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________________ वीर्य प्रवाद ध. १३/५,५,१३८/३६०/३ वीर्य शक्तिरित्यर्थ: ।-वीर्यका अर्थ शक्ति है। मोक्ष पंचाशत/४७ आत्मनो निर्विकारस्य कृतकृत्यत्वधीश्च या। उत्साहो वीर्य मिति तत्कीर्तितं मुनिपुंगवै।।४७-निर्विकार आत्माका जो उत्साह या कृतकृत्यत्वरूप बुद्धि, उसे ही मुनिजन वीर्य कहते है। स, सा/आ./परि/शक्ति नं.६ स्वरूपनिर्वर्तनसामर्थ्यरूपा वीर्यशक्ति' । -स्वरूप ( आत्मस्वरूपकी) रचनाकी सामर्थ्यरूप वीर्य शक्ति है। हरिवंशलाल खुशालचन्द सहारू साह सीता राम हीरानन्द साह लाल जी ।।।।। धर्मचन्द्र राजारामअभयराज उदय राजभोज राजजोग राज २. वीर्यके भेद न. च. वृ१४ को टिप्पणी-क्षायोपशमिकी शक्ति क्षायिकी चेति शक्तेदाँ भेदी ।क्षायोपश मिकी व क्षायिकीके भेदसे शक्ति दो प्रकार है। महावीर- वृन्दावन प्रसाद । अजितदास शिखर चन्द सुन्दरदास पुरषोत्तमदास हरिदास शिरोमणी ३. क्षायिक वीर्यका लक्षण स, सि /२/४/१५४/१० वीर्यान्तरायस्थ कर्मणोऽत्यन्तक्षयादाविर्भूतमनन्तवीर्य क्षायिकम् । वीर्यान्तराय कर्मके अत्यन्त क्षयसे क्षायिक अनन्त वीर्य प्रगट होता है। (रा. वा /२/४/६/१०६/१)। रा. बा /२/४/७/११४/१५ केवलज्ञानरूपेण अनन्तवीर्यवृति ।- सिद्ध भगवान् में केवलज्ञानरूपसे अनन्त वीर्यकी वृत्ति है । प प्र./टी/१/६१/६९/१२ केवलज्ञानविषये अनन्तपरिच्छित्तिशक्तिरूपमनन्तबोयं भण्यते। केवलज्ञानके विषय में अनन्त पदार्थों को जाननेकी जो शक्ति है वही अनन्तवीर्य है (द्र, स /टी/१४/४२/११) । हनुमानदास, गुलाबदास, महताब, बुलाकंचन्द कृतियॉ-१ तीस चौबीसी पाठ, २ चौबीसी पाठ, ३. समवशरण पूजा पाठ, ४. अर्हत्पासाकेवली, ५. छन्दशतक, ६ वृन्दावन विलास, (पिंगल ग्रन्थ), ७. प्रवचनसार टीका। समय, ई.१८०३-१८४८ । वि. १८६०-१६०५ ।वि.१९०५ में अन्तिम कृति प्रवचनसार टीका पूरी की। (वृन्दावन विलास/प्र प्रेमी जी) । (ती०/४/२६६) वृंदावन विलास-कवि वृन्दावन (ई १८०३-१८४८ ) रचित एक भाषा पदसंग्रह। वृंदावली-आवलीके समय/३। वृकार्थक-भरतक्षेत्र मध्य आर्यखण्डका एक देश-दे. मनुष्य/४ । वृक्ष-जैनाम्नायमें कल्पवृक्ष व चैत्य वृक्षोंका प्रायः कथन आता है। भोगभूमिमे मनुष्योकी सम्पूर्ण आवश्यकताओंको चिन्ता मात्रसे पूरी करने वाले कल्पवृक्ष है और प्रतिमाओके आश्रयभूत चैत्यवृक्ष है। यद्यपि वृक्ष कहलाते है, परन्तु ये सभी पृथिवीकायिक होते है, वनस्पति कायिक नही। ४. वीर्यगुण जीव व अजीव दोनों में होता है गो. क./जी. प्र/१६/११/१० वीर्य तु जीवाजीवगतमिति । वीर्य जीव तथा अजीब दोनों में पाया जाना है। ५. वीर्य सर्व गुणोंका सहकारी है द्र, सं./टी/१/१५/७ छद्मस्थानां वीर्यान्तरायक्षयोपशम केबलिना तु निरवशेषक्षयो ज्ञानचारित्राद्य त्पत्ती सहकारी सर्वत्र ज्ञातव्यः । =-छद्मस्थानों के तो वीर्यान्तरायका क्षयोपशम और केवलियोके उसका सर्वथा क्षय ज्ञान चारित्र आदिकी उत्पत्तिमे सर्वत्र सहकारी कारण है। * सिद्धोंमें अनन्त वीर्य क्या-दे दान/२। वीर्य प्रवाद-श्रुतज्ञानका तीसरा पूर्व-दे. श्रुतज्ञान/III । वीर्य लब्धि -दे, लब्धि /१। वीर्यांतराय-दे. अन्तराय। वीर्याचार-दे. आचार। १. कल्पवृक्ष निर्देश १. कल्पवृक्षका सामान्य लक्षण ति.प/४/३४१ गामणयरादि सव्य ण होदि ते होंति सम्यकप्पतरू। णियणियमणसंकप्पियवत्थूणि देति जुगलाणं ।३४१॥ - इस ( भोगभूमिके) समय वहाँपर गाँव व नगरादिक सब नहीं होते, केवल वे सत्र कल्पवृक्ष होते है, जो जुगलोंको अपने-अपने मनकी कल्पित वस्तुओको दिया करते है। २. १० कल्पवृक्षोंके नाम निर्देश ति /४/३४२ पाणंगनूरियंगा भसणवत्थंगभोयणं गा य । आलयदीवियभायणमालातेजग आदि कप्पतरू ३४२। -भोगभूमिमें पानाग, तूर्यांग, भूषणाग, वस्त्राग. भोजनांग, आलयाग, दीपाग, भाजनाग, मालाग और तेजाग आदि कल्पवृक्ष होते है ।३४२। (म. पु/8/३६), (त्रि सा./७८७) । ३.१० कल्पवृक्षोंके लक्षण ति. प/४/३४३-३५३ पाणं मधुरसुसादं छरसे हि जुद पसत्थमइसीद । बनोसभेदजुत्त पाणगा देंति तुठ्ठिपुट्टियर ।३४३॥ तूर गा वृदावन-शाहाबाद जिलेके बनारस व आराके मध्य बारा नामके ग्राममे वि १८४२ में जन्म हुआ। अप्रवालवशके गोयल गोत्री थे। पीछे बि. स. १८६० मे बारा छोडकर काशी रहने लगे। भाषाके प्रसिद्ध कवि थे। प्रवचनसारकी प्रशस्तिके अनुसार आपकी वंशावली निम्न प्रकार है जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० ३-७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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