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________________ बंध २ १ २ ३ ૪ ५. अमूर्त जीवसे मूर्तं कर्म कैसे बॅधे ९ १० ६ मूर्त कर्म व अमूर्त जीवके बन्धमें दृष्टान्त | १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ ४ सत्त्व के साथ बन्धका सामानाधिकरण्य नहीं है । बन्ध उदय व सत्त्वमें अन्तर । द्रव्यबन्धकी सिद्धि शरीरसे शरीरभारी अभिन्न कैसे है। जीव व कर्मका बन्ध कैसे जाना जाये । जीव प्रदेशोंमें कर्म स्थित है या अस्थित | जीवके साथ कमका गमन के समय है। १ २. ३ ५ ६ - दे० सव/२ । -दे० उदय /२ । १. क्योंकि जीव भी कचित् मूर्त है २ जीव कर्मबन्ध अनादि है । कर्म जीवके साथ समवेत होकर पते है या असमवेत होकर । कमवद्ध जीव चेतनता न रहेगी। जीनव शरीरका एकल व्यवहारसे है। - दे० कारक /२/२ बन्ध पदार्थकी क्या प्रामाणिकता । विस्रसोपचय रूपसे स्थित वर्गणाएँ ही बँधती है । कर्म बन्धमें रागादि भावबन्धकी प्रधानता द्रव्य व भाव कर्म सम्बन्धी । द्रव्य, क्षेत्रादिकी अपेक्षा कर्मबन्ध होता है । अज्ञान व रागादि ही वास्तवमें बन्धका कारण है । - दे० कर्म/ ३ । ज्ञान आदि भी कथचित् बन्धके कारण है । ज्ञानकी कमी बन्धका कारण नहीं, तत्सहभागी कर्म ही बन्धका कारण है । जघन्य कषायांश स्वप्रकृतिका बन्ध करनेमें असमर्थ है । परन्तु उससे मन्य सामान्य तो होता ही है। भावबन्धके अभाव में द्रव्यबन्ध नहीं होता । कर्मोदय बन्धका कारण नहीं रागादि दी है। रागादि बन्धके कारण है तो माझ द्रव्यका निषेध क्यों। Jain Education International द्रव्य व मावबन्धका समन्वय एक क्षेत्रागाहमात्रका नाम द्रव्यवन्ध नहीं। जीन व शरीरकी भिन्नता हेतु । जीव व शरीर में निमित्त व नैमित्तिकपना भी कचित् मिथ्या है। जीव व कर्मवन्ध केवल निमित्तकी अपेक्षा है। निश्चयसे कर्म जीवसे बँधे ही नहीं । बन्न अवस्थामै दोनों द्रव्योंका विभाव परिणमन हो जाता है। १६८ 60 ८ ९ १० १ २ ३ ४ ५ ६ जीवबन्ध बतानेका प्रयोजन । उभयमन्य बताने का प्रयोजन। उभयबन्धका मतार्थ 1 बन्ध टालने का उपाय । अनादि कर्म कैसे करे । १. बन्ध सामान्य निर्देश -- दे० मोक्ष / ६ । कर्मवन्धके कारण प्रत्यय बन्धके कारण प्रत्ययका निर्देश व स्वामित्यादि । - दे० प्रत्यय | कर्मबन्ध में सामान्य प्रत्ययका कारणपना । प्रत्ययोंके सद्भावमें वर्गणाओंका युगपत् कर्मरूप परिणमन क्यों नहीं होता। एक प्रत्ययसे अनन्त वर्गणाओंमें परिणमन कैसे । मन्यके प्रत्ययोंमें मिथ्यात्वकी प्रधानता क्यों । कषाय और योग दो प्रत्ययोसे बन्धमें इतने भेद क्यों । अविरति कर्मबन्धमें कारण कैसे। योग के कारणपने सम्बन्धी शंका समाधान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only - दे० योग । १. बन्ध सामान्य निर्देश १. बन्ध सामान्यका लक्षण २. निरु अर्थ रा. वा / १/४/१०/२६/३ बध्यतेऽनेन बन्धनमा वा मन्धः १०॥ रा. वा./१/४/१७/२६ / ३० बन्ध इव बन्ध. । रा वा / ५ / २४/१/४८५/१० वध्नाति बध्यतेऽसौ बध्यतेऽनेन बन्धनमावा बन्ध' । रा वा /८/२/११/५६६/१४ करणादिसाधनेष्वयं बन्धशब्दो द्रष्टव्य । तत्र करणसाधन तावत्--- बध्यतेऽनेनात्मेति बन्ध. - १. जिनसे कर्म बँधे यह कर्मका नाम है (१/४/१०) २. बन्दकी भौत होनेसे बन्ध है । ( १/४/१७ ) । ३. जो बन्धे या जिसके द्वारा बाँधा जाये या बन्धनमात्रको बन्ध कहते हैं । (५/२४/१) ४ बन्ध शब्द करणादि साधनमे देखा जाता है। करण साधनकी विवक्षामे जिनके द्वारा कर्म बँधता है वह बन्ध है । २ गति निरोध हेतु सि/०/२५/६६/२ अभिमत देशगतिनिरोधहेतुबन्ध किसीको अपने स्थानमे जानेगे रोकने के कारको चरम कहते है। रा. वा/७/२३/२/५०३/१६ अभिमतदेशगमनं प्रत्युरसुकस्य तराधि हेतु करिज्ज्वादिभिमन्धते आदि में रस्सी में इस प्रकार बाँध देना जिससे वह इष्ट देशको गमन न कर सके, उसको बन्ध कहते है । ( चा सा /८/६ ) | ३ जीव व कर्म प्रदेशका परस्पर बन्ध - रा. वा./१/४/१७/२६ / २६ आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रवेशानुप्रवेश लक्षणो बन्ध |१७| = कर्म प्रदेशोका आत्मा प्रदेशोमे एक क्षेत्रावगाह हो जाना बन्ध है । www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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