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________________ मतिज्ञान २५० १. भेद व लक्षण ईहा आदिको मतिज्ञान व्यपदेश कैसे। अवग्रह आदिकी अपेक्षा मतिज्ञानका उत्पत्तिकम। अवग्रह आदिमें परस्पर कार्यकारण भाव । -दे० मतिज्ञान/३/१ मे रा. वा.।। अवग्रह आदि सभी भेदोके सर्वत्र होनेका नियम नहीं है। मति-स्मृति आदिकी एकार्थता सम्बन्धी शकाएँ। स्मृति और प्रत्यभिज्ञानमें अन्तर । स्मृति आदिकी अपेक्षा मतिज्ञानका उत्पत्तिक्रम । मतिशान व श्रुतशानमें अन्तर । -दे० श्रुतज्ञान/|३। एक बहु आदि विषय निर्देश बहु व बहुविध ज्ञानोके लक्षण । बहु व बहुविध शानोंमें अन्तर । बहु विषयक ज्ञानकी सिद्धि। | एक व एकविध शानोंके लक्षण | एक व एकविध शानोंमें अन्तर । एक विषयक शानकी सिद्धि । क्षिप्र अक्षिम ज्ञानोंके लक्षण । निःसृत-अनिःसृत ज्ञानोंके लक्षण । अनिःसृतज्ञान और अनुमानमें अन्तर । अनिःसृत-विषयक ज्ञानकी सिद्धि । अनिःसृत विषयक व्यंजन व ग्रहकी सिद्धि । उक्त अनुक्त शानोंके लक्षण । उक्त और निःसृत शानोंमे अन्तर । अनुक्त और अनिःसृत ज्ञानोंमें अन्तर । अनुक्त विषयक ज्ञानको सिद्धि । मन सम्बन्धी अनुक्त ज्ञानकी सिद्धि । अप्राप्यकारी इन्द्रिया सम्बन्धी अनि सृत व अनुक्त ज्ञानोकी सिद्धि। ध्रुव व अध्रुव शानोंके लक्षण । १९ ध्रु वशान व धारणामें अन्तर । २० | ध्रुवज्ञान एकान्तरूप नहीं है। २. अभिनिबोध या मतिका अर्थ इन्द्रियज्ञान पं.सं./२/२१४ अहिमुहणियमिय बोहणमाभिणिबोहियमणिदि-इंदियज। २१४॥ = मन और इन्द्रियकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाले, अभिमुख और नियमित पदार्थ के बोधको आभिनिवोधिकज्ञान कहते है। (ध १/१,१,११/गा, १८२/३५६); (ध. १३४५,५,२६/२०६/१०); (गो जी /मू./३०६/६५८), (ज प./१३/१६)। ध.१/१,१,१११/३५४/१ पञ्चभिरिन्द्रियैर्मनसा च यदर्थ ग्रहण तन्मतिज्ञानम् । = पॉच इन्द्रियों और मनसे जो पदार्थका ग्रहण होता है, उसे मतिज्ञान कहते है। क पा. १/१०१/६२८/४२/४ इंदियणोइंदिएहि सह-रस-परिसरूवगंधादिविसएम ओग्गह-ईहावाय-धारणाओ मदिणाणं। -इन्द्रिय और मनके निमित्तसे शब्द रस स्पर्श रूप और गन्धादि विषयों में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान है । (द्र. सं./टी./४४/१८८/१)। ५. का./त.प्र/४१ यत्तदावरणक्षयोपशमादिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बनाच मूर्तामूर्तद्रव्य विकल विशेषणावबुध्यते, तदाभिनिबोधिकज्ञानम् । पं. का./ता. वृ/४१/०१/१४ आभिनिबोधिक मतिज्ञानं । -मति झाना वरण के क्षयोपशमसे और इन्द्रिय मनके अवलम्बनसे मूर्त अमूर्त द्रव्यका विकल अर्थात एकदेश रूपसे विशेषतः [सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूपसे (द्र. सं/टी./५/१५) जो अवबोध करता है, वह आभिनिबोधिकज्ञान है। आभिनिबोधिकज्ञानको ही मतिज्ञान कहते हैं। (द्र. स /टो./२/११/४)। २. मतिज्ञानके भेद-प्रभेद १. अवग्रहाहिकी अपेक्षा अवग्रह ईहा अवाय धारणा व्यजन (प्रत्येकके ६.६ भेद) - स्पर्शनेन्द्रिय- रसनेन्द्रिय -- घाणेन्दिय - श्रोत्रेन्द्रिय - स्पर्शनेन्द्रिय--- -- रसनेन्द्रिय - घाणेन्द्रिय ---चक्षुरिन्द्रिय ____-श्रोत्रेन्द्रिय -नोइन्द्रिय प्रत्येकके १२, १२ विषय है २, बहुविध ४. अनि मृत ५ अनुक्त Reyaha १. अक्षित १०. नि सृत ११. उक्त १२. अध्रुव १.भेद व लक्षण १. मतिज्ञान सामान्यका लक्षण १. मतिका निरुक्त्यर्थ स, सि./९/8/३/११ इन्द्रियैर्मनसा च यथासमर्थो मन्यते अनया मनुते मननमात्र बामति । -इन्द्रिय और मनके द्वारा यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते है. जो मनन करता है, या मननमात्र मति कहलाता है। (स. सि /१/१३/१०६/४-मनन मति), (रा वा/ १/४/१/४४/७), (ध.१३/५५५,४१/२४४/३-मनन मतिः )। उपरोक्त भेदोके भग-अवग्रहादिकी अपेक्षा-४, पूर्वोक्त ४४६इन्द्रियाँ २४, पूर्वोक्त २४ + व्यजनावग्रहके ४-२८% पूर्वोक्त २८+अवग्रहादि ४-३२- में इस प्रकार २४, २८,३२ ये तीन मूल भंग है । इन तीनोंकी क्रमसे बहु बहुविध आदि ६ विकल्पोसे गुणा करनेपर १४४, १६८ व १६२ ये तीन भग होते हैं। उन तीनोको ही बहु बहुविध आदि १२ विकल्पोसे गुणा करनेपर २८८, ३३६ व ३८४ ये तीन भंग होते है। इस प्रकार मतिज्ञानके ४, २४, २८, ३२, १४४, १६८, १६२, २८, २३६ व ३८४ भेद होते है। (ष. खं. १३/५५ सूत्र २२-३५/२१६-२३४), (त.सू./१/१५-१६); (प.स/प्रा/१/१२१); (ध.१/१,१,११५/गा. १८२/३५६), (रा. वा./१/१६/६/७०/७); (ह.पु/१०/१४५-१०); जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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