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________________ ब्राह्मण १९५ ब्राह्मण ब्राह्मण-जेन आम्नायमें अणुवतधारी विवेकवान् श्रावक ही सुसंस्कृत होने के कारण द्विज या ब्राह्मण स्वीकार किया गया है, केवल जन्मसे सिद्ध अविवेकी व अनाचारी व्यक्ति नहीं। १. ब्राह्मण व द्विजका लक्षण म.पु/३८/४३-४८ तप'श्रुतं च जातिश्च त्रयं ब्राह्मण्य कारणम्। तपश्रुताम्या यो हीनो जातिब्राह्मण एव स १४३१ ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् ।।४६। तप'श्रुताभ्यामेवातो जातिसस्कार इष्यते। असस्कृतस्तु यस्ताभ्यां जातिमात्रेण स द्विज ।४७ द्विजातो हि द्विजन्मेष्ट क्रियातो गर्भतश्च य । क्रियामन्त्रविहोनस्तु केवल नामधारक. १४८ = १ तप, शास्त्रज्ञान और जाति ये तीन ब्राह्मण होनेके कारण है। जो मनुष्य तप और शास्त्रज्ञानसे रहित है वह केवल जातिसे ही ब्राह्मण है ।४३। अथवा व्रतोंके संस्कारसे ब्राह्मण होता है ।४६।२. द्विज जातिका सस्कार तपश्चरण और शास्त्राभ्याससे ही माना जाता है, परन्तु तपश्चरण और शास्त्राभ्याससे जिसका सस्कार नहीं हुआ है वह जातिमात्रसे द्विज कहलाता है ।४७। जो एक बार गर्भ से और दूसरी बार क्रियासे इस प्रकार दो बार उत्पन्न हुआ हो उसको दो बार जन्मा अर्थात द्विज कहते है (म पु/३६/६३)। परन्तु जो क्रियासे और मन्त्र दोनोंसे रहित है वह केवल नामको धारण करने वाला द्विज है।४८ २. ब्राह्मणके अनेकों नामोंमे रत्नत्रयका स्थान म पु./३६/१०८-१४१ का भावार्थ-जन्म दो प्रकारका होता है-एक गर्भ से दूसरा संस्कार या क्रियाओसे । गर्भ से उत्पन्न होकर दूसरी बार संस्कारसे जन्म धारे सो द्विज है। केवल जन्मसे ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न होकर द्विजपना जतलाना मिथ्या अभिमान है। जो ब्रह्मासे उत्पन्न हो सो ब्राह्मण है । जो बिना योनिके उत्पन्न हो सो देव है। जिनेन्द्रदेव, स्वयभू, भगवान्, परमेष्ठी ब्रह्मा कहलाते है। उस परमदेव सम्बन्धी रत्नत्रयकी शक्ति रूप सस्कारसे जन्म धारनेवाला ही अयोनिज, वेबब्राहाण या देव द्विज हो सकता है। स्त्रयभूके मुखसे सुनकर सस्कार रूप जन्म होता है. इसीसे द्विज स्वयम्भूके मुखसे उत्पन्न हुआ कहा जाता है। व्रतोके चिह्न रूपसे सूत्र ग्रहण करे सो ब्राह्मण है केवल डोरा लटकानेसे नहीं। जिनेन्द्रका अहिंसामयी सम्यकधर्म न स्वीकार करके वेदोमे कहे गये हिसामयी धर्मको स्वीकार करे वह ब्राह्मण नही हो सकता। ३. ब्राह्मणत्वमें गुण कर्म प्रधान है जन्म नही द्र सं./टी /३/१०६ पर उधृत-जन्मना जायते शूद्र क्रियया द्विज उच्यते। श्रुतेन श्रोत्रियो ज्ञेयो ब्रह्मचर्येण ब्राह्मण ॥११- जन्मसे शूद्र होता है, क्रियासे द्विज कहलाता है, श्रुत श स्त्रमे श्रोत्रिय और ब्रह्मचर्यसे ब्राह्मण जानना चाहिए। दे ब्राह्मण/१ तप शास्त्रज्ञान और जाति तीनसे ब्राह्मण होता है। अथवा व्रतसंस्कारसे ब्रह्मण है। म. पु./३८/४२ विशुद्धा वृत्तिरेवैषां षटतयोष्टा द्विजन्मनाम् । योऽतिकामेदिमा सोऽज्ञो नाम्नैव न गुणै द्विज १४२ - यह ऊपर कही हुई छह प्रकारकी विशुद्धि (पूजा, विशुद्धि पूर्वक खेती आदि करना रूप वार्ता, दान, स्वाध्याय, सयम और तप ) वृत्ति इन द्विजोके करने योग्य है । जो इनका उल्लघन करता है, वह मूर्ख नाममात्रसे ही द्विज है, गुणसे द्विज नहीं है ।४२॥ धर्म परीक्षा/१७/२४-३४ सदाचार कदाचारके कारण ही जाति भेद होता है, केवल ब्राह्मणोकी जाति मात्र ही श्रेष्ठ है ऐसा नियम नहीं है। वास्तव में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह चारोही एक मनुष्य जाति है। परन्तु आचार मात्रसे इनके चार विभाग किये जाते है ।२५। कोई कहे है कि, ब्राह्मण जातिमें क्षत्रिय कदापि नहीं हो सकता क्योकि चावलोंकी जातिमें कोदों कदापि उत्पन्न हुए नहीं देखे ।२६। प्रश्न--तुम पवित्राचारके धारकको ही ब्राह्मण कहते हो शुद्ध शीलकी धारी ब्राह्मणीसे उत्पन्न हएको ब्राह्मण क्यों नही कहते । उत्तर-ब्राह्मण और ब्राह्मणीका सदाकाल शुद्ध शीलादि पवित्राचार नही रह सकता, क्योंकि बहुत काल बीत जानेपर शुद्ध शीलादि सदाचार छूट जाते है, और जाति च्युत होते देखे जाते है ।२७-२८॥ इस कारण जिस जातिमें सयम-नियम-शील-तप-दान-जितेन्द्रियता और दयादि वास्तबमें विद्यमान हों उसको ही सत्पुरुषाने पूजनीय जाति कहा है ।२६। शील संयमादिके धारक नीच जाति होनेपर भी स्वर्गमें गये हैं । और जिन्होंने शील संयमादि छोड दिये ऐसे कुलीन भी नरकमें गये है ।३१॥ ४. जैन श्रावक ही वास्तविक ब्राह्मण है म पु/३६/१४२ विशुद्धवृत्तयस्तस्माज्जैना वर्णोत्तमा हिजा: । वर्णान्त: पातिनो नैते जगन्मान्या इति स्थितम् ।१४२६ म पु/४२/१८५-१८६ सोऽस्त्यमीषां च यद्वेदशास्त्रार्थमधमद्विजा' । तादृश बहुमन्यन्ते जातिवादावलेपत. १८५। प्रजासामान्यतै बैषा मता वा स्यानिष्कृष्टता। ततो न मान्यतास्त्येषां द्विजा मान्या' स्युराहता ।१८६ = इससे यह बात निश्चित हो चुकी कि विशुद्ध वृत्तिको धारण करनेवाले जैन लोग ही सब वर्गों में उत्तम है। वे ही द्विज है। ये ब्राह्मण आदि वर्गों के अन्तर्गत न होकर वर्णोत्तम है और जगत्पूज्य है ।१४२॥ चूकि यह सब ( अहंकार आदि) आचरण इनमें (नाममात्रके अक्षरम्लेच्छ ब्राह्मणों में ) है और जातिके अभिमानसे ये नीच द्विज हिसा आदिको प्ररूपित करनेवाले वेद शास्त्रके अर्थ को बहुत कुछ मानते है। इसलिए इन्हें सामान्य प्रजाके समान ही मानना चाहिए अथवा उससे भी निकृष्ट मानना चाहिए । इन सब कारणोसे इनकी कुछ भी मान्यता नही रह जाती है, जो द्विज अरहन्त भगवान् के भक्त है वही मान्य गिने जाते हैं । १८५-१८६। ५. वर्तमानका ब्राह्मण वर्ण मर्यादासे च्युत हो गया है म. पु./४१/४६-५१, ५५ आयुष्मन् भवता सृष्टा य एते गृहमेधिनः । ते तावदुचिताचारा यावत्कृतयुगस्थिति ।४६। ततः कलयुगेऽभ्यर्णे जातिवादावलेपत' । भ्रष्टाचारा' प्रपत्स्यन्ते सन्मार्गप्रत्यनीक्ताम् ।४७१ तेऽपि जातिमदाविष्टा वयं लोकाधिका इति । पुरागमै लॊकं मोहयन्ति धनाशया ।४८। सत्कारलाभसंवृद्धगर्वा मिथ्यामदोद्धता.। जमान प्रकारयिष्यन्ति स्वयमुत्पाद्य दु श्रुती ४ात इमे कालपर्यन्ते विक्रिया प्राप्य दुई श । धर्मद्रुहो भविष्यन्ति पापोपहतचेतमा १५०। सत्त्वोपधात निरता मधुमासाशनप्रिया । प्रवृत्तिलक्षणं धर्म घोषयिष्यन्त्यधामिका ॥१॥ इति कालान्तरे दोषमोजमप्येतदजसा। नाधुना परिहर्तव्य धर्म सृष्टयनातिकमात् ॥५५॥ = ऋषभ भगवान् भरतके प्रश्न के उत्तरमें कहते है कि-हे आयुष्मन् । तूने जो गृहस्थोंकी रचना की है, सो जब तक कृतयुग अर्थात् चतुर्थ कालकी स्थिति रहेगी, तब तक तो ये उचित आचार-विचारका पालन करते रहेगे। परन्तु जब कलियुग निकट आ जायेगा, तब ये जातिवादके अभिमानसे सदाचारसे भ्रष्ट होकर मोक्षमार्गके विरोधी बन जायेगे।४६। पंचम काल में ये लोग, हम सब लोगोमे बडे है, इस प्रकार जातिके मदमे युक्त होकर केवल धनकी आशासे खोटे-खोटे शास्त्रोको रचकर लोगोको मोहित रेगे ।४७। सत्कारके लाभसे जिनका गर्व बढ रहा है और जो मिथ्या मदसे उधृत हो रहे है ऐसे ये ब्राह्मण लोग स्वय शास्त्री को बनाकर लोगोको ठगा करेंगे।४। जिनकी चेतना पापसे दूषित हो रही है ऐसे ये मिथ्यादृष्टि लोग इतने समय तक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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