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________________ रूपातीत ४०६ रोग परीषह मुनि साक्षाद्यथान्यत्व न बुध्यते ।३०१ - जब परमात्माका प्रत्यक्ष होने लगता है तब ऐसा ध्यान कर कि ऐसा परमात्मा मै हूँ. मै ही सर्वज्ञ हूँ, सर्व व्यापक हूँ, सिद्ध हूँ, तथा मै ही साध्य था। संसारसे रहित, परमात्मा, परमज्योति स्वरूप, समस्त विश्वको देखनेवाला मै ही हूँ। मै ही निरंजन हूँ ऐमा परमात्माका ध्यान करै । उस समय अपना स्वरूप निश्चल, अमूर्त, निष्कल क, जगत्का गुरु, चैतन्यमात्र और ध्यान तथा ध्याताके भेद रहित ऐसा अतिशय स्फुरायमान होता है ।२८-२६। उस समय परमात्मामे पृथक् भाव अर्थात् अलगपनेका उल्लघन करके साक्षात् एकताको इस तरह प्राप्त हो जाता है कि, जिससे पृथक पनेका बिलकुल भान नहीं होता।३०। नित्य है, अव्यय है, अव्यक्त है, परिपूर्ण है, पुरातन है।३०। इत्यादिक अनेक सार्थक नामसहित, सर्वगत, देवोका नायक, सर्वज्ञ जो श्री वीर तीर्थंकर है उसको हे मुने। तू स्मरण कर ३१॥ २ उपयुक्त सर्वज्ञ देवका ध्यान करनेवाला ध्यानी अनन्य शरण हो. साक्षात उसमे ही संख्लीन है मन जिसका ऐसा हो, तन्मयताको पाकर, उसी स्वरूपको प्राप्त होता है ।३२। उस सर्वज्ञ देवके ध्यानमे अभ्यास करनेके प्रभावसे निश्चल हुए योगीगण सर्व अवस्थाओमे उस परमेष्ठीको देखते है। द्र.स /टी/४८/२०५ पर 'उद्धृत रूपस्थ चिद्रूपं = सर्व चिद्रूपका चिन्तवन रूपस्थध्यान है। (प प्र/टो /१/६/६ पर उद्धृत), ( भा. पा/टी /०६/२६६ पर उद्धृत)। * अहंत चितवन पदस्थादि तीनों ध्यानोमें समान है -दे० ध्येय। २. रूपस्थध्यानका फल ज्ञा /३६/३३-३८ यमाराध्यशिव प्राप्ता योगिनो जन्मनिस्पृहा । यं स्मरन्त्य निश भव्याः शिवश्रीसगमोसुका' ।३३। तदालम्ब्य पर ज्योतिस्तद्गुणग्रामरब्जित । अविक्षिप्तमनायोगी तत्स्वरूपमुपाश्नुते ।३७१ = जिस सर्वज्ञ देवको आराधन करके ससारसे निस्पृह मुनिगण मोक्षको प्राप्त हुए है तथा मोक्ष लक्ष्मी के संगममें उत्सुक भव्यजीव जिसका निरन्तर ध्यान करते है ।३३। योगी उस सर्वज्ञदेव परमज्योतिको आलम्बन करके गुण ग्रामोमें रजायमान होता हुआ मनमें विक्षेप रहित होकर, उसो स्वरूपको प्राप्त होता है ।३७। रूपातीत १.रूपातीत ध्यानका लक्षण व विधि वसु. श्रा/४७६ वण्ण-रस-गध-फासे हि वज्जिओ णाण-दसणसरूवो। ज झाइज्जइ एवं तं झाणं रूवरहियं ति।४७६। = वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्शसे रहित, केवल ज्ञान-दर्शन स्वरूप जो सिद्ध परमेष्ठीका या शुद्ध आत्माका ध्यान किया जाता है, वह रूपातीत ध्यान है ।४७६। ( गुण. श्रा/२४३), (द्र.सं/टी/५१ की पातनिका/२१६/१)। ज्ञा./४०/१५-२६ अथरूपे स्थिरीभूतचित्त प्रक्षीणविभ्रमः । अमूर्तमज- मव्यक्तं ध्यातुं प्रक्रमते तत ११५॥ चिदानन्दमयं शुद्धममूत्तं परमाक्ष रम् । स्मरेद्यत्रात्मनात्मानं तद्रूपातीतमिष्यते ।१६। सर्वाक्यवसम्पूर्ण सर्वलक्षणलक्षितम् । विशुद्धादर्शसंक्रान्तप्रतिबिम्बसमप्रभम् ।२६१ - रूपस्थध्यानमें स्थिरीभूत है चित्त जिसका तथा नष्ट हो गये है विभ्रम जिसके ऐसा ध्यानी अमूर्त, अजन्मा, इन्द्रियोसे अगोचर, ऐसे परमात्मके ध्यानका प्रारम्भ करता है ।१५। जिस ध्यानमें ध्यानी मुनि चिदानन्दमय, शुद्ध, अमूर्त, परमाक्षररूप, आत्माको आत्मा करि हो स्मरणरै सो रूपातीत ध्यान माना गया है ।१६। समस्त अवयवोसे परिपूर्ण और समस्त लक्षणोसे लक्षित ऐसे निर्मल दर्पणमें पडते हुए प्रतिबिम्बके समान प्रभावाले परमात्माका चिन्तवन करै ।२६। द्र, सं/टी/४८/२०५ पर उद्धृत 'रूपातोत निरञ्जनम्'। -निर जनका ध्यान रूपातीत ध्यान है। (प,प्र/१/६/६ पर उद्धृत), (भा.पा./टी। ८६/२३६ पर उद्धृत)। * शुक्लध्यान व रूपातीतध्यानमें एकता -दे० पद्धति। * शून्यध्यानका स्वरूप-दे० शुक्लध्यान/१ । रूपानुपात-स. सि./७/३१/३६६/११ स्वविग्रहदर्शनं रूपानुपातः । -- (देशवतके अतिचारों के अन्तर्गत) उन्हीं पुरुषोंको (जो उद्योगमै जुटे है) अपने शरीरको दिखलाना रूपानुपात है। रावा,/७/३१/४/५५६/८ मम रूपं निरीक्ष्य व्यापारमचिरान्निष्पादयन्ति इति स्व विग्रहप्ररूपणं रूपानुपात इति निीयते ।- 'मुझे देखकर काम जल्दी होगा' इस अभिप्रायसे अपने शरीरको दिखाना रूपानुपात है। (चा, सा./१६/२) । रूपी-दे० मूर्त। रूप्य कूला-१. हैरण्यवर्त क्षेत्रको नदी व कुण्ड–दे लोक/२/६,१०। २.रुक्मि पर्वस्थ एक कूट व उसका स्वामीदेव-दे० लोक/५/४/ रूप्यवर-मध्यलोकके अन्तका दशम सागर व द्वीप-दे० लोक/५/९ । रेखा-सरल रेखा Straight line (ज. प./प्र. १०८) । रेचक प्राणायाम-दे० प्राणायाम/२। रेवती-१. एक नक्षत्र-दे० नक्षत्र । २. श्रावस्ती नगरीकी सम्यक्त्व से विभूषित एक श्राविका थी। मथुरास्थ मुनिगुप्तने एक विद्याधरके द्वारा इसके लिए आशीष भेजी। तब उस विद्याधरने ब्रह्मा व तीर्थंकर आदिका ढोग रचकर इसकी परीक्षा ली। जिसमें यह अडिग रही थी। (वृ. क. को./कथा ७)। रेवस्या-पूर्वी मध्य आर्यखण्डस्थ एक नदी-दे० मनुष्य/४ । रेवा-भरत क्षेत्रस्थ आर्यखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । रेशम-दे० वस्त्र। रैनमंजूसा-हंसद्वीपके राजा कनककेतुकी पुत्री थी । सहस्रकूट चैत्यालयके कपाट उघाडनेसे श्रीपालसे विवाही गयी थी। फिर धवलसेठके इसपर मोहित होनेपर धर्म में स्थित रही। अन्तमे दीक्षा ले, तपकर स्वर्ग सिधारी । ( श्रीपालचरित्र )। रवतक-सौराष्ट्र देशमें जूनागढ़ राज्यका गिरनार पर्वत । (म. पु/प्र. ४६/पं. पन्नालाल)। रोग-कुष्ठादि विशेष प्रकारके रोग हो जानेपर जिन दीक्षाकी योग्यता नहीं रहती है।-दे० प्रवज्या/१॥ रोग परीषह-स.सि 8/1/४२५/8 सर्वाशुचिनिधानमिदमनित्यमपरित्राणमिति शरीरे नि शङ्कल्पत्वाद्विगतसस्कारस्य गुणरत्नभाण्डसंचयप्रवर्धनसरक्षणसधारणकारणत्वादभ्युपगतस्थिति-विधानस्याक्ष - म्रक्षणवद व्रणानुलेपनवद्वा बहूपकारमाहारमभ्युपगच्छतो विरुद्धाहारपानसेवनवैषम्यजनितवातादिविकाररोगस्य युगपदनेक शतसंख्य २ ध्येयके साथ लन्मयता ज्ञा /४०/२८-३० सोऽहं सकल वित्सावं. सिद्धः साध्यो भवच्युत । परमात्मा पर ज्योतिर्विश्वदर्शी निरज्जन ।२८१ तदासौ निश्चलोऽमूर्तो निष्कल ड्को जगद्गुरु । चिन्मात्रो विस्फुरत्युच्चैानध्यातविवजित २६॥ पृथग्भावमतिक्रम्य तथै क्यं परमात्मनि । प्राप्नोति स जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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