्-पृथक् दिया करते है। ३४७ ३४८ । आलयांग जातिके सपवृक्ष, स्वस्तिक और नन्द्यावत इत्यादिक जो सोलह प्रकार के रमणीय दिव्य भवन होते है उनको दिया करते है। 1३४६। दीपांग जातिके कल्पवृक्ष प्रासादोमे शाखा, प्रवाल (नवजात पत्र), फल फूल और अकुरादिके द्वारा जलते हुए दीपकोके समान प्रकाश देते है ।३५० भाजनांग जातिके कल्पवृक्ष सुवर्ण एव बहुतसे रत्नोंसे निर्मित धवल झारी, कलश, गागर, चामर, और आसनादिक प्रदान करते है ।३.१। मालाग जातिके कल्पवृक्ष वल्ली. तरु, गुच्छ, और लताओसे उत्पन्न हुए सोलह हजार भेदरूप पुष्पोकी विविध मालाओको देते है ।३४२॥ जाग जातिके क्रुपवृक्ष मध्य दिनके करोडो सुर्योंकी किरणों के समान होते हुए नक्षत्र, चन्द्र, और सूर्यादिक्की कान्तिका सहरण करते हे। ३५३। (म पु/8/३६-४८) (पानांग जाति के कल्पवृक्षको मद्याग भी कहते है) इनमे मद्याग जाति के वृक्ष फैलती हुई मुगन्धीसे युक्त तथा अमृत के समान मीठे मधु-मैरेय, सीधु, अरिए और आसव आदि अनेक प्रकारके रस देते है ।३७। कामोद्दीपनकी समानता होने से शीघ्र ही इन मधु आदिको उपचारसे म्द्य कहते है। बास्तवमे ये वृक्षोके एक प्रकार के रस है जिन्हे भोगभूमि में उत्पन्न होनेवाले आर्य पुरुष सेवन करते है ।३८। मद्यपायी लोग जिस मद्यका पान करते है. वह नशा करने वाला है और अन्त करणको म'हित करने वाला है, इसलिए आर्य पुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है ।। * वृक्षों व कमलों आदिका अवस्थान, विस्तार व चित्र -दे० लोक। 1. कोकमें वर्णित सब वृक्ष व कमल आदि पृथिवी कायिक होते हैं ति प/४/गाथा नं, गंगाणईण मज्झे उभास दि एउ मणिमओ कूडो । ।२०५। वियलियकमलायारो रम्मो देरुलियणालसत्तो । २०६ चामीयरकेसरेहि संजुत्तो ।२०७। ते सव्वे कप्पदुमा ण बणप्फदी णो वेतरा सव्वे । णवरि पुढविसरूवा पुण्णफल देति जीवाणं ।३५४॥ सहिदो वियसिअकुसुमेहि सुहस चयरयणरचि देहि ।१६५६। दहमज्झे अरविंदयगाल बादालकोसमुव्विद्ध । इगिकोस बाहवलं तस्स मुणालं ति रजदमयं ।१६६७ कदो यरिट्ठरयण णालो वेरुलियरयण णिम्मविदो। तस्सुवरि दरवियसियपउम चउकोसमुव्यिद्ध १६६८ सोहेदि तस्स खंधो फुर तवरक्रिणपुस्सरागमओ ।२१५३। साहासु पत्ताणि मरगयवेरुलियणीलईदाणि। विविहाइ कक्केयणचामीयरबिन्दुममयाणि (२१५७ सम्म लितरुणो अकुर कुसुमफलाणि विचित्तरयगाणि । पणपवण्णसोहिदाणि णिरुवमरूवाणि रेति ।२१५८। सामलिरुक्खसरिच्छ ज बुरुक्खाण बण्णण सयलं ।२१६६। ति प/८/४०५ सयलिदम दिराणं पुरदो णग्गोहपायवा होति। एक्केक्क पुढमिमया पुचोदिद जबुदुमस रिसा ।४०५। -१ गगा नदी के बीच में एक मणिमय कूट प्रकाशमान है ।२०। यह मणिमय कूट विकसित कमल के आकार, रमणीय और बैडूर्यमणि मालमे संयुक्त है ।२०६॥ यह सुवर्ण मय परागसे संयुक्त है ।२०७४ (ति. ५/४/३५३-३५६) । २ ये सब कल्पवृक्ष न तो वनस्पति ही है और न कोई व्यन्तर देव है, किन्तु विशेषता यह है कि ये सब पृथिवीरूप होते हुए जीवोंको उनके पुण्य कर्मका फल देते है ।३५४। (म पु/8/४६), (अन ध । १/३८/५८ पर उद्धृत। ३. पद्म द्रह शुभ स चय युक्त रत्नोसे रचे गये विकसित फूलों से सहित है १६५६। तालाबके मध्य में व्यालीस कोस ऊँचा और एक कोस मोटा कमलका नाल है। इसका मृणाल रजतमय और तीन कोस बाल्य से युक्त है । १६६७ । उस कमलका कन्द अरिष्ट रत्नमय और नाल बैडूर्य मणिसे निर्मित है। इसके ऊपर चार कोस ऊँचा विकसित पद्म है ।१६६८। ( सो कमल पृथिवी साररूप है बनस्पति रूप नाही है-(त्रि, सा/भाषाकार) (त्रि. सा./ ५६६)। ४ उस शाल्मली वृक्षका प्रकाशमान और उत्तम किरणोसे सयुक्त पुरख राजमय स्कन्ध शोभायमान है। २१५५ । उसकी शाखाओंमें मरकत, वैडूर्य. इन्द्रनील, कर्केतन, सुवर्ण और मुंगेसे निर्मित विविध प्रकारके पत्ते है ।२१५७। शाल्मली वृक्षक विचित्र रत्नस्वरूप और पाँच वर्णोसे शोभित अनुपम रूपवाले अंकुर, फूल एव फल शोभायमान है ।२१५८। जम्बूवृक्षोंका सम्पूर्ण वर्णन शाल्मली वृक्षोके ही समान है ।२१६६।। ५ समस्त इन्द्र मन्दिरोके आगे न्यग्रोध वृक्ष होते है। इनमे एक एक वृक्ष पृथिबीस्वरूप और पूर्वोक्त जम्बूवृक्ष के सदृश है । (८/१०४)। स, सि //सूत्र/पृष्ट/पक्ति उत्तरकुरूणा मध्ये जम्बूवृक्षोऽनादिनिधन' पृथिवीपरिणामोऽकृत्रिम सपरिवार । (६/२१२/६) जम्बूद्वीपे यत्र जम्बूवृक्ष स्थित , तत्र धातकीखण्डे धातकीबृक्ष सपरिवार.। (३३/ २२७/६ ) । यत्र जम्बृवृक्षस्तत्र पुष्कर सपरिवारम् । (३४/२२८/४)। - उत्तरकुरुमें अनादि निघन, पृथिवी से बना हुआ, अकृत्रिम और परिवार वृक्षोसे युक्त जम्बुवृक्ष है। जम्बूद्वीपमे जहाँ जम्बूवृक्ष स्थित है, धातकी खण्ड द्वीपमे परिवार वृक्षों के साथ वहाँ धातकी वृक्ष स्थित है। और पुष्कर द्वीपमें वहाँ अपने परिवार वृक्षोंके साथ पुष्कर वृक्ष है। त्रि सा/६४८ णाणारयणुक्साहा पवालसुमणा मिदिगसरिसफला । पृढबिमया दसत गा मझग्गे छच्चदुव्यासा। वह जम्बूवृक्ष नाना जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy