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________________ मतिज्ञानावरण २५९ मद्य २०. ध्रुवज्ञान एकान्तरूप नहीं है घ. १३/१५.३५/२३६/४ न च स्थिरप्रत्यय' एकान्त इति प्रत्यवस्थातं युक्तम. विधिनिषेधादिद्वारेण अत्रापि अनेकान्तविषयत्वदर्शनात् । -स्थिर (ध ब) ज्ञान एकान्तरूप है, ऐसा निश्चय करना युक्त नहीं है, क्योकि, विधि-निषेधके द्वारा यहाँपर भी अनेकान्तकी विषयता देखी जाती है। मतिज्ञानावरण-(दे० ज्ञानावरण)। मत्तजला-पूर्व विदेहको एक विभगा नदी-दे० लोक/५/८ । मत्स-महामत्स सम्बन्धी विषय-दे० समूर्छन। मत्स्य -भरतक्षेत्र में मध्य आर्यस्खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । मत्स्योद्वर्त-कायोत्सगका अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ । मत्सर-न्या. द./भाष्यकी टिप्पणी/४/१/३/२३० प्रक्षीयमाणवस्त्वपरित्यागेच्छा मत्सर । -जिस वस्तु में अपना कोई प्रयोजन न हो, पर उसमें प्रतिसन्धान करना, पर व्यक्तिके अनुकूल पदार्थ के निवारणकी अथवा उसके घातकी अथवा उसके गुणोंके घातकी इच्छा करना मत्सर है। मथमितिकी-Mathematics (ज. प /प्र १०७) । मथुरा-१. भरत क्षेत्रका एक नगर-दे. मनुष्य/। भारतके उत्तरप्रदेशका प्रसिद्ध नगर मथुरा है। और दक्षिण प्रदेशका प्रसिद्ध नगर। 'मदुरा' है। मथुरा संघ-दिगम्बर साधुओं का माथुरसंघ - दे० इतिहास/३/२३। मदनि. सा./ता. वृ /११२ अत्र मदशदेन मदन. कामपरिणाम इत्यर्थः।। -यहाँ मद शब्दका अर्थ मदन या काम परिणाम है। र.क.पा/२५ अष्टाबाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहूर्गतस्मयाः ।२४ - ज्ञान आदि आठ प्रकारसे अपना बडप्पन माननेको गणधरादिने मद कहा है । (अन, ध./२/८७/२१३); (भा. पा./टी./१५७/२६६/२०) । १. मदके आठ भेद मू. आ./५३ विज्ञानमैश्वयं आज्ञा कुलबलतपोरूपजातिः मदा.। -विज्ञान, ऐश्वर्य, आज्ञा, कुल, बल, तप, रूप और जाति ये आठ मद है। (अन, ध/२/८७/२१३), (द्र. स./टी/४१/१६८/८) । र. क. श्रा./२५ ज्ञानं पूजा कुलं जाति बलमृद्धि तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥२५॥ -ज्ञान, पूजा (प्रतिष्ठा), कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप, शरीरकी सुन्दरता इन आठोंको आश्रय करके गर्व करनेको मद कहते है। ज्ञानमद है। मै सर्वमान्य हूँ। राजा-महाराजा मेरी सेवा करते हैं यह पूजा आज्ञा या प्रतिष्ठाका मद है। मेरा पितृपक्ष अतीव उज्ज्वल है। उसमें ब्रह्महत्या या ऋषिहत्या आदिका भी दूषण आज तक नही लगा है। यह कुलमद है। मेरी माताका पक्ष बहुत ऊँचा है। वह संघपतिकी पुत्री है। शीलमें सुलोचना, सीता, अनन्तमति व चन्दना आदि सरीखी है। यह जातिमद है। मैं सहस्रभट, लक्षभट, कोटिभट हूँ यह बलमद है। मेरे पास अरबो रुपयेकी सम्पत्ति थी। उस सबको छोडकर मै मुनि हुआ हूँ। अन्य मुनियोने अधर्मी होकर दीक्षा ग्रहण की है। यह ऋद्धि या ऐश्वर्य मद है। सिंह निष्क्रीडित, विमानपंक्ति, सर्वतोभद्र आदि महातपौकी विधिका विधाता हूँ। मेरा सारा जन्म तप करते-करते गया है। ये सर्व मुनि तो नित्य भोजनमें रत रहते है। यह तप मद है। मेरे रूपके सामने कामदेव भी दासता करता है यह रूपमद है। मदना-भरत क्षेत्र में आर्यखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४। मद्य* मद्यको अभक्ष्यताका निर्देश-दे० भक्ष्याभक्ष्य/२। १. मद्य निषेधका कारण दे० मांस/२ (नवनीत, मद्य, माम व मधु ये चार महाविकृति है।) पु. सि, उ/६२-६४ मद्य' मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् । विस्मृतवर्मा जीवो हिसामविशङ्कमाचरति ।। रसजाना च बहना जीवानां योनिरिष्यते मद्यम्। मद्य भजतां तेषां हिसा संजायतेऽवश्यम् ६३॥ अभिमानभयजुगुप्साहास्यरतिशोककामकोपाद्या.। हिंसायाः पर्याया. सर्वेऽपि सरकसंनिहिता' ६४-मद्य मनको मोहित करता है, मोहितचित्त होकर धर्मको भूल जाता है । और धर्मको भूला हुआ वह जीव नि शंकपने हिंसा रूप आचरण करने लगता है।६। रस द्वारा उत्पन्न हुए अनेक एकेन्द्रियादिक जीवोंकी यह मदिरा योनिभूत है। इसलिए मद्य सेवन करनेवालेको हिसा अवश्य होती है ।६३। अभिमान, भय, जुगुप्सा, रति, शोक, तथा काम-क्रोधादिक जितने हिसाके भेद है वे सब मदिराके निक्टवर्ती है।६।। सा.घ./२/४-५ यदेकबिन्दो. प्रचरन्ति जीवाश्चैतत त्रिलोकीमपि पूरयन्ति । यद्विक्लवाश्चेयममु च लोक यास्यन्ति तत्कश्यमवश्यमस्यैत ।४। पीते यत्र रसागजीवनिवहा. क्षिप्रं नियन्तेऽखिला , कामक्रोधभयभ्रमप्रभृतय" सावद्यमुद्यन्ति च। तन्मद्य व्रतयन्म धूर्तिलपरास्कन्दीव यात्यापदं, तत्पायी पुनरेकपादिव दुराचार चरन्मज्जति-जिसकी एक बदके जीव यदि फैल जाये तो तीनो लोकोको भी पूर्ण कर देते हैं, और जिस मद्यके द्वारा भूच्छित हुए मनुष्य इस लोक और परलोक दोनोको नष्ट कर देते है। उस मद्यको कल्याणार्थी मनुष्य अवश्य ही छोडे ।४। जिसके पीनेमे मद्यमें पैदा होनेवाले उस समस्त जोव समूहकी मृत्यु हो जाती है, और पाप अथवा निन्दाके साथ-साथ काम, क्रोध, भय, तथा भ्रम आदि प्रधान दोष उदयको प्राप्त होते है, उस मद्यको छोड़नेवाला पुरुष धूर्तिल नामक चोरकी तरह विपत्तिको प्राप्त नही होता है । और उसको पीनेवाला एक्पात नामक संन्यासीकी तरह निन्द्य आचरणको करता हुआ दुर्गतिके दु.खोंको प्राप्त होता है। ला, स./२/७० दोषत्वं प्राड्मतिभ्रशस्ततो मिथ्यावबोधनम् । रागादयस्तत. कर्म ततो जन्मेह क्लेशता ।७० - इसके पीनेसे-पहले तो बुद्धि भ्रष्ट होती है, फिर ज्ञान मिथ्या हो जाता है, अर्थात् माता, बहन आदिको भी स्त्री समझने लगता है। उससे रागादिक उत्पन्न होते है, उनसे अन्यायरूप क्रियाएँ तथा उनसे अत्यन्त क्लेशरूप जन्म मरण होता है। २. आठ मदोंके लक्षण मो, पा./टी./२७/३२२/४ मदा अष्ट-अह ज्ञानवात् सकलशास्त्रज्ञो वर्ते। अहं माग्यो महामण्डलेश्वरा मत्पादसेवका'। कुलमपि मम पितृपक्षोऽतीवोज्ज्वल, कोऽपि ब्रह्महत्या ऋषिहत्यादिभिरदोषम् । जाति'-मम माता सघस्य पत्युदंहिता-शीलेन सुलोचना-सीताअनन्तमती माता-चन्दनादिका वर्तते। बलं -अहं सहस्रभटो लक्षभट. कोटिभट । ऋद्धि-ममानेकलक्षकोटिगणनं धनमासीत तदपि मया त्यक्तं अन्ये मुनयोऽधर्मणा सन्तो दीक्षा जगृह । तपअहं सिहनिष्क्रीडितविमानप क्तिसर्वतोभद्र आदि महातपोविधिविधाता मम जन्मैव तप' कुर्वतो गतं, एते तु यतयो. नित्यभोजनरता' । वपु-मम रूपाने कामदेवोऽपि दासत्वं करोतोत्यष्टमदा । -मद आठ हैं-मै ज्ञानवान हूँ, सकलशास्त्रोका ज्ञाता हूँ यह जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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