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________________ वनस्पति ५०६ ४. साधारण वनस्पति परिचय शरीर वनस्पति जीव बादर ही होते है सूक्ष्म नहीं, क्यो कि जिस शरीराणि तावन्त एव प्रत्येक वनस्पतिजीवा तत्र प्रतिशरीर एकेकस्य प्रकार साधारण शरीरोमे उत्सर्ग विधिकी बाधक अपवाद विधि पायी जीवस्य प्रतिज्ञानात। =एक स्कन्धमें अप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति जाती है, उस प्रकार प्रत्येक वनस्पतिमें अपवाद विधि नही पायी जीवोंके शरीर यथासभव असरख्यात वा संख्यात भी होते है। जाती है अर्थात उनमे सूक्ष्म भेदका सर्वथा अभाव है। जितने वहाँ प्रत्येक शरीर है, उतने ही वहाँ प्रत्येक वनस्पति जीव ३. वनस्पति में ही साधारण जीव होते हैं पृथिवी आदिमें जानने चाहिए। क्योकि एक एक शरीरके प्रति एक-एक ही जीव होनेका नियम है। नहीं ७. प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति स्कन्धमें अनन्त जीवों के ष. वं. १४/५.६/सू १२०/२२५ तत्थ जे ते साहारणसरीरा ते णियमा वणप्फदिकाइया । अवसेसा पत्ते यसरीरा ।१२०१ -उनमें (प्रत्येक व शरीरकी रचना विशेष साधारण शरीर बालोमें) जो साधारण शरीर जीव है वे नियमसे ध १४/५,६,६३/६/१ संपहि पुलवियाणं एत्थ सरूउपरूवर्ण कस्सामो। बनस्पतिकायिक होते है। अवशेष (पृथ्वीकायादि) जीव प्रत्येक त' जहा-बंधो अडर आवासो पुल विया णिगोदशरीरमिदि पंच शरीर हैं। होति । तत्थ बादरणिगोदाणमासयभूदो बह एहि वकावारएहि सहियो ४. पृथिवी आदि व देव नारकी, तीर्थकर आदि प्रत्येक बल जंतवाणियकच्छउडसमाणो मूलय-थूहक्लया दिववएसहरो खधो णाम । ते च खंधा असखेज्जलोगमेत्ता, बादरणिगोदपदिठिदाणमशरीरी ही होते हैं मखेज्जलोगमेत्तस खुवल भादो। तेसिं खधाणं ववएसहरो तेसि ध. १/१,१,४१/२६/७ पृथिवीकायादिपञ्चानामपि प्रत्येकशरीरव्यपदेश भवाणमवयवा वल जुअकच्छउडपुधावरभागसमाणा अंडर णाम । स्तथा सति स्यादिति चैन्न, इष्टत्वात। -प्रश्न-(जिनका पृथक् अंडरस्स अतोठियो कच्छउड डर तोट ठियवक्क्खारसमाणो आवासो पृथक् शरीर होता है, उन्हे प्रत्येकशरीर जीव कहते है) प्रत्येक णाम । अडराणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि । एक्के कम्हि अडरे असखेज्जशरीरका इस प्रकार लक्षण करनेपर पृथिवीकायादि पाँचो शरीरोंको लोगमेत्ता आवासा होति । आषासम्भंतरे संठिदाओ कच्छउडडरभी प्रत्येक शरीर सज्ञा प्राप्त हो जायेगी। उत्तर-यह आशका कोई वक्रवार तोठियविसिवियाहि समाणाओ पुलवियाओ णाम। एक्केआपत्ति-जनक नहीं है, क्योकि पृथिवीकाय आदिको प्रत्येकशरीर कम्हि आवासे ताओ असंखेजलोगमैत्ताओ होति । एक्के क्कम्हि एक्केमानना इष्ट ही है। 'किस्से पुलवियाए-असखेजलोगमेत्ताणि णिगोदसरीराणि ओरालियध १४/५,६,६१/८१/८ पुढवि-आउ-तेउ-बाउक्काइया देव णेरइया आहार तेजाकम्मइयपोग्गलोवायाण कारणाणि कच्छउडंडरवक्खारपुलवियाए सरीरा पमत्तसंजदा सजोगि-अजोगिकेवलिणो च पत्तेयसरीरा- अंतोठ्ठिददवसमाणाणि पुध पुध अण ताण ते हि णिगोदजीवेहि बुच्चं ति, एदेसि णिगोदजीवेहि सह सबंधाभावादो। -पृथिवि आउण्णाणि होति। तिलोग-भरह जणमय-णामपुरसमाणाणि खधडकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, देव, नारकी, रावास पुल विसरीराणि त्ति वा घेत्तव्यं । -अब यहाँ पर पुलवियोआहारक शरीरी प्रमत्त संयत, सयोगि केवली और अयोगि ये जीव के स्वरूपका कथन करते हैं-यथा-स्कन्ध, अण्डर, आवास, पुलवि प्रत्येक शरीरवाले होते हैं, कोंकि इनका निगोद जीवोसे सम्बन्ध और निगोद शरीर ये पाँच होते है-१. उनसे जो बादर निगोदोनही होता । ( गो जी /म्./२००/४४६)। का आश्रय भूत है, बहुत वक्रवारोंसे युक्त है तथा वल जत्तवाणिय कच्छउड समान है ऐसे मूली, थूअर और आद्रक आदि सज्ञाको ५. कन्द मूल आदि सभी वनस्पतियाँ प्रतिष्ठित अप्रति धारण करनेवाला स्कन्ध कहलाता है, वे स्कन्ध अस ख्यात लोक ष्ठित होती हैं प्रमाण होते है. क्योंकि बादर प्रतिष्ठित जीव असंख्यात लोक प्रमाण पाये जाते है। २ जो उन स्कन्धोके अवयव हैं और जो बल अमू. आ./२१३-२१५ मूलग्गपोरबीजा कदा तह रबंधबीजबीजरुहा । समुच्छिमा य भणिया पत्तेयाण तकाया य १२१३। कंदा मूला छल्ली कच्छउडके पूर्वापर भागके समान है उन्हे अण्डर कहते है। ३. जो अण्डरके भीतर स्थित है तथा कच्छ उडअण्डरके भीतर स्थित खध पत्तं पवालपुष्फफल । गुच्छा गुम्मा वल्ली तणाणि तह पव्व बरखारके समान है उन्हे आवास कहते है। अण्डर असख्यात लोक काया य।२१४। सेवाल पणय केणग कवगो कुहणो य बादरा काया । प्रमाण होते है। तथा एक अण्डरमें असख्यात लोक प्रमाण आवास सब्वेवि सुहमकाया सव्वस्थ जलस्थलागासे १२१५ -१. मूलबीज, अग्रबीज, पर्वबीज कन्दवीज, स्कन्ध बीज, बीजरुह, और सम्मूछिम, होते है। ४, जो आवासके भीतर स्थित है और जो कच्छउडये सब वनस्पतियाँ प्रत्येक (अप्रतिष्ठित प्रत्येक) और अनन्तकाय अण्डरववरख रके भीतर स्थित पिठावियोके समान है उन्हे पुलवि (सप्रतिष्ठित प्रत्येक ) के भेदसे दोनो प्रकार की होती है ।२१३। (प कहते है। एक एक आवासमें वे अस ख्यात लोक प्रमाण होती है। सं/प्रा./२/८१) (ध १/१,१,४३/गा. १९३/२७३) (त. सा./२/६६), तथा एक एक आवासकी अलग अलग एक एक पुन विमे अस ख्यात लोकप्रमाण निगोद शरीर होते है जो कि औदारिक, तैजस और (गो जी/मू./१८६/४२३). (पं.स/स/१/१५६) । २ सूरण आदि कंद, अदररव आदि मूल, छालि, स्कन्ध, पत्ता, कोपल, पुष्प, फल, कार्मण पुद्गलोके उपादान कारण होते है, और जो कच्छउडअण्डर बक्खारपुल विके भीतर स्थित द्रव्योके समान अलग-अलग अनन्ता - गुच्छा, वर जा आदि गुल्म, वेल तिनका और बेत आदि ये सम्मूर्छन प्रत्येक अथवा अन तकायिक है ।२१४० ३. जलकी काई ईट आदिकी नन्त निगोद जीवोसे आपूर्ण होते है। १. अथवा तीन लोक, भरत, काई, कूडेसे उत्पन्न हरा नीला रूप, जटाकार, आहार काजी आदिसे जनपद, ग्राम और पुरके समान स्कन्ध, अण्डर, आवास, पुलवि, और शरीर होते है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। (गो जी./उत्पन्न काई ये सब बादरकाय जानने। जल, स्थल, आकाश सब जगह सूक्ष्मकाय भरे हुए जानना ।२१५॥ म् /९६१-१६४/४३४,४३६ ) । ६. अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति स्कन्धमें भी संख्यात या ४.साधारण वनस्पति परिचय असंख्यात जीव होते हैं १. साधारण शरीर नामकर्मका लक्षण गो जी./जी प्र[१८६/४२३/१३ अप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतिजीवशरीराणि स सि /८/११/३६१/६ बहूनामात्मनामुपभोगहेतुत्वेन साधारण शरीर यथासभव असल्मातानि सख्यातानि वा भवन्ति । याबन्ति प्रत्येक- यतो भवति तत्साधारण शरीरनाम। -बात आत्मा ओके उपभोग जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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