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________________ लोक ४४२ २. लोक सामान्य निर्देश से रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा व महातमप्रभा नामकी ७ पृथिवियाँ लगभग एक राजू अन्तरालसे स्थित है। प्रत्येक पृथिवीमे यथायोग्य १३,११ आदि पटल १००० योजन अन्तरालसे अवस्थित है। कुल पटल ४६ है। प्रत्येक पटलमे अनेकों बिल या गुफाएँ है। पटलका मध्यवर्ती बिल इन्द्रक कहलाता है। इसकी चारो दिशाओं व विदिशाओं में एक श्रेणी में अवस्थित निल श्रेणीबद्र कहलाते है और इनके बीच मे रत्नराशिवत बिखरे हुए बिल प्रकीर्णक कहलाते है । इन बिलोंमे नारकी जीव रहते हैं । (दे० नरक/१-3) सातों पृथिवियों के नीचे अन्त में एक राजू प्रमाण क्षेत्र खाली है। ( उसमे केवल निगोद जीव रहते है) --दे०चित्र सं. १० पृ.४४१। * रत्नप्रभा पृथिवीके खर व पंक मागका चित्र-दे० भवन/४। * रत्नप्रभा पृथिवीके अब्बहुल भाग का चित्र -दे० रत्नप्रभा। ९. भावनलोक निर्देश [उपरोक्त सात पृथिवियोमे जो रत्नप्रभा नामकी प्रथम पृथिवी है, वह तीन भागोमें विभक्त है-खरभाग, पक्भाग व अब्बहुल भाग। खरभाग भी चित्रा, वैडूर्य, लोहिताक आदि १६ प्रस्तरोंमें विभक्त है। प्रत्यक प्रस्तर १००० योजन मोटा है। उनमे चित्रा नामका प्रथम प्रस्तर अनेको रत्नों व धातुओकी खान है। ( दे० रत्नप्रभा)। तहाँ खर व पंकभागमें भावनवासी देवोके भवन है और अब्बहुल भागमें नरक पटल है (दे० भवन/१/१)। इसके अतिरिक्त तिर्यक् लोकमें भी यत्र-तत्र-सर्वत्र उनके पुर, भवन व आवास है। (दे० व्यतर/४/१-५) । (विशेष दे० भवन/४ ) ] १०. व्यन्तर लोक निर्देश [चित्रा पृथिवीके तल भागमे लेकर सुमेरुकी चोटी तक तिर्यग. लोक प्रमाण विस्तृत सर्व क्षेत्र व्यन्तरोके रहनेका स्थान है। इसके अतिरिक्त खर व पकभागमें भी उनके भवन है। मध्यलोकके सर्वद्वीप समुद्रोकी वेदिकाओपर, पर्वतोके कूटॉपर, न दियोके तटॉपर इत्यादि अनेक स्थलोपर यथायोग्य रूपमें उनके पुर, भवन व आवास है। (विशेष दे० व्यन्तर/४/१-५) । ११. मध्यलोक निर्देश १. द्वीप-सागर आदि निदेश ति, प/५/८-१०,२७ सब्वे दीवसमुद्दा सखादीदा भवंति समबट्टा । पढमो दोओ उबही चरिमो मज्झम्मि दीउवही।८। चित्तोवरि बहुमज्झे रज्जूपरिमाणदीह विखंभे। चेट्ठति दीवउवही एक्केक्क वेटिऊण हु प्परिदो।।। सव्वे वि वाहिणीसा चित्तरिख दि खंडिण चेठति। बज्जखिदीए उवरि दीवा बि हु उवरि चित्ताए ।१०। जम्बूद्दीवे लवणो उवही कालो ति बादई सडे। अत्रसेसा वारिणिही वत्तवा दीवसमणामा १२८ -१ सन द्वीप-समुद्र असरब्धात एवं समवृत्त है। सन द्वाप समुद्र असल्यान एवं समवृत्त है। इनमें से पहला द्वीप, अन्तिम समुद्र और मध्यमें द्वीप समुद्र है।८। चित्रा पृथिवी के ऊपर बहुमध्य भागमें एकराजू लम्बे-चौडे क्षेत्रके भीतर एक-एकको चारो ओरसे घेरे हुए द्वीप व समुद्र स्थित है ।। सभी समुद्र चित्रा पृथिवीको खण्डित कर वज्रा पृथिवीके ऊपर, और सब द्वीप चित्रा पृथिवीके ऊपर स्थित है।१०। (मू. आ./१०७६). ( त सू /३/७-८), (ह. पु./५/२,६२६-६२७ ), (ज प /१/78)। २. जम्बूद्वीपमें लवणोदधि और धातकीखण्डमे कालोद नामक समुद है। शेष समुदोके नाम द्वीपोके नाम के समान ही कहना चाहिए। ।२८। (मू आ /१०७७), (रा. वा /३/३८/७/२०८/१७), (जप। ११/१८३)। त्रि सा /८८६ बज्जमयमूलभागा वेलुरियकयाइरम्मा सिहरदा । दीवो वहीणमते पायारा होति सव्यस्थ ।८८६ - सभी द्वीप व समुद्रो के अन्तमें परिधि रूपसे डूर्यमयी जगती होती है, जिनका मूल वज्रमयी होता है तथा जो रमणीक शिरवरोसे सयुक्त है। (-विशेष दे० लोक/३/१ तथा ४/१। नोट-[द्वीप-समुद्रों के नाम व समुद्रोके जल का स्वाद-दे० लोक/12] । तिर्यक्लोक, मनुष्यलोक आदि विभाग ध. ४/१.३,१/६/३ देसभेएण तिलिहो, मंदरचिलियादो, उवरिमुढलोगो, भदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति । = देशके भेदसे क्षेत्र तोन प्रकारका है। मन्दराचल (सुमेरुपर्वत) की चूलिकासे ऊपरका क्षेत्र ऊर्ध्व लोक है । मन्दराचलके मूलसे नीचेका क्षेत्र अधोलोक है। मन्दराचल से परिच्छिन्न अर्थात तत्प्रमाण मध्यलोक है। ह.पु/५/१ तनुवातान्तपर्यन्त स्तिर्यग्लोको व्यवस्थित । लक्षितावधि रूध्वधिो मेरुयोजनलक्षया ।। -१ तनुवातवलयके अन्तभाग तक तिर्यग्लोक अर्थात मध्यलोक स्थित है। मेरु पर्वत एक लाख योजन विस्तारवाला है। उसी मेरु पर्वत द्वारा ऊपर तथा नीचे इस तिर्यग्लोकको अवधि निश्चित है ।। [इसमे असंख्यात द्वीप, समुद्र एक दूसरेको वेष्टित करके स्थित है दे० लोक/२/११। यह साराका सारा तिर्य कलोक कहलाता है, क्योकि तिर्यच जीव इस क्षेत्रमें सर्वत्र पाये जाते है। २. उपरोक्त तिर्यग्लोक्के मध्यवर्ती, जम्बूद्वीपसे लेकर मानुषोत्तर पर्वत तक अढाई द्वीप व दो सागरसे रुद्ध ४५०० ००० योजन प्रमाण क्षेत्र मनुष्यलोक है। देवो आदिके द्वारा भी उनका मानुषोत्तर पर्वतके पर भागमें जाना सम्भव नही है । (-दे० मनुष्य/ ४/१)।३ मनुष्य लोकके इन अढाई द्वीपोमेसे जम्बूद्वीपमें १ और घातकी व पुष्कराध में दो-दो मेरु है। प्रत्येक मेरु सम्बन्धी ६ कुलधर पर्वत होते है, जिनसे बह द्वीप ७ क्षेत्रोमे विभक्त हो जाता है । मेरुके प्रणिधि भागमे दो कुरु तथा मध्यवर्ती विदेह क्षेत्रके पूर्व व पश्चिमवर्ती दो विभाग होते है। प्रत्येको ८ वक्षार पर्वत, ६ विभगा नदियाँ तथा १६ क्षेत्र है। उपरोक्त ७ व इन ३२ क्षेत्रोमेसे प्रत्येकमें दो-दो प्रधान नदिया है। ७ क्षेत्रो में से दक्षिणी व उत्तरीय दो क्षेत्र तथा ३२ विदेह इन सबके मध्य में एक-एक विजयार्ध पर्वत है, जिनपर विद्याधरोंकी बस्तियाँ है । (दे० लोक३/)। ४. इस अढाई द्वीप तथा अन्तिम द्वीप सागरमें ही कर्म भूमि है, अन्य सर्व द्वीप ब सागर में सर्वदा भोगभूमिको व्यवस्था रहती है। कृष्यादि षट्कर्म तथा धर्म-कर्म सम्बन्धी अनुष्ठान जहाँ पाये जाये वह कर्मभूमि है, और जहाँ जीव बिना कुछ किये प्राकृतिक पदार्थोके आश्रयपर उत्तम भोग भोगते हुए मुखपूर्वक जीवन-यापन करे वह भोगभूमि है। अढाई द्वीपके सर्व क्षेत्रोमे भी सर्व विदेह क्षेत्रों में त्रिकाल उत्तम प्रकारकी कर्मभूमि रहती है। दक्षिणी व उत्तरी दो-दो क्षेत्रो में घटकाल परिवर्तन होता है। तीन कालोमे उत्तम. मध्यम व जघन्य भोगभूमि और तीन कालोमे उत्तम, मध्यम व जघन्य कर्मभ्रमि रहती है। दोनों कुरुओमे सदा उत्तम भोगभूमि रहती है, इनके आगे दक्षिण व उत्तरवर्ती दो क्षेत्रों में सदा मध्यम भोगभूमि और उनमे भी आगेके शेष दो क्षेत्रो में सदा जघन्य भोगभूमि रहती है (दे० भूमि ) भोगभूमिमे जीवकी आयु शरीरोत्सेध बल व सुख क्रमसे वृद्धिगत होता है और कर्मभूमिमें क्रमश हानिगत होता है। -दे० काल/४। ५ मनुष्य लोक व अन्तिम स्वयप्रभ द्वीप ब सागरको छोडकर शेष सभी द्वीप सागरों में विकलेन्द्रिय व जलचर नही होते है। इसी प्रकार सर्व हो भोगभूमियो में भी वे नही होते है। वैर वश देवो के द्वारा ले जाये गये वे सर्वत्र सम्भव है।-दे० तिर्यच/३ । १२. ज्योतिष लोक सामान्य निर्देश [ पूर्वोक्त चित्रा पृथिवीसे ७६० योजन ऊपर जावर ११० योजन पर्यन्त आकाशमें एक राजू प्रमाण विस्तृत ज्योतिष लोक है। नीचेसे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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