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________________ लब्धि ४१३ ४. करणलब्धि निर्देश ४. कदाचित् मिथ्याष्टिसे भी देशनाकी सम्भावना ला. सं./१६ न वाच्यं पाठमात्रत्वमस्ति तस्येह नार्थतः । यतस्तस्योपदेशाद्वै ज्ञानं विन्दन्ति केचन ।१९। = मिथ्यादृष्टिके जो ग्यारह अंगका ज्ञान होता है वह केवल पाठमात्र है, उसके अर्थोंका ज्ञान उसको नही होता, यह कहना ठीक नही। क्योकि शास्त्रों में कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि मुनियोके उपदेशसे अन्य कितने ही भव्य जीवोंको सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान प्रगट हो जाता है ।१६। ५. निश्चय तत्वोंका मनन करनेपर देशनालब्धि सम्भव है प्र. सा./मू./८६ .जिणसत्थादो अछे पच्चक्रवादी हि बुज्झदो णियमा। रखीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्यं समधिदव्व 1८६ -जिन-शास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे पदार्थों को जानने वालेके नियमसे मोहसमूह क्षय हो जाता है, इसलिए शास्त्रका सम्यक प्रकारसे मनन करना चाहिए।८६ भ आ /वि /१०५/२५०/१२ अयमभिप्राय'-श्रद्धानसहचारिबोधाभावा च्छ तमप्यश्रुतमिति। -शब्दात्म श्रुत सुनकर उसके अर्थको भी समझ लिया परन्तु उसके ऊपर यदि श्रद्धा नही है तो वह सब सुन और जान लेनेपर भी अभूतपूर्व ही समझना चाहिए। इस शब्दके अध्ययनसे अपूर्व अर्थोंका ज्ञान होता है। पु. सि. उ./६ व्यवहारमेव केवलमवै ति यस्तस्य देशना नास्ति। =जो जीव केवल व्यवहार नयको ही साध्य जानता है, उस मिथ्यादृष्टिके लिए उपदेश नही है।६। है अर्थात् भव्य-अभय दोनोके होती है । किन्तु करणलब्धि सम्यक्त्व होनेके समय होती है। (ध.६/१,६-८,३/२०५/३), (गो, जी./मू./६५१/११००), (ल. सा./मू./३/४२), (द्र. स./टी./३६/ १५६/३ ) । ३. देशनालब्धि निर्देश १. देशनालब्धिका लक्षण ध.६/१,१-८,/२०४/७ छहब्ब-णवपदत्थोवदेशो देसणा णाम । तीए देसणाए परिणदआइरियादीणमुवल भो, देसिदत्थस्स गहण-धारणविचारणसत्तीए सभागमो अ देसणलद्धीणाम । = छह द्रव्यो और नौ पदार्थोंके उपदेशका नाम देशना है। उस देशनासे परिणत आचार्य आदिकी उपलब्धिको और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारणकी शक्ति के समागमको देशनालब्धि कहते है। (ल, सा /मू./६/४४)। २. सम्यग्दृष्टिके उपदेशसे ही देशना सम्मव है नि. सा./मू./५३ सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा। अतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहूदी ।५३ सम्यक्त्वका निमित्त जिनसूत्र है, जिनसूत्रको जानने वाले पुरुषोको अन्तरंग हेतु कहे है, क्योकि उनको दर्शनमोहके क्षयादिक है ।।३। (विशेष दे० इसकी टीका)। इ. उ / /२३ अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः ।...|२३ अज्ञानीकी उपासनासे अज्ञानकी और ज्ञानीको उपासनासे ज्ञानकी प्राप्ति होती है ।२३। दे० आगम/५ ( दोष रहित व सत्य स्वभाव वाले पुरुषके द्वारा व्याख्यात होनेसे आगम प्रमाण है।) ध १/१,१,२२/१६६/२ व्याख्यातारमन्तरेण स्वार्थाप्रतिपादकस्य (वेदस्य) तस्य व्यारण्यावधीनवाच्यवाचकभाव। प्राप्ताशेषवस्तुविषयबोधस्तस्य व्याख्यातेति प्रतिपत्तव्यम् । = व्याख्याताके बिना वेद स्वयं अपने विषयका प्रतिपादक नही है, इसलिए उसका वाच्य-बाचक भाव व्याख्याताके आधीन है। जिसने सम्पूर्ण वस्तु-विषयक ज्ञान को जान लिया है वही आगमका व्याख्याता हो सकता है। सत्तास्वरूप/३/१५ राग, धर्म, सच्ची प्रवृत्ति, सम्यग्ज्ञान व वीतराग दशा रूप निरोगता, उसका आदिसे अन्त तक सच्चा स्वरूप स्वाश्रितपने उस (सम्यग्दृष्टि) को ही भासे है और वह ही अन्यको दर्शाने वाला है। ३. मिथ्यादृष्टिके उपदेशसे देशना संभव नहीं प्र. सा./मू /२५६ छदुमत्थविहिदवत्थुसु बदणियमज्झयणझाणदाणरदो। ण लहदि अपुणब्भाव भाव सादप्पगं लहदि ।२५६। -जो जीव छद्मस्थ विहित वस्तुओं में (अज्ञानीके द्वारा कथित देव, गुरुधर्मादिमें) व्रत-नियम अध्ययन-ध्यान-दानमें रत होता है वह मोक्षको प्राप्त नहीं होता, किन्तु साक्षात्मक भावको प्राप्त होता है। ध १/१,१,२२/१६५/८ ज्ञानविज्ञानविरहादप्राप्तप्रामाण्यस्य व्याख्यातु चनस्य प्रामाण्याभावात्। --ज्ञान-विज्ञानसे रहित होनेके कारण जिसने स्वय प्रमाणता प्राप्त नहीं किया ऐसे व्याख्याताके वचन प्रमाणरूप नहीं हो सकते। ज्ञा./२/१०/३ न सम्यग्गदितुं शक्यं यत्स्वरूपं कुदृष्टिभि । । ।३। -धर्मका स्वरूप मिथ्यादृष्टियोके द्वारा नहीं कहा जा सकता है। मो मा. प्र./१/२२/४ वक्ता कैसा चाहिए जो जैन श्रद्धान विषै दृढ होय __ जातें जो आप अश्रद्धानी होय तौ और को श्रद्धानी कैसे करै। द. पा./प. जयचन्द/२/४/१६ जाके धर्म नाही तिसतै धर्मकी प्राप्ति नाही ताकू धर्मनिमित्त काहेकू' वन्दिए ..। ४. करणलब्धि निर्देश १. करणलब्धि व अन्तरंग पुरुषाथमें केवल भाषा द्र सं./टी /३७/१५६/५ इति गाथाकथितलब्धिपञ्चकसंज्ञेनाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गेन पौरुष कृत्वाकर्मशत्रु हन्तीति। द्र. स /टी./४१/१६५/११ आगमभाषया दर्शनचारित्रमोहनीयोपशम क्षयसज्ञेनाध्यात्मभाषया स्वशुद्धाश्माभिमुखपरिणामसभेन च कालादिलब्धिविशेषेण मिथ्यात्वं विलयं गतम् । =१. पाँच लब्धियोसे और अध्यात्म भाषामे निज शुद्धात्माके संमुख परिणाम नामक निर्मल भावना विशेषरूप खड्गसे पौरुष करके, कर्मशत्रुको नष्ट करता है। (पं. का /ता, वृ./१५०/२१७/१४)। २. आगम भाषामें दर्शन मोहनीय तया चारित्र मोहनीयके क्षयोपशमसे और अध्यात्म भाषामें निज शुद्धात्माके संमुख परिणाम तथा काल आदि लब्धिके विशेषसे उनका मिथ्यात्व नष्ट हो जायेगा। २ करणलब्धि मव्यको ही होती है ल, सा /भू /३३/६६ तत्तो अभन्यलोग्गं परिणाम बोलिऊण । भब्यो हु । करणं करेदि कमसो अधापवत्तं अपुव्वमणियठि ॥३३॥ अभव्यके भी योग्य ऐसी चार लब्धियोरूप परिणामको समाप्त करके जो भव्य है, वह जीव अध.प्रवृत्त, अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण को करता है ।३३। गो, जो जो. प्र./६७१/११००/६ करणलब्धिस्तु भव्य एव स्यात् । करण लब्धि तो भव्य ही के होती है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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