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________________ लब्धि ३. करणलब्धि सम्यक्त्वादिका साक्षात् कारण है गो. जी. जी. / ६५९/११००/१ करणस्तुि भव्य एव स्यात् तथापि सम्यक्त्वग्रहणे चारित्रग्रहणे च । करणलब्धि भव्य जीवके ही सम्यक्त्व ग्रहण वा चारित्र ग्रहणके काल में ही होती है। अर्थात् करणलब्धिको प्राप्तिके पीछे सम्यक्त्व चारित्र अवश्य हो है । ( ल. सा. /जी. प्र.३/४९/१५)। ५. संयम व संयमासंयम लब्धिस्थान १. संयम व संयमासंयम कब्धिस्थानका लक्षण रा. वा / १/१/१६-१७/२८६-२६० / ३१ तत्रामन्तानुपायाः क्षीणा स्युरक्षीणा वा, ते च अप्रत्याख्यानावरणकषायाश्च सर्वघातिन एव, तेषामुदयक्षयात्रापशमाच. प्रत्याख्यानावरणरूपाया. सर्वघातिन एव तेषामुदये सति संयमतन्यायसत्या संज्वायाः नव नोकपामाश्च देशातिन एवं तेषामुदये सति संगमा संयमधिभवति । तद्योग्या प्राणीन्द्रियविषया विरताविरतवृत्त्या परिणत संयतासंयत इत्याख्यायते ॥१६॥ अनन्तानुबन्धिकपायेषु क्षीणेष्यक्षीणेषु वा प्राप्तोदयक्षयेषु अष्टानां च कषायाणां उदयक्षयात् तेषामेव सदुपशमात् सज्यतमनोकामापा उदये संयमतचिर्भवति । १. अनन्तानुबन्धिकषाय क्षीण हो या अक्षीण हो तथा स्था ख्यान कषाय सर्वघाती है इनका उदयक्षय या सदवस्थारूप उपशम होनेपर तथा सर्वघाठी प्रत्यारूपानावरण के उदयसे संगमसन्धिका अभाव होनेपर एवं देशवाती संज्वलन और नोकषायोके उदयमे संयमासंयम लब्धि होती है। इसके होनेपर प्राणी और कविताविरत परिणामा संयतासंयत कहलाता है। १६। २ लोग या अक्षीण अनन्तानुबन्धि पायोका उदय क्षय होनेपर तथा प्रत्याख्यानावरण कषायोका उदयक्षय या सदवस्था उपशम हानेपर और सज्वलन तथा नोकषायोका उदय होनेपर संयम लब्धि होती है। दे० सयत /१/१६२ [ इस सयमलब्धिको प्राप्त संयत कदाचित प्रमादवश चारित्रसे स्खलित होनेके कारण प्रमत्त कहलाता है, और प्रमादरहित अविचल संयम वृत्ति होनेपर अप्रमत्त कहलाता है । ] २. संयम व संयमासंयम लब्धिस्थानके भेद ६/११-१२/२०६ जनासंगमलखीए द्वाणाणि पडिवादट्ठाण पडिवज्जठाण 'अपडिवाद पडिवज्जमाणट्ठाण । • + . ध. ६/१,६-८,१४/२८३/४ एत्थ जाणि सजमलद्धिट्ठाणाणि ताणि तिविहामि होति त जहा पडिवाराणगि उम्पदानि परि तद्वाणाणि च। १. स्थानप्रतिपातस्थान, प्रतिपद्यमान स्थान और अमतिपात विद्यमान स्थान के भेइसे तीन प्रकार है ( स सामू / १०६/२२०)। २. संयम लब्धिस्थान तीन प्रकारके होते है। वे इस प्रकार है - प्रतिपातस्थान, उत्पादस्थान और व्यतिरिक्तस्थान ( स. सा / /१९२) । ल सा / मू/ १६८, १८४ दुबिहा चरित्तलखी देसे सयले य १६८ ॥ अवरवरदेशलद्वी • ११८४ | = चारित्र लब्धि दो प्रकार है- देश व सकल १६ देशधिजन्य उत्कृष्टके भेदते दो प्रकार है |१४| Jain Education International ३. प्रदिपद्यमान व उपपाद संयम व संयमासंयम लस्थान के लक्षण ध. ६/१,६-८,१४/२८३/६ उत्पादट्ठाणं णाम जम्हि ठाणे सजम पडिवज्जदितं उप्पादट्ठाण णाम । जिस स्थान पर जीव सयमको प्राप्त होता है वह उत्पाद ( प्रतिपद्यमान ) स्थान है । ૪૨૪ ५. संयम व संयमासंयम लब्धिस्थान सा/जी/१०/२४११० मिध्यादृश्चिरमस्य सम्यवश्ववेदसंयमी युगपत्प्रतिपद्यमानस्य सत्यमसमये वर्तमानं जयप्रतिपद्यमानस्थानम् प्रागसंयत्सम्यग्दृष्टिर्भूत्या पश्चाददेशसंयमं प्रतिपद्य मानस्य तत्प्रथमसमये समवत्कृष्टप्रतिपद्यमानस्थानस् । मिध्यालके चरम समय में देशसंयतके प्रथम समयमें प्रतिपद्यमान स्थान होता है। • असयतके पश्चात् देशसयत के प्रथम समयमे उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान स्थान है । ल. सा. / भाषा/१०६/२२०/२२ देशसंयत के प्राप्त होते प्रथम समयवि सभवते जे स्थान ते प्रतिपद्यमानगत है । [घ] ६ / ११-८, १४/२००/ विशेषार्थ संयमासयमको धारण करनेके प्रथम समयमे होनेवाले स्थानोंको प्रतिपद्यमान स्थान रहते है। ४. प्रतिपातगत संयम व संयमासंयम लब्धिस्थानके लक्षण घ. ६/११-८, १४/२८२/२ सत्य पडिवादद्वारा गाम जहि द्राणे मिच्छतं वा असजमसम्मत्तं वा संजमासंजम वा गच्छदि त पडिवादट्ठाण । = जिस स्थानपर जीव मिथ्यात्वको अथवा असयम सम्यक्त्वको अथवा संयमासंयमको प्राप्त होता है वह प्रतिपातस्थान है। ल. सा./जी. प्र. / १८८/२४०/१२ प्रतिपातो बहिरन्तरङ्गकारणवशेन सयमात्प्रच्यवः । स च संक्लिष्टस्य तत्काल चरमसमये विशुद्धिहान्या सर्वजधन्यदेशयमशक्तिकस्य मनुष्यस्य तदनन्तरसमये मिध्यात्वं प्रतिपत्स्यमानस्य भवति । प्रतिपात नाम संयमसे भ्रष्ट होने का है सो संक्लेश परिणामसे संयमसे भ्रष्ट होते देशसंयम के अन्त समय में प्रतिपातस्थान होता है। सा/भाषा/१०८/२३०/११ देशसंयम से ( वा सयम ते भ्रष्ट होते अन्त समय भय से स्थान ते प्रतिपालगत है (भ. ६/१.६८ १४/२०० पर विशेषार्थ) । ल. सा. / भाषा/१८८/२४२ / ८ मिथ्यात्वको समुख मनुष्य वा तियंचके जघन्य और असंयतको संमुख मनुष्य मा चिकेष्ट प्रतिपात स्थान हो है । • -- - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only + ५. अनुमयागत व सद्यतिरिक्त संयम व संयमासंयम लब्धिस्थानोंके लक्षण घ. १/९.१-८/४/२०३०पराणानि सम्यदरि ट्ठाणाणि णाम । इन ( प्रतिपात व उत्पाद या प्रतिपद्यमान स्थानोके) अतिरिक्त सर्व ही चारित्र (के मध्यवर्ती) स्थानोंको तद्वतिरिक्त समन्धि स्थान कहते है (स.सा./ भाषा / १८६) । ल. सा /मू / ११८,२०१ अणुभयंतु । तम्मज्भे उवरिमगुणगहणाहिमुहे य देवा ११३८|र] सामाइ सम्म होति परिहारा |२०१ - ( प्रतिपात व प्रतिपद्यमान स्थानोके) भीमे वा ऊपर के गुणस्थानोंके समुख होते अनुभव स्थान होता है सो देशसंयमकी भाँति जानना | १६ | तिनके ऊपर ( संयतके ऊपर) अनुभय स्थान है वे सामायिक धेोपस्थापना सम्बन्धी है। तिनिय जवन्य उत्कृष्टके मीच परिहार- विशुद्ध स्थान है। सा/जी/१८८२४१/१४ का भावार्थ- मिथ्या देशसंयत होनेके दूसरे समय में मनुष्य व तियंचके जघन्य अनुभय स्थान है । और असंयतमे देशसंयत होनेपर एकान्तवृद्धि स्थानके अन्त समय में तिर्यंचके उत्कृष्ट अनुभय स्थान होता है। तथा असंयत से देशसंयत होने पर एकान्त स्थानके अन्त समयमे सयमको संमुख मनुष्यके उत्कृष्ट अभय स्थान होता है। घ. ६/१,१६,१४/२०० / विशेषार्थ इन दोनों (प्रतिपादन] उत्पाद या प्रतिपद्यमान स्थानोंको छोड़कर मध्यवर्ती समयमे सम्भव समस्त स्थानोको अप्रतिपात अप्रतिपद्यमान या अनुभयस्थान कहते है । www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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