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________________ राजऋषि ४०० राजा समय प्रेमी जीके अनुसार वि.सं. १०३१-१०४० अर्थात ई १७४६८३ निश्चित है। (बाहुबलि चरित्र / श्लोक. ६, ११), (जै०/१/३६५)। ८. भोगोंकी आकांक्षाके अमावमें भी वह व्रतादि क्यों करता है प.ध/उ./५५४,-५७१ ननु कार्य मनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते । भोगाकाङ्क्षा बिना ज्ञानी तत्क्थ व्रतमाचरेत् । ५५४। नैव यत' सुसिद्ध प्रागस्ति चानिच्छत क्रिया।' शुभायाश्चाऽशुभायाश्च कोऽवशेषो विशेषभाक् ।।६१। पौरुषो न यथाकाम पुंस' कर्मोदित प्रति । न पर पौरुषापेक्षो देवापेक्षो हि पौरुष ।५७१ = प्रश्न-जन अज्ञानी पुरुष भी किसी कार्यके उद्देश्यके बिना प्रवृत्ति नही करता है, तो फिर ज्ञानी सम्यग्दृष्टि भोगोकी आकाक्षाके बिना व्रतो का आचरण क्यो करेगा। उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि यह पहले सिद्ध किया जा चुका है कि बिना इच्छाके ही सम्यग्दृष्टिके सत्र क्रियाएँ होती है। इसलिए उसके शुभ और अशुभ क्रियामे विशेषताको बतानेवाला क्या शेष रहा जाता है।५६१: उदयमे आनेवाले कर्म के प्रति जीवका इच्छानुकूल पुरुषार्थ कारण नहीं है क्यो। क पुरुषार्थ केवल पौरुषकी अपेक्षा नही रखता है किन्तु दैवकी अपेक्षा रखता है ।५७१। पं. /उ /७०६-७०७ ननु नेहा बिना कर्म कर्म नेहा बिना कचित् । तस्मानानो हित कर्म रयादक्षार्थस्तु वा न का ७०६। नैव हेतोरतिव्याप्तेरारादाक्षीण मोहिषु । बन्यस्य नित्यतापत्तेभवेन्मुक्तेर. सभव १७०७) प्रश्न-कही भी क्रिया के बिना इच्छा और इच्छाके बिना क्रिया नही होती। इसलिए इन्द्रियजन्य स्वार्थ रहो या न रहो किन्तु कोई भी क्रिया इच्छ के बिना नहीं हो सकती है। उत्तर-यह ठीक नहीं है, क्योकि उपरोक्त हेतुसे क्षीणकषाय और उसके समीपके गुणस्थानोमे उक्त लक्षणमे अतिव्याप्त दोष आता है। यदि उक्त गुणस्थानोमे भी क्रियाके सद्भावसे इच्छाका सद्भार माना जायेगा तो बन्धके नित्यत्वका प्रसग आनेसे मुक्ति होना भी असम्भव हो जायेगा । (और भी दे सवर/२/६) । राजऋषि-दे० ऋषि। राजकथा-दे० कथा। राजधानी-१ एक राजधानीमे आठ सौ गॉव होते है। (म पु। १६/१७५ ), २ चक्रवर्ती की राजधानीका स्वरूप-दे० शलाका पुरुष/२। राजपिड-दे० भिक्षा/३ । राजमति विप्रलंभ- आशाधर (ई ११७३-१२४३) द्वारा सस्कृत छन्दोमें रचित ग्रन्थ । राजमल्ल-१. मगध देशके विराट् नगरमें बादशाह अकबरके समयमें कविवर राजमल्लका निवास था। काष्ठासघी भट्टारक आम्नायके पण्डित थे। इसीसे इन्हे 'प बनारसीदास जी ने पाण्डे' कहा है। क्षेमकीर्तिके आम्नायमे भारु नामका वैश्य था। उसके चार पुत्र थे यथा-दूदा, ठाकुर, जागसी तिलोक। दूदाके तीन पुत्र थे-पोता, भोल्हा, और फामन। फामन एक समय विराट नगर में आया वहाँ एक तालहू नाम जैन विद्वान् से जो हेमचन्द्र चार्यकी आम्नायका था, कुछ धर्मको शिक्षा प्राप्त की। फिर वह कविराजके पास आया और इन्होंने उसकी प्रेरणासे लाटो सहिता लिखी। इसके अतिरिक्त समयसारकी अमृतचन्द्राचार्यकृत टीकाके ऊपर सुगम हिन्दी वचनिका, पचास्तिकाय टीका, पचाध्यायी, जम्बूस्वामी चरित्र, पिंगल, अध्यात्म कमलमार्तण्डकी रचना की। समय-वि १६३२१६५०. (ई. १५७५-१५६३), (ती/४/७७)। २ आप गंगवशीय राजा थे। राजा मारसिह के उत्तराधिकारी थे। चामुण्डराय जी आप होके मन्त्री थे। आपआचार्य सिहनन्दि व आचार्य अजितसेन दोनोंके शिष्य रहे है । आपका राजमल्ल सत्यवाक्य-इसके राज्य काल में ही आ० विद्यानन्दि नं.१ के द्वारा आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, युक्त्यानुशासन ये तीन ग्रन्थ लिखे गये थे। समय-ई. ८१६-८३० (सि. वि/३ षं. महेन्द्र)। राजवंश-दे० इतिहास/३ । राजवलि कथे-ई. १८३६ द्वारा रचित कथानुयोग विषयक कन्नड कृति। राजवातिक-आ० अकलंक भट्ट (ई ६२०-६८०) द्वारा सर्वाथसिद्धिपर को गयी विस्तृत सस्कृत वृति है। इसमें सर्वार्थ सिद्धिके वाक्यो को वार्तिक रूपसे ग्रहण करके उनकी टीका की गयी है। यह ग्रन्थ ज्ञे सार्थ से भरपूर्ण है। यदि इसे दिगम्बर जैन आम्नायका कोष कहे तो अतिशयोक्ति न होगी। इसपर प पन्नालाल (ई १७६३ १८६३ ) कृत भाषा वनिका उपलब्ध है। राजशेखर-आप एक कवि थे। आपने वि.६६० कर्पूर मजरीकी रचना की थी। (धर्म शर्माभ्युदय/प्र १६/५ पन्नालाल )। राजसदान-दे० दान । राजीसह-एक बहुत बडा मल्ल था। इसने मल्लयुद्धमें सुमित्र नामक मल्लको जीत लिया। (म पु/६१/५६-६०) यह मधुकीड प्रतिनारायणका दूरवर्ती पूर्व भव है।-दे० मधुक्रीड। राजाध १/१,१,१/गा. ३६/५७ अष्टादशसख्याना श्रेणीनामधिपतिविनम्राणाम् । राजा स्पान्मुकुटधर कल्पतरु सेवमानानाम् ३६।जो नम्रोभूत अठारह श्रेणियोका अधिपति हो, मुकुटको धारण करनेवाला हो और सेवा करनेवालोके लिए कल्पवृक्षके समान हो उसको राजा कहते हैं। (त्रि. सा/६८४)। भ आ /वि./४२१/६१३/१६ राज शब्देन इक्ष्वाकुप्रभृतिकुले जाता। राजते प्रकृति र जयति इति वा राजा राजसदृशो महद्धिको भण्यते । - इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश इत्यादि कुल में जो उत्पन्न हुआ है, जो प्रजाका पालन करना, उनको दुष्टोंसे रक्षण करना इत्यादि उपायोसे अनुर जन करता है उसको राजा कहते है। राजाके समान जो महद्विका धारक है उसको भी राजा कहते है। २. राजाके भेद (अर्धमण्डलीक, मण्डलीक, महामण्डलीक, राजाधिारज, महाराजाधिराज तथा परमेश्वरादि ): (ध, १११,१,१/५६/७ का भावार्थ), (राजा, अधीश्वर, महाराज, अर्थमण्डलोक, मण्डलीक, महामण्डलीक, त्रिखण्डाधिपति तथा चक्री आदि), (ध १/११२/गा ३७-४३ ५७-५८)। ३. अधिराज व महाराजका लक्षण ति ५/१/४५ पंचसयरायसामी अहिराजो होदि कित्तिभरिददिसो। रायाण जो सहस्सं पालइ सो होदि महाराजो ॥४५॥जो पाँच सौ राजाओंका स्वामी हो वह अधिराज है। उसकी कीर्ति सारी दिशाओं में फैली रहती है। जो एक हजार राजाओंका पालन करता है वह महाराज है ।४।।(ध. ११.१/गा.४०/५७), (त्रि. सा./६८४)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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