SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मद्र २६० मधुपिंगल ३. मद्यत्यागके अतिचार सा.ध./३/११ सन्धानकं त्यजेत्राव दधितक द्वबहोषितम् । काञ्जिक पुष्पितमपि मद्यवतमलोऽन्यथा ।११। दार्शनिक श्रावक अचारमुरब्बा आदि सर्व ही प्रकारके सन्धानको और जिससे दो दिन ब दो रात बोत गये है ऐसे दही व छाछको, तथा जिसपर फूई आ गयी हो ऐसी काजीको भी छोडे, नहीं तो मद्यत्याग व्रतमे अनिचार होता है। ला स/२/६८-६९ भगाहिफेनधत्तूरखसखसादिफलं च यत् । माद्यताहेतुरन्यद्वा सर्व मद्यवदीरितम् ।६। एवमित्यादि यद्वस्तु मुरेव मदकारकम् । तन्निखिल त्यजेद्धीमान श्रेयसे ह्यात्मनो गृही।। -भाँग, नागफेन, धतूरा, खसखस (चरस, गॉजा) आदि जो-जो पदार्थ नशा उत्पन्न करनेवाले है, वे सब मद्यके समान ही कहे जाते है।६। ये सब तथा इनके समान अन्य भी ऐसे ही नशीले पदार्थ, कल्याणार्थी बुद्धिमान व्यक्तिको छोड देने चाहिए ।६।। मद्र-भरतक्षेत्र मध्य आर्यखण्डका एक देश । अपर नाम मद्रकार दे० मनुष्य/४। मद्रक-उत्तर आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । मद्रा-पा. पु./सर्ग/श्लोक-राजा अन्धकवृष्णिकी पुत्री तथा वसुदेव की बहन । (७/१३२-१३८ ) । पाण्ड' से विवाही। (८/३४-८७, १०७)। नकुल व सहदेवको जन्म दिया। (८/१७४-१७५) । पतिके दीक्षित हो जानेपर स्वयं भी धर, आहार व जल का त्याग कर सौधर्म स्वर्ग में चली गयो।।६।१५६-१६१)। मधु* मधुकी अमक्ष्यताका निर्देश- (दे० भक्ष्याभक्ष्य/२ ) । १. मधु निषेधका कारण दे मास/२ नवनीत, मद्य, मास व मधु ये चार महाविकृतियाँ है। पु. सि. उ/६९-७० मधुशकलमपि प्रायो मधुरकरहिसात्मको भवति लोके । भजति मधुमुढधीको य स भवति हिसकोऽत्यन्तकम् ।६।। स्वयमेव विगलित यो गृहोयाद्वा छलेन मधुगोलात् । तत्रापि भवति हिसा तदाश्रयप्राणिना घातात ७०- मधुकी जूद भी मधुमक्खीकी हिसा रूप ही होती है, अत जो मन्दमति मधुका सेवन करता है, वह अत्यन्त हिसक है।६६। स्वयमेव चूए हुए अथवा छल द्वारा मधुके छतेसे लिये हुए मधुका ग्रहण करनेसे भी हिसा होती है, क्योंकि इस प्रकार उसके आश्रित रहनेवाले अनेको क्षुद्रजीवोका घात होता है। यो, सा /अ/८/६२ बहुजीवप्रधातोरथ बहुजोषोद्भवास्पदम् । असयमविभीतेन त्रेधा मध्वपि बळ ते ६१ =सयमकी रक्षा करनेवालोको, बहुत जोबोके घानसे उत्पन्न तथा बहुत जीवोकी उत्पत्तिके स्थानभूत मधुको मन वचन कायसे छोड देना चाहिए। अ ग श्रा/५/३२ योऽत्ति नाम भेषजेच्छया, सोऽपि याति लघु दुखमुत्वणम् । कि न नाशयति जीवितेच्छया, भक्षित झटिति जीवितं विषम् ।३२॥ -- जो औषधकी इच्छासे भी मधु खाता है, सो भी तीन दुखको शीघ्र प्राप्त होता है, क्योकि, जोनेकी इच्छासे खाया हुआ विष, क्या शीघ्र ही जीवनका नाश नही कर देता है। सा, ध/२/११ मधुकृवातघातोत्थ मध्वशुच्यपि बिन्दुश। खादन् बध्नात्यध सप्तग्रामदाहाहसोऽधिकम् ।३२। - मधुको उपार्जन करनेवाले प्राणियोके समूहके नाशसे उत्पन्न होनेवाली तथा अपवित्र, ऐसी मधुकी एक बंद भो खानेवाला पुरुष सात ग्रामोको जलानेसे भी अधिक पापको बाँधता है। ला सं./२/७२-७४ माक्षिक मक्षिकाना हि मासासृक् पीडनोद्भवम् ।। प्रसिद्ध' सर्वलोके स्याटागमेष्वपि सूचितम् ।७२। न्यायात्तद्भक्षणे नून पिशिताशनदूषणम् । त्रसस्ता मक्षिका यस्मादामिषं तत्कलेवरम् ॥७३॥ किञ्च तत्र निकोतादि जीवा ससर्गजा क्षणात् । संमूच्छिमा न मुञ्चन्ति तत्सनं जातु क्रव्यवत ।७४। -मधुकी उत्पत्ति मक्खियोके मास रक्त आदिके निचोडसे होती है, यह बात समस्त संसार में प्रसिद्ध है, तथा शास्त्रों में भी यही बात बतलायी है ।७२। इस प्रकार न्यायसे भी यह बात सिद्ध हो जाती है कि मधुके खानेमें मास भक्षणका दोष आता है, क्योंकि मक्खियाँ त्रस जीव होनेसे उनका कलेवर मास कहलाता है ।७३। इसके सिवाय एक बात यह भी है कि जिस प्रकार मासमें सूक्ष्म निगोदराशि उत्पन्न होती रहती है, उसी प्रकार जिसकिसी भी अवस्थामें रहते हुए भी मधुमें सदा जीव उत्पन्न होते रहते है। उन जीवोसे रहित मधु कभी नहीं होता है ।७४। २. मधुत्यागके अतिचार सा. ध./३/१३ प्राय' पुष्पाणि नाश्नीयान्मधुवतविशुद्धये । वस्त्यादिष्वपि मध्वादिप्रयोग नाहति व्रती ।१३। =मधुत्याग व्रतीके लिए फूलोका खाना तथा वस्तिम आदि ( पिण्डदान या औषधि आदि ) के लिए भी मधुको खाना वर्जित है। 'प्राय.' शब्दसे, अच्छी तरह शोधे जाने योग्य महुआ व नागकेसर आदिके फूलोंका अत्यन्त निषेध नहीं किया गया है (यह अर्थ पं. आशाधरजीने स्वयं लिखा है)। ला. सं /२/७७ प्राग्वदत्राप्यतीचारा' सन्ति केचिज्जिनागमात् । यथा पुष्परस पीत पुष्पाणामासवो यथा ७७ = मद्य व मांसक्त मधुके अतिचारोंका भी शास्त्रोमें कथन किया गया है। जैसे-फूलोका रस या उनसे बना हुआ आसव आदिका पीना । गुलकन्दका खाना भी इसी दोषमें गर्भित है। .. मधु नामक पौराणिक पुरुष १. म पु./५६/८८ पूर्वभवमें वर्तमान नारायणका धन जुएमें जीता था। और वर्तमान भवमें तृतीय प्रतिनारायण हुआ। अपर नाम 'मेरक' था।-विशेष दे शलाका पुरुष/५ । २. प. पु./सर्ग/श्लो ।"मथुराके राजा हरिवाहनका पुत्र था। (१२/३)। रावणकी पुत्री कृतचित्राका पति था।(१२/१८) रामचन्द्रजीके छोटे भाई शत्रुघ्नके साथ युद्ध करते समय प्रतिबोधको प्राप्त हुआ। (८/६६ )। हाथीपर बैठे-बैठे दीक्षा धारण कर ली। (८६/१११)। तदनन्तर समाधिमरण पूर्वक सनत्कुमार स्वर्गमे देव हुआ। (८६/११५ ) । ३ ह. पू./ ४३/श्लोक-अयोध्या नगरीमे हेमनाभका पुत्र तथा कैटभका बडा भाई था 1१५। राज्य प्राप्त करके । (१६०)। राजा वीरसेनकी स्त्री चन्द्राभापर मोहित हो गया। (१६५)। बहाना कर दोनोको अपने घर बुलाया तथा चन्द्राभाको रोककर वीरसेनको लौटा दिया। (१७१-१७६)। एक बार एक व्यक्तिको परखीगमनके अपराधमें राजा मधुने हाथ-पाँव काटनेका दण्ड दिया। इस चन्द्राभाने उसे उसका अपराध याद दिलाया। जिसमे उसे वैराग्य आ गया। और विमलवाहन मुनिके संघमें भाई कैटभ आदिके साथ दीक्षित हो गया। चन्द्राभाने भी आर्यिकाकी दीक्षा ली। (१७८-२०२)। शरीर छोड आरण अच्युत स्वर्गमें इन्द्र हुआ। (२१६)। यह प्रद्य म्न कुमारका पूर्वका दूसरा भव है।-दे० प्रद्य म्न । मधुकैटभ-म. पु./६०/श्लोक-अपर नाम मधुसूदन था। दूरवती पूर्वभवमें मलय देशका राजा चण्यशासन था। (५२)। अनेको योनियों में घूमकर वर्तमान भवमे चतुर्थ प्रतिनारायण हुआ। (७०)। -विशेष दे, शलाकापुरुष/५ । मधुक्रीड़-दे० निशुंभ। मधुपिगल-म.पु/६७/२२३-२५५, ३६६-४५८-सगर चक्रवर्ती विश्वभूके षड्यन्त्रके कारण स्वयम्बरमें 'सुलसा' से वंचित रह जानेके कारण दीक्षा धर, निदानपूर्वक देह त्याग यह महाकाल नामक व्यन्तर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy