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________________ मिथ्यादर्शन मिथ्यादृष्टि बो. पा /पं. जयचन्द/६०/१५२/७ गृहस्थकै महापाप मिथ्यात्वका सेवना अन्याय ..आदि ये महापाप है। मो. मा.प्र./८/३६३/३ मिथ्यात्व समान अन्य पाप नाही है। अन्य सम्बन्धित विषय १. मिथ्यादर्शनमें 'दर्शन' शब्दका महत्त्व-दे०सम्यग्दर्शन/I/५/५। २. एकान्तादि पाँचों मिथ्यात्व -दे० वह वह नाम । ३. मिथ्यादर्शन औदयिक भाव है तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान -दे० उदय/ह। ४. पुरुषार्थसे मिथ्यात्वका भी क्षणभरमें नाश सम्भव है। -दे० पुरुषार्थ/२। किन्तु मिथ्यात्व पाँच प्रकारका है यह कहना उपलक्षण मात्र समझना चाहिए। न. च वृ./३०३ मिच्छत्त पुण दुविहं मूढत्तं तह सहावणिरवेव। मिथ्यात्व दो प्रकारका है। -मूढ व स्वभाव निरपेक्ष । ३. गृहीत व अगृहीत मिथ्यात्वके लक्षण स. सि./८/१/३७५/१ तत्रोपदेशमन्तरेण मिथ्यात्वकर्मोदयवशाद् यदाविर्भवति तत्त्वार्थाश्रद्धानलक्षणं तन्नैसर्गिकम् । परोपदेशनिमित्तं चतुर्विधम् । -जो परोपदेशके बिना मिथ्यादर्शन कर्मके उदयसे जीवादि पदार्थोका अश्रद्धानरूप भाव होता है, वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है। परोपदेश निमित्तक मिथ्यादर्शन चार प्रकारका है। (रा.वा/८/१/७-८/५६१/२६) । भ. आ./वि /५६/१८०/२२ यद्देशाभिमुख्येन गृहीतं स्वीकृतम् अश्रद्धानं अभिगृहीतमुच्यते यदा परस्य वचनं श्रुत्वा जीवादीनां सत्त्वे अनेकान्तात्मकत्वे चोपजातम् अश्रद्धानं अरुचिमिथ्यात्ममिति । परोपदेशं बिनापि मिथ्यात्वोदयादुपजायते यदश्रद्धानं तदनभिगृहीत मिथ्यात्वम् ।- ( जीवादितत्त्व नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, See इत्यादि रूप ) दूसरोका उपदेश सुनकर जीवादिकोंके अस्तित्व में अथवा उनके धर्मों में अश्रद्धा होती है, यह अभिगृहीत मिथ्यात्व है और दूसरेके उपदेशके बिना ही जो अश्रद्धान मिथ्यात्व कर्मके उदयसे हो जाता है वह अनभिगृहीत मिथ्यात्व है। (पं. ध /उ /१०४६१०५०)। ४. मिथ्यात्वकी सिद्धि में हेतु ६. ध उ /१०३३ १०३४ ततो न्यायगतो जन्तोमिथ्याभावो निसर्गतः। दृड्मोहस्योदयादेव वर्त्तते वा प्रवाहवत् ११०३३. कार्य तदुदयस्योच्चैः प्रत्यक्षात्सिद्धमेव यत् । स्वरूपानुपलब्धिः स्यादन्यथा कथमात्मन- ११०३४। इसलिए न्यायानुसार यह बात सिद्ध होती है कि जीवोके मिथ्यात्व स्वभावसे ही दर्शनमोहके उदयसे प्रवाहके समान सदा पाया जाता है ।१०३३। और मिथ्यात्वके उदयका कार्य भी भली भाँति स्वसंवेदन द्वारा प्रत्यक्ष सिद्ध है, क्योकि अन्यथा आत्मस्वरूपकी उपलब्धि जीवोको क्यों न होती ।१०३४॥ ५. मिव्यात्व सबसे बड़ा पाप है र, क. श्रा./३४ अश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् । - शरीरधारी जीवोको मिथ्यात्वके समान अन्य कुछ अकल्याणकारी मिथ्यावर्शन क्रिया-दे० क्रिया/३/२ । मिथ्यादर्शन वचन-दे० वचन । मिथ्यादर्शन शल्य-दे० शल्य । मिथ्यादाष्ट्र-आत्म भानसे शन्य बाह्य जगव में ही अपना समस्त पुरुषार्थ उडेल कर जीवन विनष्ट करनेवाले सर्व लौकिक जन मिथ्यादृष्टि. बहिरात्मदृष्टि या पर समय कहलाते हैं। अभिप्रायकी विपरीतताके कारण उनका समस्त धर्म कर्म व वैराग्यादि अकिंचित्कर व ससारवर्धक है। सम्यग्दृष्टिकी क्रियाएँ बाहरमें उनके समान होत हुए भी अन्तरंगकी विचित्रताके कारण कुछ अन्य ही रूप होती है। भेद व लक्षण मिथ्यादृष्टि सामान्यका लक्षण १. विपरीत श्रद्धान। २. पर द्रव्य रत। परद्रव्यको अपना कहनेसे अशानी कैसे हो जाता है ? -दे० नय/VI८/३ । । कुदेव कुगुरु कुधर्मको विनयादि सम्बन्धी -दे० विनय/४। मिथ्यादृष्टिके भेद। सातिशय व धातायुष्क मिथ्यादृष्टि । मिथ्यादृष्टि साधु । -दे० साधु/४,५। अधिककाल मिथ्यात्वयुक्त रहनेपर सादि भी मिथ्यादृष्टि अनादिवत् हो जाता है -दे० सम्यग्दर्शन/IVIRVE मिथ्यादृष्टि निर्देश गो. जी./मू /६२३ मिच्छाइट्टी पावा ताण ता य सासणगुणा वि। ___-मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि ये दोनों पाप अर्थात पाप जीव है। स. सा./२००/क १३७ आलम्बन्ता समितिपरता ते यतोऽद्यापि पापा । आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ता' ।-भले ही महाव्रतादिका आलम्बन करे या समितियोकी उत्कृष्टताका आश्रय करें तथापि वे पापी ही है, क्योकि वे आत्मा और अनात्माके ज्ञानसे रहित होनेसे सम्यक्त्वसे रहित है। स. सा /आ/२००/क. १३७ । पं. जयचन्द =प्रश्न-वत समिति शुभ कार्य है, तब फिर उनका पालन करते हुए भी उस जीवको पापी क्यो कहा गया। उत्तर-सिद्धान्तमें मिथ्यात्वको ही पाप कहा गया है; जबतक मिथ्यात्व रहता है तबतक शुभाशुभ सर्व क्रियाओको अध्यात्ममें परमार्थत पाप ही कहा जाता है, और व्यवहारनयको प्रधानतामें व्यवहारी जीवोको अशुभसे छुडाकर शुभमें लगानेकी शुभ क्रियाको कथंचित् पुण्य भी कहा जाता है ऐसा कहने से स्याद्वादमतमें कोई विरोध नही है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें जीवसमास, मार्गणा स्थान आदिके स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ -दे० सत। मिथ्यादृष्टियोंकी सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव अल्पबहुत्व रूष ८ प्ररूपणाएँ-दे० बह वह नाम । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें कर्मोंकी बन्ध उदय सत्त्व सम्बन्धी प्ररूपणाएँ -दे० वह-वह नाम । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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