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________________ ब्रह्मचर्य तप ऋद्धि ब्रह्मोत्तर कारण गरम लोहे की स्त्रियोसे आलिगन करानेसे तो महा दुख होता है, किन्तु इस लोकमे भी अत्यन्त असह्य दुख व अनेक अनर्थ उत्पन्न होते है ।२१२-२१३॥ ४. ब्रह्मचर्य व्रत व ब्रह्मचर्य प्रतिमा में अन्तर सा. ध./७/१६ प्रथमाश्रमिण प्रोक्ता, ये पञ्चोपनयादयः। तेऽधीत्य शास्त्रं स्वीकुर्य-दरानन्यत्र नैष्ठिकात ।१६। -जो प्रथम आश्रमवाले (ब्रह्मचर्याश्रमी) मौजी बन्धन पूर्वक व्रत ग्रहण करनेवाले उपनय आदिक पाँच प्रकारके ब्रह्मचारी (दे० ब्रह्मचारी) कहे गये है वे सब नैष्ठिकके बिना शेष सब शास्त्रोको पढ़कर स्त्रीको स्वीकार करते है। दे० ब्रह्मचर्य/१/३-४ (द्वितीय प्रतिमाम ग्रहण किये एक ब्रह्मचर्य अणुव्रतमें तो अपनी धर्मपत्नीका भोग करता था। परन्तु इस ब्रह्मचर्य प्रतिमाको स्वीकार करनेपर नव प्रकारसे तीनोकाल सम्बन्धी समस्त स्त्रीमात्रके सेवनका त्याग कर देता है)। ब्रह्मचर्य तप ऋद्धि-घोर व अघोर गुण ब्रह्मचर्य तप ऋद्धि -दे० ऋद्धि। ब्रह्मचारीदे० ब्रह्मचर्य/१/१ मेप वि. (जो ब्रह्ममे आचरण करता है, और इन्द्रिय विजयी होकर वृद्धा आदिको माता, बहन व पुत्रीके समान समझता है वह ब्रह्मचारी होता है)। २. ब्रह्मचारीके भेद उन्हे अदीक्षा ब्रह्मचारी कहते है। ५. जो कुमार अवस्थामें ही मुनि होकर शास्त्रोका अभ्यास करते है। तथा पिता, भाई आदि कुटुम्बियोके आश्रयसे अथवा घोर परिषहोके सहन न करनेसे किंवा राजाकी विशेष आज्ञासे अथवा अपनेआप ही जो परमेश्वर भगवान अरहंत देवकी दिगम्बर दीक्षा छोडकर गृहस्थ धर्म स्वीकार करते हैं उन्हे गूढ ब्रह्मचारी कहते है । ६. समाधि मरण करते समय शिखा (चोटी) धारण करनेसे जिसके मस्तकका चिह्न प्रगट हो रहा है। यज्ञोपवीत धारण करनेसेसे जिसका उरोलिंग (वक्षस्थल चिह) प्रगट हो रहा है । सफेद अथवा लालरंगके वस्त्रके टुक्डेकी लंगोटी धारण करनेसे जिसकी कमरका चिह्न प्रगट हो रहा है, जो सदा भिक्षा वृत्तिसे निर्वाह करता है। जो स्नातक वा व्रती है, जो सदा जिन पूजादिमें तत्पर रहते है । उन्हे नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते है। ४. ब्रह्मचारीका वेष दे० संस्कार/२/३ में व्रतचर्या क्रिया (जिसने मस्तक्पर शिखा धारण की है, श्वेत वस्त्रकी कोपीन पहनी है, जिसके शरीरपर एक वस्त्र है, जो भेष और विकारसे रहित है, जिसने व्रतोका चिह्न स्वरूप यज्ञोपवीत धारण किया है, उसको ब्रह्मचारी कहते है)। * पाँचों ब्रह्मचारियोंको स्त्रीके ग्रहण सम्बन्धी -दे० अर ब्रह्मदत्त-१२ वॉ चक्रवर्ती था।-विशेष दे० शलाका पुरुष । ब्रह्मदेव-बाल ब्रह्मचारी होने के कारण ही आपका यह नाम पड़ गया । कृतियें-द्रव्यसंग्रह टीका, परमात्म प्रकाश टीका, तत्त्व दीपक, ज्ञान दीपक, त्रिवर्णाचार दीपक, प्रतिष्ठा तिलक, विवाह पटल, कथाकोष । समय-इनकी भाषा क्योकि जयसेन आचार्य के साथ शब्दशः मिलती है इसलिये डा. एन, उपाध्ये जयसेनाचार्य (वि. श. १२-१३) के परवर्ती मानकर इन्हे वि. श. १३-१४ में स्थापित करते है। परन्तु डा. नेमिचन्द्र के अनुसार जयसेन तथा पं. आशाधर ने ही इनका अनुसरण किया है, इन्होंने उनका नहीं। जयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय की टीका में द्रव्यसंग्रह की टीका का नामोल्लेख किया है। अत: इनका समय उनसे पूर्व अर्थात् वि श. ११-१२ सिद्ध होता है । (ती/३/३११.३१३) । (जै २/२०३,३६३)। चा. सा./४२/१ तत्र ब्रह्मचारिण, पंचविधा - उपनयावल बादीक्षागूढनैष्ठिकभेदेन ! - ब्रह्मचारी पाँच प्रकारके होते है-उपनय, अवलंब, अदीक्षा, गूढ और नैष्ठिक । (सा. ध./७/१९) । ३. ब्रह्मचारी विशेषके लक्षण ध १/४,१,१०/६४/२ ब्रह्म चारित्रं पंचवत-समिति त्रिगुप्त्यात्मकम् . शान्तिपुष्टिहेतुत्वात्। अघोरा शान्तगुणा यस्मिन् तदधोरगुणं, अघोरगुणं ब्रह्म चरन्तीति अघोरगुणब्रह्मचारिण । तेसि तबोमहाप्येण डमरादि-मारि-दुभिक्ख.. रोहादिपसमणसत्ती समुप्पण्णा ते अघोरगुणत्रम्हचारिणो ति उत्तहोदि। -१ ब्रह्मका अर्थ पाँच व्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति स्वरूप चारित्र है, क्योकि वह शान्तिके पोषणका हेतु है। अघोर अर्थात शान्त है गुण जिसमें वह अघोर गुण है, अघोर गुण ब्रह्मका आचरण करनेवाले अघोरगुण ब्रह्मचारी कहलाते है। जिनके तपके प्रभावसे इमरादि, रोय,...रोध आदिको नष्ट करनेकी शक्ति उत्पन्न हुई है वे अघोरगुण ब्रह्मचारी है। चा.सा/४२/१ तत्रोपनयब्रह्मचारिणो गणधरसूत्रधारिण' समभ्यस्तागमा गृहधर्मानुष्ठायिनो भवन्ति । अवलम्बब्रह्मचारिण क्षुल्लकरूपेणागममभ्यस्य परिगृहोतगृहावासा भवन्ति । अदोक्षाब्रह्मचारिण वेषमन्तरेणाभ्यस्तागमा गृहधर्मनिरता भवन्ति । गूढब्रह्मचारिण' कुमारश्रमणा सन्त' स्वीकृतागमाभ्यासा बन्धुभिर्दु सहपरीषहैरात्मना नृपतिभिर्वा निरस्तपरमेश्वररूपा गृहवासरता भवन्ति । नैष्ठिक्ब्रह्मचारिण समाधिगतशिग्वालक्षितशिरोलिङ्गा गणधरसूत्रोपलक्षितोरोलिगा, शुक्लरक्तवसनखण्डकौपीनल क्षितकटीलिङ्गा स्नातका भिक्षावतयो देवतार्चनपरा भवन्ति । २. जो गणधर सूत्रको धारण कर अर्थात यज्ञोपवीतको धारणकर उपासकाध्ययन आदि शास्त्रोका अभ्यास करते है और फिर गृहस्थधर्म स्वीकार करते है उन्हे उपनय ब्रह्मचारी कहते है। ३ जो क्षुल्लकका रूप धर शास्त्रोका अभ्यास करते है और फिर गृहस्थ धर्म स्वीकार करते है उन्हे अवलम्ब ब्रह्मचारी कहते है। ४. जो बिना ही ब्रह्मचारीका वेष धारण किये शास्त्रोका अभ्यास करते है, और फिर गृहस्थधर्म स्वीकार करते है ब्रह्मराक्षस-राक्षस जातीय व्यन्तर देवोंका भेद-दे० राक्षस ब्रह्मवाद-दे० अद्वैतवाद । ब्रह्मविद्या-आ मल्लिषेण (ई. ११२८) द्वारारचित सस्कृत छन्द बद्ध अध्यात्मिक ग्रन्थ । ब्रह्मसन-लाइ आगड संघकी गुर्वावलोके अनुसार आप जयसेनके शिष्य तथा वीरसेनके गुरु थे। समय-वि. १०८० (ई. १११३) (सि सा. स की प्रशस्ति/१२/८८-६५) (जयसेनाचार्यकृतधर्मरत्नाकर ग्रन्थकी प्रशस्ति। (सि सा. स /H // AN. Up.) -दे० इतिहास/७/१०। ब्राह-लान्तव स्वर्गका प्रथम पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग/५/३ । ब्रह्माद्वित-दे वेदान्त । २. अद्वैत। ब्रह्मश्वर-शीतलनाथ भगवान्का शासक यक्ष-दे० तीर्थकर//३ । ब्रह्मोत्तर-१. ब्रह्म स्वर्गका चौथा पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग/५/३; २. कल्पवासी स्वर्गीका छठा कल्प-दे० स्वर्ग/१/२ ब्रह्मोत्तर-१, रूपवासी देवोका एक भेद-दे० स्वर्ग/३ । २. कल्पवासी देवोका अवस्थान--दे० स्वर्ग/११३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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