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________________ युक्त S युक्त-५.सि./५/३०/३०१/९ समाधिमनो वा युक्तन्दः । युक्त समाहितस्तदात्मक इत्यर्थ । यह युक्त शब्द समाधिवाची है। भाव यह है कि युक्त, समाहित और तदात्मक ये तीनों एकार्थवाची शब्द है । युक्तानन्त दे० अनन्त । यक्तासंख्यात० संस्थात युक्ति-दे० तर्क युक्ति चितामणि सस्य आ. सोमवेन (६.६४-६६) न्याय विषयक ग्रन्थ । युक्त्यनुशासन- आ. समन्तभद्र (ई. श. २) कृत संस्कृत छन्दो में रचा गया ग्रन्थ है। इसमें न्याय व युक्तिपूर्वक जिनशासनकी स्थापना की है। इसमें ६४ श्लोक है । (ती./ २ / ११० ) । इसपर पीछे या विद्यानन्द (ई. ७०५-०४०) द्वारा अनुशासनास कार नामको वृत्ति लिखी गयी है (ती २/२६५) युग-१, दो कोका एक युग होता है। २ युगका प्रारम्भ-० काल/४३ कृतयुग या कर्मभूमिका प्रारम्भ २०/४४. क्षेत्रका प्रमाण विशेष । अपरनाम दण्ड, मुसल, नाली-दे० गणित /I / १/३ ५. कालका प्रमाण विशेष । ६. दे० गणित / I /९/४ । ३७३ युग - १४/५.६.४९/१८/१ गरुपेण महात्मे य जंतुरय बेसरादीहि दुन्मदि से जुग नाम हो बहुत भारी होनेसे और बहुत बड़े होनेसे घोडा और खच्चर आदिके द्वारा ढोया जाता है, वह युग कहलाता है। युगकंधराएक अतिचार-३० सर्ग / १ । युगपत् स्वा./११/२००/- या तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिर भेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते तदेकेनापि शब्देनैकधर्म प्रत्यायनमुखेन तदात्मकता मापन्नस्यानेका शेषधर्मरूपस्य वस्तुनः प्रतिपादनसम्भवाद् यौगपथस् जिस समय वस्तु अनेक धर्मोका कास आदिसे अभेद सिद्ध करना होता है, उस समय एक शब्दसे यद्यपि वस्तु के एक धर्मका ज्ञान होता है, परन्तु एक शब्दसे ज्ञात इस एक धर्म के द्वारा ही पदार्थोंके अनेक चौका ज्ञान होता है। इसे वस्तुका एक साथ ( युगपत् ) ज्ञान होना कहते है । ( स. भं, त० / ३३/३) । युगादिपुरुष युगके आदि होनेसे लकरको ही युगादिपुरुष कहते है । ये मुख्यतः १४ होते है । इन १४ कुलकरोका परिचय - दे० ० शलाका पुरुष / ६ । --- युग्म - च, १० / ४,२,४,३/२२/३ जुम्मं सममिदि एमोस दुहिं दमादम्भेण तत्थ जो रासी चहि अहिदि सो द जुम्मो जो रासी चहि अवहिनिमाणो दोषो होदि सो बादरजुम्म । युग्म और सम ये एकार्थवाचक शब्द है । वह कृतयुग्म और बादरयुग्मके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें से जो राशि पारसे अपहृत होती है वह कृतयुग्म कहलाती है। जिस राशिको चार अवत करने पर दो रूप ( २ ) शेष रहते हैं वह बादरयुग्म कहलाती है । युग्मचतुष्टयदे अनेकान्त / ४ | युत सिद्ध काता../२०/११/ दण्ड प्रणयुद्धाय और इण्डीकी भाँति प्रदेश भिन्न है जिसका वह सिद्ध कहलाता है । * द्रव्य गुण व पर्याय त सिद्ध है - २००४ Jain Education International योग युति ध. १३/५,५,८२/३४८/१ सामीप्यं संयोगो वा युति । समीपता या संयोगका नाम युति है । २. युतिके भेद १२/२/४/तिविहा जीवजुडी पोगबुडी जीव-योग्गली दिसते गामय मिले गृहाए अडईए जीवाणं मेलणं जीवजुडी णाम । वारण हिडिजमाणपण्णाणं व एक्कम्हि देसे पोग्गलाणं मेलणं पोग्गलजुडी णाम । जीवाणं पोग्गसा च मेलन जीवनगड नाम अथवा दयी जीवयोग्गल धम्माधम्मकालागासा मेगादि उप्पादेदव्वा । जीवादि दव्त्राणं णिरयादिखेत्ते हि सह मेलण खेत्तजुडी णाम । तेसि चेन दव्वाण दिवस-मासवारादिकाहि सह मेलणं कालजुडी णाम । कोह- माण- माया लोहादीहि सह मेलणं भावजुडी नाम यहाँ द्रव्य युति तीन प्रकार की है जीवति गलति और जीव- इनमे से एक कुल ग्राम, नगर, fee गुफा या अजीबोका मिलना जीवति है वायुके कारण हिलनेवाले पत्तोंके समान एक स्थानपर पुद्गलोका मिलना पुद्गलयुति है। जीव और पुद्गलोका मिलना जीव- पुद्गल युति है। अथवा जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश इनके एक आदि सयोगके द्वारा द्रव्य-युति उत्पन्न करानी चाहिए। २. जीवादि इक्योंका नारकादि क्षेत्रोंके साथ मिलना क्षेत्र- पुति है। ३. उन्ही द्रव्योका दिन, महीना और वर्ष आदि कालोंके साथ मिलाप होना काति है ४ क्रोध, मान, माया और सोभादिके साथ उनका मिलाप होना भावयुति है । " ३. युति व बन्धमें अन्तर ध. १३/५५,८२ / ३४८/६ युति बन्धयोः को विशेषः । एकीभावो बन्ध.. सामीप्यं संयोगो वा युति. । - प्रश्न- युति और बन्ध में क्या भेद है उधर एकीभाग का नाम बम्ध है और समीपता या संयोगका नाम युति है। युधिष्ठिर - प. पू. /सर्ग नं. / श्लोक नं. पूर्व के दूसरे भव में सोमदत्त नामका ब्राह्मण पुत्र था (२१/८१) पूर्व भव में आरण स्वर्ग में देव था (२२/११२) वर्तमान में पाण्डु राजाका कुन्ती रानी से पुत्र या ( ८ / १४३ : २४ /७४ ) अपने ताऊ भीष्न व गुरु द्रोणाचार्य से क्रमसे शिक्षा न धनुर्विद्या प्राप्त की (०/२००-२१४) प्रयास कामे अनेकों कन्याओसे विवाह किया ( १३/३३, १३/१६० ) । दुर्योधनके साथ जुए में हारने पर १२ वर्ष का वनवास मिला ( १६ / १०४ - १२५ ) । न मुनियोंके दर्शन होने पर स्व निन्दा की ( १७/४ ) । अन्तमें अपने पूर्व भव सुनकर दीक्षा ग्रहण की ( २५/१२ ) । तथा घोर तप किया (२६/१०-३१) दुर्योधनके भान कुर्यधर उपसर्गको जीत मोक्ष प्राप्त किया (२५/५२-१३३ ) ( विशेष दे० पाण्डब ) युवती १४०२ युवेनच्वांग - एक चीनी यात्री था. २१-६४ मे भारतकी यात्रा की (सि.वि./१०/०. महेन्द्र) यूक अपरनाम जु। क्षेत्रका प्रमाण - दे० गणित / I / १ । यूनान - वर्तमान ग्रीक ( ग्रीस ), ( म पु / प्र ५० / पं. पन्नालाल ) योग-संयोग कारण जनके प्रदेशोका परिस्पन्दन योग कहलाता है अथवा मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिके प्रति जीवका उपयोग या प्रयत्न विशेष योग कहलाता है, जो एक होता हुआ भी मन, वचन आदिके निमित्त की अपेक्षा तीन या पन्द्रह प्रकार का है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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