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________________ वनस्पति ५०७ ४. साधारण वनस्पति परिचय का हेतु रूपसे साधारण शरीर जिसके निमित्तसे होता है, वह साधारण शरीर नामकर्म है ( रा वा1८/११/२०/५७८/२०); (गो. जी/जी प्र./३३/३०/१३)। ध.६/१,६-१,२८/६३/१ जस्स कम्मस्स उदएण जोबो साधारणसरीरो होउज, तस्स कम्मस्स साधारणसरीरमिदि सण्णा । जिस कर्म के उदयसे जीव साधारण शरीरी होता है उस कर्मकी 'साधारण शरीर' यह सज्ञा है। ध १३/५० ५.१०१/३६५/ह जस्स कम्मस्मुदएण एगसरीरा होदूण अण ता जीबा अच्छति तं कम्म साहारणसरीर । == जिस कर्मके उदयसे एक ही शरीरवाले होकर अनन्त जीव रहते है वह साधारण शरीर नामकर्म है। २. साधारण जीवोंका लक्षण १. साधारण जन्म मरणादिकी अपेक्षा प. खं. १४/५,६/सू. १२२-१२५/२२६-२३० साहारणमाहारो साहारणमाण पाणगहणं च । साहारणजीवाण साहारणलवरवणं भणिद।१२२ एयस्स अणुग्गहणं बहूण साहारणाणमेयस्स । एयस्स जं बहूण समासदोत पि होदि एयस्स ।१२३। समगं बक्कताण समग तेसि सरीरणिप्पत्ती। समग च अणूरगहण समग उस्सासणिस्सासो ।१२४। जत्थेउ मरइ जीवो तत्थ दु मरण भवे अणताण । वक्कमह' जत्थ एक्को बक्कमण तत्थथ ताणं ।१२। साधारण आहार और साधारण उच्छ्वास नि श्वासका ग्रहण ग्रह साधारण जीवोका साधारण लक्षण कहा गया है ११२२१ (पं.सं /प्रा/९/८२) (ध. १/१,१,४९/मा १४५/२७०), (गो.जी./म./१६२)-एक जीवका जो अनुग्रहण अर्थाद उपकार है वह बहुत साधारण जीवोका है और इसका भी है। तथा बहुत जीवोका जो अनुग्रहण है वह मिलकर इस विवक्षित जीवका भी है। ।१२३। एक साथ उत्पन्न होने वालोंके उनके शरीरकी निष्पत्ति एक साथ होती है, एक साथ अनुग्रहण होता है। और एक साथ उच्छवास-नि श्वास होता है ।१२४।-जिस शरीरमें एक जीव मरता है वहाँ अनन्त जीवोका मरण होता है। और जिस शरीरमे एक जीव उत्पन्न होता है। वहाँ अनन्त जीवोंकी उत्पत्ति होती है ।१२। (६. स /प्रा./१/८३); (ध. १/१,१,४१/गा, १४६/२७०); (गो. जी./मू./१६३)। रा. वा./८/११/२०/५७८/२२ साधारणाहारादिपर्याप्तिचतुष्टयजन्म मरणप्राणापानानुग्रहोपघाता साधारणजीवा' । यदै कस्याहारशरीरेन्द्रियप्राणापानपर्याप्तिनिवृत्ति. तदेवानन्तानाम शरीरे न्द्रियप्राणापान पर्याप्तिनिवृत्ति । यदैको जायते तदैवानन्ता प्राणापानग्रहण बिसगौं कुर्वन्ति । यदैक आहारादिनानुगृह्यते तदैवानन्ता.तेनाहारेणानुगृह्यन्ते। यदै कोऽग्निविषादिनोपहन्यते तदेवानन्तानामुपधात'। --साधारण जीवोके साधारण आहारादि चार पर्याप्तियाँ और साधारण ही जन्म मरण श्वासोच्छवास अनुग्रह और उपधातआदि होते है । जब एकके आहार, शरीर, इन्द्रिय और आनपानपर्याप्ति होती है, उसी समय अनन्त जीवोके जन्म-मरण होजाते हैं । जिस समय एक श्वासोच्छवास लेता, या आहार करता, याअग्नि विष आदिसे उपहत होता है उसी समय शेष अनन्त जीवोके भी श्वासो. च्छ्वास आहार और उपघात आदि होते है। २. साधारण निवासकी अपेक्षा ध ३/१,२,८७/३३३/२ जेण जोवेण एगसरीरट ठिय बहूहि जीवेहि सह कम्मफलमणुभवेयच मिदि कम्ममुवज्जिद सो साहारणसरीरो। जिस जोवने एक शरीरमें स्थित बहुत जीवोके साथ सुख-दुख रूप कर्म फल के अनुभव करने योग्य कर्म उपाजित किया है, वह जोब साधारण शरीर है। ध.१४/५,६,१११/२२६/५ बहूण जीवाण जमेग सरीर त साहारणसरीर णाम । तत्थ जे बस ति जोवा ते साहारणसरीरा । अथवा साहारणं सामण्ण सरीर जेसि जीवाण ते साहारणसरीरा । = बहुत जीवोंका जो एक सरीर है वह साधारण शरीर कहलाता है। उनमें जो जीव निवास करते है वे साधारण शरीर जीव कहलाते है। अथवा.. साधारण अर्थात सामान्य शरीर जिन जीबोका है वे साधारण शरीर जीव कहलाते है। ३. बोनेके अन्तर्मुहूत पर्यन्त सभी वनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येक होती हैं ध. १४/५,६,१२६/गा, १७/२३२ बीजे जोणीभूदे जीवो वक्कमइ सो व अण्णो वा । जे विय मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए ।१७। - योनिभूत बीजमें वही जीव उत्पन्न होता है या अन्य जीव उत्पन्न होता है। और जो मूली आदि है वे प्रथम अवस्थामें प्रत्येक है। (ध. ३/१, २,८३/गा.७६/३४८) (गो. जी/मू. १८७)। गो. जी/जी.प्र./१८७/४२५/१४ येऽपि च मूलकादय प्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरत्वेन प्रतिबद्धा तेऽपि खलु प्रथमतायां स्वोत्पन्नप्रथमसमये अन्तर्मुहुर्त कालं साधारणजीवैरप्रतिष्ठितप्रत्येका एव भवन्ति । जो ये मूलक आदि प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति प्रसिद्ध है, वे भी प्रथम अवस्थामें जन्मके प्रथम समयसे लगाकर अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त नियमसे अप्रतिष्ठित प्रत्येक ही होती है। पीछे निगौद जीवोके द्वारा आश्रित किये जानेपर प्रतिष्ठित प्रत्येक होती है। ४. कचिया अवस्थामें समी वनस्पतियाँ प्रतिष्ठित प्रत्येक होती हैं मू. आ./२१६-२१७ गूढसिरसंधिपब समभंगमहीरुह च छिण्णरुह । साहारणसरीरं तबिवरीयं च पत्तेय ।२१६। होदि वणप्फदि धल्ली रुक्रवतण्णादि तहेव एइंदी। ते जाण हरितजीवा जाणित्ता परिहरेदव्या ।२१७१ - जिनकी नसे नही दीखती, बन्धन व गॉठि नहीं दीखती, जिनके टुकडे समान हो जाते है, और दोनो भङ्गोमें परस्पर तन्तु न लगा रहे, तथा छेदन करनेपर भी जिनकी पुनः वृद्धि हो जाय उसको सप्रतिष्ठित प्रत्येक और इससे विपरीतको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते है ।२१६। (गो. जी./मू./१८८/४२७) वनस्पति बेल वृक्ष तृण इत्यादि स्वरूप है । एकेन्द्रिय है । ये सब प्रत्येक साधारण हरित काय है ऐसा जानना और जानकर इनकी हिसाका त्याग करना चाहिए ।२१७ गो, जी /मू./१८६-१९० मूले कंदे छल्लीपवालसालदलकुसुमफलबीजे। समभगे सदि ण ता असमे सदि होति पत्तेया ।१८हा कंदस्स व मूलस्स व सालाख दस्स बावि बहुलतरी। छल्ली साण तजिया पत्तेयजिया तु तणुकदरी ।१८८-जिन बनस्पतियोके मूल, कन्द, त्वचा, प्रवाल, क्षुद्रशाखा (टहनी) पत्र फूल फल तथा बीजोको तोडनेसे समान भंग हो उसको सप्रतिष्ठित बनस्पति कहते है, और जिनका भंग समान न हो उसको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते है ।१८६। जिस वनस्पतिके कन्द, मूल, क्षुद्रशाखा या स्कन्धकी छाल मोटी हो उसको अनन्तजीव (सप्रतिष्ठित प्रत्येक ) कहते है। और जिसकी छाल पतली हो उसको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते है ।१०। ५. प्रत्येक व साधारण वनस्पतियोंका सामान्य परिचय ला. सं./२/६१-६८, १०६ साधारणं च केोचिन्मूलं स्कन्धस्तथागमात् । शाखा पत्राणि पुष्पाणि पर्वदुग्धफलानि च ।। तत्र व्यस्तानि केषांचित्समस्तान्यथ देहिनाम् । पापमूलानि सर्वाणि ज्ञात्वा सम्यक् परित्यजेत् ।१२। मूल साधाणास्तत्र मूलकाचाद्रकादया। महापापप्रदा. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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