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________________ यश * अन्य सम्बन्धित विषय १. यशःकीर्तिको बन्ध उदय व सत्त्व प्ररूपणाएं व तत्सम्बन्धी शका-समाधानादि । - दे० वह वह नाम । २. अयशःकीर्तिका तीर्थकर प्रकृति के साथ कन् न तत्सम्बन्धी शंका | -३० प्रकृति ५ । यश-रूपक पर्वतस्य एक०/२/१३ यशस्तिलकचम्पू यशपाल - अपरनाम जयपाल था । अत दे० जयपाल । यशस्तिलकचंद्रिका सोमदेव कृत यशस्तिलक चम्पू की श्रुतसागर (ई. १४८०-१४६६) कृत संस्कृत टीका । (ती./३/३१४) । आ. सोमदेव द्वारा ई ५५६ में रचित संस्कृत भाषा चम्पू काव्य जिसमें यशोधर महाराज का जीवन चित्रित किया गया है। (ती./२/८३) १ (जै /४२७) । यशस्वान् १. वर्तमान कालीन नवमें कुलर हुए है (विशेष दे० शलाका पुरुष / १ ), २. किपुरुष नामा जाति व्यन्तर देवका एक भेद० किपुरुष । यशस्वान् देव - -मानुषोत्तर पर्वतस्थ वैडूर्य कूटका भवनवासी सुपर्णकुमार देव - दे० लोक / ५ /१० । यशस्विनी- - रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी- दे०लोक ५/१३ कुलकरका अपरनाम है - दे० यशस्वी - वर्तमानकालीन हवे -- - यशस्वात् । - यशोदेवमवास्तिक लम्पूके नेमिदेव के गुरु थे । सोमदेव के (६० ६१०-१४३) (मी सा./ यशोधर- १. भूतकालीन उन्नीसवें तीर्थंकर-दे० तीर्थंकर /५ । २. नाचतु० /३२. मानुषोउत्तर पर्वतस्थ सौगन्धिक कूटका स्वामी भवनवासी सुपणकुमार देव । -दे० लोक/२/२०१ Jain Education International कर्ता सोमदेव के दादा गुरु और अनुसार इनका समय - ई. श. १० श्रीसा) । यशोधर चरित्र - इस विषय के कई संस्कृत भाषा में रचित ग्रन्थ हैं। १. वादिराज द्वि (ई. १०१० -१०६५) कृत (ती./२/१००)। २. कबि पद्मनाभ (ई. १४०५-१४२५) कृत (सी. /४/५६) । ३. सक्ल कीर्ति (ई. १४०६ - १४४२) कृत (ती./३/३३१) । ४ सोमकीर्ति (ई. १४६१) कृत (तो./३/३४०)। घुतसागर (ई. १४८०-१४६१) कृत (ती / ३ /४००)। ज्ञानकीर्ति (१६०२) कृत (ती/४/२६) । यशोधरचरित्र । ६. आ० श्रुतसागर (ई. १४७३-१५३३ ) कृत यशोधरचरित्र । यशोधरा पर्वत निवासिनी दिवकुमारी देवी ३० लोक ५११२ यशोधर्मदेष्णुशोधर्म यशोनंदि - नन्दिसघबलात्कारगणकी गुर्वावली के अनुसार आप यश कीर्तिके शिष्य तथा देवनन्दिके गुरु थे। समय- श. स. २११२५० (३०२८-३३६) ३० इतिहास / ०/२ । यशोबाहु—दे० भद्रबाहु । यशोभद्र- १. श्रुतवली भद्रबाहु द्वि गुरु 8 अ गधारी अथवा आचारांगधारी । समय-विनि ४७४-४६२ (ई पू. ५६-३५) । (दे, इतिहास/४/४२ जिनसे (१८१८-१८) के आदि पुराण में प्रस्नर तार्किक के रूप में स्मृत और आ. पूज्यपाद (वि. श. ५-६ ) के जैनेन्द्र व्याकरण में नामोल्लेख अत समय-वि. श ६ (ई. श. ५ उत्तरार्ध) (ती./२/४३१)। 1 २७२ यावानुद्दश यशोभद्रालोक / ५ /११ । "नन्दीश्वरद्वीपकी उत्तर दिशामें स्थित एक वापी-दे० यशोरथ -- उज्जयिनी नगरीका राजा था। पुत्रकी मृत्युपर विरक्त हो दीक्षा धारण की क को/कथा २/५. १५-१६) । यशोवर्मा - 1 भोजवंश में यह नरवर्माके पुत्र और अजयवर्माके पिता थे । मालवा (मगध ) देशके राजा थे । समय- ई० ११४३-११५३ -३० इतिहास /२/४ यशोविजय श्वेताम्बर सभा के प्रसिद्ध उपाध्याय हुए हैं। गुरु परम्परा-बादशाह अकबर के प्रतिबोधक हरिविजय, कल्याणविजय, लाभविजय यशोविजय। आपने दिगम्बर मान्य निश्चय नय की घोर भर्त्सना की है, परन्तु अपनी रचनाओं में समयसार का खूप अनुसरण किया है। कृतिले अध्यात्मसार, अध्यायोपनिषद आध्यात्मिक मत खण्डन, नय रहस्य, नय प्रदीप, नयोपदेश, जैन सर्फ परिभाषा ज्ञान बिन्दु शास्त्रवार्ता समुच्चय टीका, देवधर्म परीक्षा, यतिलक्षण समुच्चय, गुरुतत्व विनिश्चय, अष्टसहस्रौ विवरण, स्याद्वाद मञ्जरी की वृत्ति स्याद्वाद् मञ्ज ूषा, जय विलास (भाषापद संग्रह), दिग्पट चौरासी (दिगम्बराम्नायकी मान्यताओं पर आक्षेप) इत्यादि अनेकों ग्रन्थ आपने रचे हैं। समय- ई. १६३८१६८८ । (जै./२/२०४-२०५) । " याग - दे० यज्ञ । याज्ञिकमत गो. जी / जी प्र / ६८/१७८/६ संसारिजीवस्य मुक्तिमस्ति संसारी जीवकी कभी मुक्ति नहीं होती है, ऐसा याज्ञिकमवा मानते है। याचना याचनाका कथंचित् विधिनिषेध - दे० भिक्षा / १ | याचना परिषहस सि /६/१/४२५/१ बाह्याभ्यन्तरतपोऽनुष्ठान परस्य भावनाले निस्तारीत पतनतापनिपीतसारतरोरिव विरहितच्छायस्य त्वगस्थिशिराजाल मात्रतनुयन्त्रस्य प्राणारमये सध्यप्याहारवसतिभेषजानि दीनाभिधानमुने वयशादिभिरयाचमानस्य भिक्षाकालेऽपि विद्योत दुरुपय चनापरिषहसहनमवसीयते । - जो बाह्य और आभ्यन्तर तपके अनुष्ठान करनेमें तत्पर है, जिसने तपकी भावनाके कारण अपने शरीरको सुखा डाला है, जिसका तीक्ष्ण सूर्य के ताप के कारण सार व छाया रहित वृक्षके समान त्वचा, अस्थि और शिराजाल मात्र से युक्त शरीरयन्त्र रह गया है, जो प्राणो का वियोग होनेपर भी आहार, वसति और दवाई आदिको दीन शब्द कहकर, मुखकी विवर्णता दिखाकर व संज्ञा आदिके द्वारा याचना नहीं करता, तथा भिक्षाके समय भी जिसकी मूर्ति की चमके समान रुपलक्ष्य रहती है, ऐसे साधुके याचना परिजय जानना चाहिए (रा. वा // ६ / ११ / ६१९ / १०) (चा. सा./१२२/२) । याचनीभाषा - दे० भाषा । यादव वंश इतिहास /१०/१० यान, १४/५.६.३१/३/विभिदेहि बारिया संता जे गमणक्खमा वोहित्ता ते जाणा णाम । नाना प्रकार के माण्डो से आपूरित होकर भी समुद्र में गमन करनेमें समर्थ जो जहाज होते है वे यान कहते है। यापनीय संघ - दे० याम - Coordinates (ज. प./प्र / १०८ ) । यावानुद्देश जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only "उद्दिष्ट आहारका एक दोष । दे० उद्दिष्ट । www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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