SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मणि २४९ मतिज्ञान भिज्ञान और तर्क या व्याप्ति ज्ञान उत्पन्न होता है। इन सबोंकी भी मतिज्ञान सज्ञा है। धारणाके पहलेवाले ज्ञान पंचेन्द्रियों के निमित्तसे और उससे आगेके ज्ञान मनके निमित्तसे होते है। तर्कके पश्चात् अनुमानका नम्बर आता है जो श्रुतज्ञानमें गभित है। एक, अनेक, ध्र व, अध व आदि १२ प्रकारके अर्थ इस मतिज्ञानके विषय होनेसे यह अनेक प्रकारका हो जाता है। भेद व लक्षण मतिज्ञान सामान्यका लक्षण १. मनिका निरुक्त्यर्थ। २. अभिनिबोध या मतिका अर्थ इन्द्रियज्ञान । मतिज्ञानके भेद-अभेद । १ अवग्रह आदिकी अपेक्षा। २. उपलब्धि स्मृति आदिकी अपेक्षा । ३ असख्यात भेद। उपलब्धि, भावना व उपयोग। -दे० वह वह नाम । कुमतिज्ञानका लक्षण। मणि-१. चक्रवर्तीके १४ रत्नोमेंसे एक-दे० 'शलाका पुरुष/२ । २. शिखरी पर्वतका एक कूट व उसका रक्षक देव-दे० लोक ५/४ ३. रुचक पर्वत व कुण्डल पवतका एक कूट-दे० लोक/५/१२,१३ ४. सुमेरु पर्वतके नन्दन आदिबनोमे स्थित गुफा-दे० लोक:/६ इसका स्वामी सोमदेव है। मणिकांचन-१. विजयाधकी उत्तरश्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । २ शिखरी व रुक्मि पर्वतका एक एक कूट व उसके रक्षक देव-दे० लोक/१/४ । मणिकेतु-(म.पु/१८/श्लो, न)-एक देव था। सगर चक्रवर्तीके जीव (देव) का मित्र था।८०-८२३ मनुष्य भवमे सगर चक्रवर्तीको सम्बोधकर उसे विरक्त किया और तब उसने दीक्षा ले ली १२-१३१। तदनन्तर अपना परिचय देकर देवलोकको चला गया ।१३४-१३६० मणिचित-सुमेरु पर्वतका अपर नाम-दे० सुमेरु । मणिप्रभ-रुचक व कुण्डल पर्वतका एक-एक कूट-दे० लोक/१२,१३॥ मणिभद्र-१. सुमेरु पर्वतके नन्दनवनमे स्थित एक मुख्य कूट व उसका रक्षक देव ।अपर नाम बलभद्र कूट था-दे० लोक/३/६-४ । २. विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । ३ यक्ष जातिके व्यन्तरदेवोका एक भेद-दे० यक्ष । ४ (प पु/७१/श्लो)यक्ष जातिका एक देव ।६। जिसने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करते हुए रावणको रक्षा को थी।८। ५ (ह. पु./४३/श्लो)-अयोध्या नगरीमें समुद्रदत्त सेठका पुत्र था ।१४६। अणुवत लेकर सौधर्म स्वगमें देव हुआ ।१५८। यह कृष्णके पुत्र शम्बका पूर्वका चौथा भव है-दे० शब । मणिभवन-सुमेरु पर्वतके नन्दन आदि वनोके पूर्व मे स्थित सोमदेवका बन-दे० लोक/७। मणिमालिनी-नन्दन वन में स्थित सागरकूटकी स्वामिनी देवी -दे० लोक/१५ मणिवत्र-विजयाको उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। मतंग-भगवान् वीरके तीर्थ के एक अन्तकृतकेवली-दे० अन्तकृत् । मत-१. मिथ्या मत-दे० एकान्ता५ । २. सर्व एकान्त मत मिलकर एक जैनमत बन जाता है-दे० अनेकान्त/२/६। ३ कोई भी मत सर्वथा मिथ्या नहीं-दे० नय/II ।४. सम्यग्दृष्टियोमे परस्पर मतभेद नही होता-दे० सम्यग्दृष्टि/४। ५. आगम गत अनेक विषयोमें आचार्योंका मतभेद-दे० दृष्टिभेद । मतानुज्ञा-न्या. सू./मू./५/२/२० स्वपक्षदोषाभ्युपगमात् परपक्षे दोषप्रसंगो मतानुज्ञा ।२० प्रतिवादी द्वारा उठाये गये दोषको अपने पक्षमें स्वीकार करके उसका उद्धार किये बिना ही 'तुम्हारे पक्षमें भी ऐसा ही दोष है' इस प्रकार कहकर दूसरेके पक्षमें समान दोष उठाना मतानुज्ञा नामका निग्रहस्थान है। (श्लो वा.४/१/३३/ न्या २५१/४१७/१४ पर इसका निराकरण किया गया है)। मतार्थ-आगमका अर्थ करनेकी विधि 'किस मतका निराकरण करनेके लिए यह बात कही गयी है। ऐसा निर्देश मतार्थ कहलाता है।-दे० आगम/३। मति-दे० मतिज्ञान/१। मतिज्ञान-इन्द्रियज्ञानकी ही 'मति या अभिनिबोध' यह संज्ञा है। यह दर्शनपूर्वक अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाके क्रमसे उत्पन्न होता है । चारो के ही उत्पन्न होनेका नियम नहीं। १,२ या ३ भी होकर छूट सकते है। धारणाके पश्चात् क्रमसे स्मृति, प्रत्य मतिज्ञान सामान्य निर्देश मतिशानको कचित् दर्शन संशा। -दे० दर्शन/८ । मतिशान दर्शनपूर्वक इन्द्रियोंके निमित्तसे होता है। शानकी सत्ता इन्द्रियोंसे निरपेक्ष है। -दे० ज्ञान/I/२। मतिज्ञानका विषय अनन्त पदार्थ व अल्प पर्याय है। अतीन्द्रिय द्रव्योंमें मतिशानके व्यापार सम्बन्धी समन्वय। मति व श्रुतज्ञान परोक्ष है। -दे० परोक्ष । मतिज्ञानको कथंचित् प्रत्यक्षता व परोक्षता। -दे० श्रुतज्ञान/I/५॥ | मतिशानकी कथंचित् निर्विकल्पता। -दे० विकल्प। * मतिज्ञान निसर्गज है। -दे० अधिगमज । मति आदि शान व अशान क्षायोपशयिक कैसे। परमार्थसे इन्द्रियज्ञान कोई शान नहीं। मोक्षमार्ग में मतिज्ञानकी कथंचित् प्रधानता। -दे० श्रुतज्ञान/I/R1 ६ मतिज्ञानके भेदोंको जाननेका प्रयोजन । मतिज्ञानके स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान, जीवसमास आदि २० प्ररूपणाएँ। -दे० सद। मतिशान सम्बन्धी सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव व अल्पबहुत्व रूप ८ प्ररूपणाएँ। -दे०वह वह नाम । सभी मार्गणाओंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम। -दे० मार्गणा। अवग्रह आदि व स्मृति आदि ज्ञान निर्देश अवग्रह ईहा आदि व स्मृति तर्क आदिके लक्षण । -दे०वह वह नाम । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०३-३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy