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________________ मिथ्या ज्ञान मिथ्यादर्शन ३०० मिथ्या ज्ञान-दे०ज्ञान/III मिथ्यात्व-दे० मिथ्यादर्शन । मिथ्यात्व कर्म-दे० मोहनीय । मिथ्यात्वक्रिया-दे० क्रिया/३/२ । मिथ्यादर्शन-स्वात्म तत्वसे अपरिचित लौकिक जन शरीर, धन, पुत्र, स्त्री आदिमें ही स्व व मेरापना तथा इष्टानिष्टपना मानता है, और तदनुसार ही प्रवृनि करता है। इसीलिए उसके अभिप्राय या रुचिको मिथ्यादर्शन कहते हैं। गृहीत, अगृहीत, एकान्त, सशय, अज्ञान आदिके भेदसे वह अनेक प्रकारका है। इनमें साम्प्रदायिकता गृहीत मिथ्यात्व है और पक्षपात एकान्त मिथ्यात्व । सब भेदोमे ये दोनो ही अत्यन्त घातक व प्रबल है। 1. मिथ्या दर्शन सामान्यका लक्षण १. तत्त्व विषयक विपरीत अभिनिवेश भ. आ /मू /५६/१८० त मिच्छत्तं जमसदहणं तञ्चाण होइ अस्थाणं । --जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान न करना मिथ्यादर्शन है। (पं. सं./ प्रा./२/७), (ध १/१,९,१०/गा. १०७/१६३ )। १. सि./२/६/११६/७ मिथ्यादर्शनकर्मण उदयात्तत्त्वार्थाश्रद्धानपरिणामो मिध्यादर्शनम् । = मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जो तत्त्वोका अश्रद्धान रूप परिणाम होता है वह मिथ्यादर्शन है। (रा. वा/२/६/४/१०६/५); (गो जी./मू १५/३६); (और भो दे० मिथ्यादृष्टि/१) । स. वि /मूलवृत्ति/४/११/२७०/११ जीवादितत्त्वार्थाश्रद्धानं मिथ्यादर्शनम् । जीवे तावन्नास्तिक्यम् अन्यत्र जीवाभिमानश्च, मिथ्यादृष्टे. द्वैविध्यानतिक्रमात विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिर्वेति । =जीवादि तत्त्वोंमें अश्रद्धान होना मिथ्यादर्शन है। वह दो प्रकारका है-जीवके नास्तिक्य भावरूप और अन्य पदार्थ में जीवके अभिमान रूप। क्योकि, मिथ्यादृष्टि दो प्रकारको ही हो सकती है। या तो विप रीत ज्ञानरूप होगी और या अज्ञान रूप होगी। न. च. वृ/३०३-३०५ मिच्छत्त पुण दुविह मृढत्तं तह सहावणिरवेक्व । तस्सोदयेण जीवो विवरीद गेहणए तच्च ।३०३। अस्थित्तं णो मण्णदि णत्यिसहावस्स जो हु सावेरखं । जत्थी विय तह दवे मूढो मूढो दु सवत्थ ।३०४। मूढो विय मुदहे, सहावणिरवेवखरूवदो होदि । अलहंतो खवणादी मिच्छापयडी खलु उदये ॥३०॥ -मिथ्यात्व दो प्रकारका है-मूढत्व और स्वभाव निरपेक्ष । उसके उदयसे जीव तत्त्वोको विपरीत रूपसे ग्रहण करता है ।३०३। जो नास्तित्वसे सापेक्ष अस्तित्वको अथवा अस्तित्वसे सापेक्ष नास्तित्वको नही मानता है वह द्रव्य मूढ होनेके कारण सर्वत्र मूढ है ।३०४। तथा श्रुतके हेतुसे होनेवाला मिथ्यात्व स्वभाव निरपेक्ष होता है। मिथ्या प्रकृतियोके उदयके कारण वह क्षपण आदि भावोको प्राप्त नही होता है ।३०॥ ने. सा./ता. वृ./६१ भगवदह त्परमेश्वरमार्गप्रतिकूलमार्गाभासमार्गश्रद्धानं मिथ्यादर्शन । -भगवान् अर्हन्त परमेश्वरके मार्गसे प्रतिकूल मार्गाभासमें मार्गका श्रद्धान मिथ्यादर्शन है। स्या, मं /३२/३४१/२३ पर उद्धृत हेमचन्द्रकृत योगशास्त्रका श्लोक नं.२-"अदेव देवबुद्धिर्या गुरुधीरगुरौ च या। अधर्मे धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात। -अदेवको देव, अगुरुको गुरु और अधर्मको धर्म मानना मिथ्यात्व है, क्योंकि वह विपरीत रूप है। (प. ध/उ./१०५१)। स. सा./ता, बृ /८८/१४४/१० विपरीताभिनिवेशोपयोगविकाररूप शुद्धजोवादिपदार्थ विषये विपरीतश्रद्धानं मिथ्यात्वमिति। -विप रीत अभिनिवेशके उपयोग विकाररूप जो शुद्ध जीवादि पदार्थोके विषयमे विपरीत श्रद्धान होता है उसे मिथ्यात्व कहते है । (द्र स./ टो./४८/२०५/६)। २ शुद्धात्म विमुखता नि, सा./ता. बृ./१ स्वात्मश्रद्धान विमुखत्वमेव मिथ्यादर्शन...। -निज आत्माके श्रद्वानरूपसे विमुखता मिथ्यादर्शन है। द्र. स /टो /३०/८८/१ अभ्यन्तरे वीतरागनिजात्मतत्त्वानुभूतिरुचिविषये विपरीताभिनिवेशजनकं, बहिर्विषये तु परकीयशुद्धात्मतत्त्वप्रभृतिसमस्तद्रव्येषु विपरीताभिनिवेशोत्पादक च मिथ्यात्वं भण्यते। -- अन्तर गमे वीतराग निजात्मतत्त्व के अनुभवरूप रुचि में विपरीत अभिप्राय उत्पन्न करानेवाला तथा बाहरी विषयमें अन्यके शुद्ध आत्म तत्त्व आदि समस्त द्रव्योमें जो विपरीत अभिप्रायका उत्पन्न करानेवाला है उसे मिथ्यात्व कहते है। द्र स/टी./४२/१८३/१० निरञ्जन निदोषपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपसम्यक्त्वाद्विलक्षणं मिथ्याशव्य भण्यते । -अपना निरंजन व निर्दोष परमात्मतत्त्व हो उपादेय है, इस प्रकारकी रुचिरूप सम्यक्त्वसे विपरीतको मिथ्या शत्य कहते है। २. मिथ्यादर्शनके भेद भ. आ./मू./५६/१८० संसइयमभिग्गयिं अणभिग्गहियं च तं तिविह। = वह मिथ्यात्व संशय, अभिगृहीत और अनभिगृहीतके भेदसे तीन प्रकारका है । (ध. १/१,१,६/गा. १०७/१६३)। बा.अ./४८ एयंतविणयविवरियससयमणाणमिदि हवे पच। मिथ्यात्व पाँच प्रकारका है-एकान्त, विनय, विपरीत, सशय और अज्ञान । (स. सि./८/१/३७५/३), (रा वा /८/१/२८/५६४/१७), (ध ८३, ६/२), (गो. जो./मू/१५/३६); (त. सा./५/३), (द, सा/५), (द्र, स./टी./३०/८१/१ पर उधृत गा.)। स सि./८/१/३७५/१ मिथ्यादर्शनं द्विविधम्, नैसर्गिक परोपदेशपूर्वक च। परोपदेशनिमित्त चतुर्विधम्, क्रियाक्रियागद्यज्ञानिकवैनयिकविकल्पाव । -मिध्यादर्शन दो प्रकारका है-नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक । परोपदेश-निमित्तक मिथ्यादर्शन चार प्रकारका हैक्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी व वैनयिक । (रा वा/८/१/६, ८/५६९/२७)। रा बा./८/१/१२/१६२/१२ त एते मिथ्योपदेशभेदा' त्रीणि शतानि त्रिषष्ट्यत्तराणि । रा. वा/८/१/२०/५६४/१४ एव परोपदेशनिमित्त मिथ्यादर्शन विकल्पा अन्ये च संख्येया योज्या ऊह्या , परिणामविकल्पात असख्येयाश्च भवन्ति, अनन्ताश्च अनुभागभेदात् । यन्नैसर्गिक मिथ्यादर्शन तदप्येकद्वित्रिचतुरिन्द्रियास ज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यम्लेच्छ शवर पुलिन्दादिपरिग्रहादनेकविधम् । = इस तरह कुल ३६३ मिथ्यामतवाद है। (दे० एकान्त/५)। इस प्रकार परोपदेशनिमित्तक मिथ्यादर्शनके अन्य भी संख्यात विकल्प होते है। इसके परिणामोकी दृष्टिसे असंख्यात और अणुभागकी दृष्टिसे अनन्त भी भेद होते है। नैसगिक मिध्यादर्शन भी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय, तिर्यच, म्लेच्छ, शवर, पुलिन्द आदि स्वामियोके भेदसे अनेक प्रकारका है। ध. १/१,१,६/गा १०५ व टोका/१६२/५ जाव दिया बयणवहा ताबदिया चेव होति णयवादा। जावदिया णयवादा तावदिया चेव परसमया ।१०५॥ इति वचनान्न मिथ्यात्वपञ्चकनियमोऽस्ति किन्तूपलक्षणमात्रमेतदभिहितं पञ्च विधं मिथ्यात्व मिति । - जितने भी बचनमार्ग है उतने ही नयवाद है और जितने नयवाद है उतने ही परसमय होते है। (और भी दे० नय/11५/५), इस वचनके अनुसार मिथ्यात्वके पाँच ही भेद है यह कोई नियम नही समझना चाहिए, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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