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________________ राजीमति ४०१ रात्रि भोजन ४. अर्धमण्डलीक व मण्डलीकका लक्षण ति. ५/१/४६ दुसहस्समउडवद्ध भुवबसहो तत्थ अद्धमंडलिओ। चउराज- सहस्साणं अहिणाओ होइ मडलिओ।४६-जो दो हजार मुकुटबद्ध भूपों में प्रधान हो वह अर्धमण्डलीक है। और जो चार हजार राजाओंका अधिनाथ हो वह मण्डलीक कहलाता है।४६ (ध.१/१.१.१/गा. ४१/५७ ); (त्रि. सा./६८५) । ५. महामण्डलीकका लक्षण ति प./१/४२ अष्टसहस्रमहीपतिनायकमाहुबुंधा महामण्डलिकम् ।। -बुधजन आठ हजार राजाओके स्वामीको महामण्डलीक कहते है। (ध.१/१,१,१/गा. ४७/५७); (त्रि. सा./६८५)। * अर्धचक्रोव चक्रवर्तीका लक्षण-दे० शलाकापुरुष/४,२ । * कल्कि राजा-दे० करिक । राजीमति-भोजवंशियोंको राजपुत्री थी। नेमिनाथ भगवान के लिए निश्चित की गयी थी (ह. १/११/७२) विवाहके दिवस ही नेमिनाथ भगवान्की दीक्षापर अत्यन्त दुखी हई तथा स्वयं भी दीक्षा ग्रहण कर लो। (ह. पु./५/१३०-१३४) अन्तमें सोलहवे स्वर्ग में देव हुई। राजू-(ज.प./प्र/२३) Raju ts according to Colebrork the distance which a Deva flies in six months at the rate of 2,057,152 Yojans in on: क्षण i.c instant of time |-Quited by Von Glassnappın 'Der Jainismus'--Foot Note (Cosmology Old & New P. 105/. इस परिभाषाके अनुसार राजुका प्रमाण इस तरह निकाला जा सकता है- माह-(५४००००)xx३०४२४४६०. (दे० गणित/1/१/३)प्रतिविपलाश या क्षण। और-१ योजन-४५४५४५ मील (या क्रोशक) लेनेपर, ६. मासमें तय की हुई दूरी-४५४५४५४२०५७१७२४ ६५३०४२४४६०४५४०००० मील .:. एक राजु-(१३०८६६६६२ . )x (१०)२१ मील According G. R Jain.१ राजू-१४५x (१०)२१ मोल (डॉ० आइंस्टीनके सख्यात लोक त्रिज्या लेकर उसके अनुसार लोकके घनफलके आधारपर ) According to प. माधवाचार्य-१००० भारका गोला, इंद्रलोकसे नीचे गिरकर 6 मासमें जितनी दूर पहुँचे उस सम्पूर्ण लम्बाईको एक राजू कहते है। राजेन्द्र-चोल वंशी राजा था। समय-ई. १०६२-१०६३ ( जीव न्धर चम्पू (प्र./१३/A N. Up.)। राज्य-रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/५/१३ । राज्यवंश-१. ऐतिहासिक राज्यवंश-दे० इतिहास/३ । २. पौराणिक राज्यवंश-दे० इतिहास/७। राज्योत्तम-रुचक पर्वतस्थ एक कूट -दे० लोक/५/१३ । रात्रि-१. दिन व रात्रि प्रगट होनेका क्रम-३० ज्योतिष/२/८ । २ साधु रात्रिको अत्यन्त अल्म निद्रा लेते है -दे० निद्रा/२। ३. साधुके लिए रात्रिको कथंचित् बोलने की आज्ञा। -दे० अपवाद/३। रात्रिपूजा निषेध-दे० पूजा/५ । रात्रि भोजन-जैन आम्नायमें रात्रि भोजनमें प्रस हिसाका भारी दोष माना गया है। भले ही दोपक व चन्द्रमा आदि के प्रकाशमें आप भोजनको देख सके पर उसमें पड़ने वाले जीवों को नहीं बचा सकते। पाक्षिक श्रावक रात्रि भोजन त्याग वतको सापवाद पालते है, और छठी प्रतिमावाला निरपवाद पालता है। १. रात्रिभोजन त्याग व्रत निर्देश .. रात्रि मोजनका लक्षण ध. १२/४,२,८,७/२८२/१३ रत्तीए भोयण रादि भोयणं । -रात्रिमें भोजन सो रात्रि भोजन। .. साधुके योग्य आहार काल मू. आ./३५ उदयत्थमणे कालेणालीतियवज्जिय मज्झम्हि... ३५॥ -सूर्यके उदय व अस्त कालकी तीन घडी छोडकर इसके मध्य कालमे कोई भी समय आहार ग्रहण करनेका काल है। (अन.ध। १/१२): (आचारसार/१/२१)। रा, वा/७/१/१८/५३५/२ ज्ञानादित्यस्वेन्द्रियप्रकाशपरीक्षितमार्गेण युगमात्रपूपिक्षी देशकाले पर्यट्य यति भिक्षा शुद्धामुपाददीत इत्याचारोपदेश । न चायं विधि रात्रौ भवतीति चड्क्रमणाद्यसंभव । - ज्ञानसूर्य तथा इन्द्रियोंसे मार्गकी परीक्षा करके चार हाथ आगे देखकर यतिको योग्य देश कालमे शुद्ध भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए' यह आचारशास्त्रका उपदेश है। यह विधि रात्रिमें नहीं बनती, क्योकि रात्रिको गमन आदि नही हो सकता। अत रात्रि भोजनका निषेध किया जाता है। ३. श्रावकके योग्य आहार काल ला. स /५/२३४-२३५ काले पूर्वाहिके यावत्परतोऽपराहऽपि च । यामस्थाद्ध'न भोक्तव्यं निशाया चापि दुदिने २३४. याम मध्ये न भोक्तव्यं यामयुग्म न लघयेत् । आहारस्यास्त्यर्थ कालो नौषधादेजलस्य वा १२३३ -भोजनका समय दोपहरसे पहले-पहल है अथवा दोपहरके पश्चात् दिन ढलेका समय भी भोजनका है। अणुवती श्रावकोको सूर्य निक्लनेके पश्चात आधे पहर तक तथा सूर्य अस्तसे आधे पहर पहले भोजन कर लेना चाहिए। इसी प्रकार उन्हें रात्रिको, या जिस समय पानी बरस रहा हो अथवा काली घटा छानेमे अंधेरा हो गया हो उस समय भोजन नहीं करना चाहिए १२३४। अणुबती श्रावकोको पहले पहरमे भोजन नहीं करना चाहिए क्योकि वह मुनियोकी भिक्षाचर्याका समय नहीं है। तथा उन्हे दोपहरका समय भी नहीं टालना चाहिए उनके लिए सूर्योदयके पश्चात छह घण्टे बीत जानेपर भोजन करने का निषेध है, परन्तु औषध व जलके ग्रहण का नहीं।२३५॥ ४. रात्रि भोजन त्यागके अतिचार सा. ध /३/१५ मुहूर्तेऽन्त्ये तथाद्यऽहो, बल्भानस्तमिताशिन । गदच्छिदेऽप्याम्रघता- प्योगच दुष्यति ।१४ -रात्रि भोजन त्यागव्रतका पालन करने वाले श्रावकके दिनके अन्तिम और प्रथम मुहर्तमें भोजन करना तथा रोगको दूर करनेके लिए भी आम और धी वगैरहका सेवन करना अतिचारजनक होता है ।१५।। ५. रात्रि भोजन त्यागमें अन्य भी व्रतोंका अन्तर्भाव घ. १२/४.२.८८/२८३/१ जेणेद सुत्त देसमासिय तेणेत्थ महु मांस पचु बर विसण हुल्ल भक्खण सुरापान अवेलासणादीण पि जाणावरण पश्चयत्त, परुवेदव्य । -क्योकि यह सूत्र । रात्रि भोजन प्रत्ययसे ज्ञानावरणीय वेदना या बन्ध होता है ) देशामर्षक है अत उससे यहाँ गधु, मास, पंचदम्बर फल, निन्द्य भोजन और फूलाके भक्षण, मद्यपान तथा आसमयिक भोजन आदिको ज्ञानावरणीयका प्रत्यय बतलाना चाहिए। * रात्रि भोजनका हिंसामें अन्तर्माव-दे० हिंसा। * रात्रि भोजन त्याग छठा अणुव्रत है-देवत/३/४। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० ३-५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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