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________________ ४०५ रुपस्थ परमार्थी, मगलगीत प्रबन्ध । समय-वि. १६६३ में आगरा आये । (ती./४/२५५) १२ प बनारसी दासजो कृत समयसार नाटकके विशद टोकाकार थे। समय-वि १७४८ (हि. जै. सा, ई/१८० कामता)। रूपनिभ-एक ग्रह-दे० ग्रह । रूपपाली-किन्नर नामा व्यन्तर देवका एक भेद-दे० किन्नर । रूपयमाष फल-तोलका प्रमाण विशेष-दे० गणित/I/१। रूपरेखा-General outline. (ध //प्र/२८)। रूपसत्य-दे० सत्य/१० रूपस्थ १. रूपस्थ ध्यानका लक्षण व विधि रुजा-नि.सा/ता वृ/६ वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्यसंजातकलेवरविपीड व रुजा। बात, पित्त और कफ की विषमतासे उत्पन्न होनेवाली कलेवर (शरीर) सम्बन्धी पीडा वही रोग (रुजा) है। रुद्र-१, एक ग्रह-दे० ग्रह । २. असुरकुमार (भवनवासी देव)-दे० असुर । ३ ग्यारह रुद्र परिचय-देशलाका पुरुष/७ । ति.4/४/५२१ रुद्दा रउद्दकम्मा अहम्मवाधारसंलग्गा। -(जो) अधर्मपूर्ण व्यापारमे संलग्न होकर रौद्रकर्म किया करते है (वे रुद्र कहलाते है)। रा वा /६/२८/२/६२७/२८ रोदयतीति रुद्र क्रूर इत्यर्थ । रुलाने वालेको रुद्र-क्रूर कहते है। प.प्र./टो./१/४२ पश्चात पूर्वकृत चारित्रमोहोदयेन विषयासक्तो भूत्वा रुद्रो भवति। = उसके बाद (जिनदीक्षा लेकर पुण्यबध करनेके बाद ) पूर्वकृत चारित्र मोहके उदयसे विषयो में लीन हुआ रुद्र कह लाता है। त्रि सा./८४१ विज्जाणुवादपढणे दिठ्ठफला णसंजमा भया । कदिचि भवे सिझति हु गहिदुझियसम्ममहिमादो ८४११= ये रुद्र विद्यानुवाद पूर्व के पढनेसे इस लोक सम्बन्धी फल के भोक्ता हुए। तथा जिनका सयम नष्ट हो गया है, जो भव्य है, और जो ग्रहण कर छोडे हुए सम्यक्त्व के माहात्म्यसे कुछ ही भवो में मुक्ति पायेगे ऐसे वे रुद्र होते है। रुद्रदत्त-भगवान् ऋषभदेवके तीर्थ मे एक ब्राह्मण था। पूजाके लिए प्राप्त किये द्रव्यसे जुआ खेलनेके फलस्वरूप सातवें नरकमें गया (ह. पु./१८/६७-१०१)। रुद्रवसंत व्रत-क्रमश २,३,४,५,६,६, ००० ०००० ४,३,२ इस प्रकार ३५ उपवास करे । ००००० बीचके (.) वाले स्थानोमें सर्वत्र एक ०००००० ०००००० पारणा। नमस्कार मन्त्रकी त्रिकाल जाप ०००० करे। (बत विधान स/पृ.६७)। ००० रुद्राश्व-विजयाध की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। रुधिर-१. औदारिक शरीरमे रुधिरका प्रमाण-दे० औदारिक १/७। २. सौधर्म स्वर्गका दसवॉ पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग/५/३ । रूढसंख्या -Prime (ध ५/प्र./२८)। रूप रा. वा./१/२०/१/८/४ अय रूपशब्दोऽनेकार्थ. क्वचिच्चाक्षुषे वर्तते यथा-रूपरसगन्धस्पर्शा इति। क्वचित्स्वभावे वर्तते यथा अनन्तरूपमनन्तस्वभावम् इति । -रूप शब्दके अनेक अर्थ है कहीपर चक्षुके द्वारा ग्राह्य शुक्लादि गुण भी है, जैसे-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श । कहीपर रूपका अर्थ स्वभाव भी है जेसे-अनन्तरूप अर्थात अनन्त स्वभाव । (और भो-दे० मूर्त/१) [ एककी संख्याको रूप कहते वसु. श्रा /४७२-४७५ आयास-फलिहसं णिह-तणुप्पहासलिल णिहिणि व्वुडत । णर-सुरतिरोडमणिकिरणसमूहर जियपयंबुरुहो ।४७२। वर अठ्ठपाडिहेरेहि परिउठो समवसरणमझगओ। परमपर्णतचउछयण्णिओ पवणमग्गट्ठो ।४७३। एरिसओच्चिय परिवारवज्जिओ खीरजल हिमज्झे वा। वरखीरवण्णकंदुत्थकण्णियामज्झदेसट्ठो।४७४। स्वीरुवाहसलिलधाराहिसेयधवलोकयंग सव्वगो। ज झाइज्जइ एवं रूवत्थं जाण तं झाण ।४७५१. आकाश और स्फटिक मणिके समान स्वच्छ एवं निर्मल अपने शरीर की प्रभारूपी सलिल-निधिमें निमग्न, मनुष्यो और देवोके मुकुटो में लगी हुई मणियों की किरणों के समूहसे अनुर जित है, चरणकमल जिनके, ऐसे तथा श्रेष्ठ आठ महा प्रातिहार्योसे परिवृत्त, समवशरणके मध्य में स्थित, परम अनन्त चतुष्टयसे समन्वित, पवन मार्गस्थ अर्थात् आकाशमें स्थित अरहन्त भगवान्का जो ध्यान किया जाता है, वह रूपस्थ ध्यान है ।४७१४७२६ ( ज्ञा/३/१-८), (गुण. श्रा./२४०-२४१) । २. अथवा ऐसे ही अर्थात् उपर्युक्त सर्व शोभासे समन्वित किन्तु समवशरण आदि परिवारसे रहित, और क्षीर सागरके मध्य में स्थित, अथवा उत्तम क्षीरसागरके समान धवल वर्ण के कमलकी कणिकाके मध्य देशमें स्थित, क्षीर सागरके जलकी धाराओके अभिषेकसे धवल हो रहा है सर्वाग जिनका, ऐसे अरहन्त परमेष्ठी का जो ध्यान किया जाता है, उसे रूपस्थ ध्यान जानना चाहिए ।४७२-४७४। ( गुण. श्रा/२४२)। ज्ञा./३६/१४ ३६, अनेकवस्तुसम्पूर्ण जगद्यस्य चराचरम् । स्फुरत्यविकलं बोधविशुद्धादर्शमण्डले ।१४। दिव्यपुष्पानकाशोकराजित रागवर्जितम् । प्रातिहार्य महालक्ष्मीलक्षित परमेश्वरम् ।२३। नवकेवललब्धिश्रीसभवं स्वात्मसभवम् । तूर्यध्यानमहावह्नौ हुतकर्मेन्धनोत्करम् ।२४। सर्वज्ञ सर्वई सार्व वर्धमान निरामयम् । नित्यमव्ययमव्यक्तं परिपूर्ण पुरातनम् ।३०। इत्यादि सान्वयानेकपुण्यनामोपलक्षितम् । स्मर सर्वगत देव वीरममरनायकम् ।३१। अनन्यशरण साक्षात्सत्सलीने कमानस' । तत्स्वरूपमवाप्नोति ध्यानी तन्मयता गत ।३२॥ तस्मिनिरन्तराभ्यास वशात्संजातनिश्चला । सर्वावस्थासु पश्यन्ति तमेव परमेष्ठिनम् ।३६। -१ हे मुने । तू आगे लिखे हुए प्रकारसे सर्वज्ञ देवका स्मरण कर - कि जिस सर्वज्ञ देवके ज्ञान रूप निर्मल दर्पणके मण्डल में अनेक वस्तुओसे भरा हुआ चराचर यह जगत् प्रकाशमान है ।१४। 'दिव्य पुष्पवृष्टि दुन्दुभि बाजो तथा अशोक वृक्षो सहित विराजमान है, राग रहित है, प्रातिहार्य महालक्ष्मीसे चिह्नित है, परम ऐश्वर्य करके सहित है ।२३। अनन्तज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, क्षायिक सम्वत्व और चारित्र इन नवल ब्धिरूपी लक्ष्मीकी जिससे उत्पत्ति है, तथा अपने आत्मासे हो उत्पन्न है, और शुक्लध्यानरूपी महान् अग्निमें होम दिया है र्मरूप इन्धनका समूह ऐसा है ।२।। सर्वज्ञ है, सबका दाता है, सर्व हितैषी है, वर्द्धमान है, निरामय है, प्र. सा./ता वृ/२०३/२७६/८ अन्तरङ्गशुद्धारमानुभूतिरूपक निर्ग्रन्थनिर्षिकार रूपमुच्यते। अन्तरंग शुद्धात्मानुभूतिकी द्योतक निग्रन्थ एवं निर्विकार साधुओकी वीतराग मुद्राको रूप कहते है। रूपगला चूलिका-द्वादशाग श्रुतज्ञानमे बारहवे अंगके उत्तर भेदोमेसे एक ।-दे० श्रुतज्ञान/IIII रूपचंद पांडेय-2, कवि बनारसी दासके गुरु थे। अध्ययन के लिए सलेमपुर से बनारस आये थे। कृति-परमार्थ दोहा शतक, गीत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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