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________________ प्रायोगिक बन्ध प्रोषधोपवास जैसे--पुत्र आदि। २. उत्तरधातकीखण्ड द्वीपका रक्षक देव-दे. व्य तर/४। प्रियकारिणी-भगवान महावीरकी माता-दे० तीर्थकर/11 प्रियदर्शन-१ महोरग नामा जाति व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० महोरग, २. सुमेरु पर्वतका अपरनाम-दे० सुमेरु। ३ उत्तर धातकी खण्ड द्वीप रक्षक देव-दे० लोक/४/२ । अन्य दोषोके द्वारा धर्म मे दोष लगाया है, ऐसे मुनियोके पार चिक प्रायश्चित्त होता है । (आचारसार/पृ०६४). (अन. ध /७/५६ भाषा)। ११. श्रद्धान या उपस्थापन अन. ध /७/५७ गत्वा स्थितस्य मिथ्यात्वं यद्दीक्षाग्रहणं पुन. । तच्छूद्वानमिति ख्यातमुपस्थापनमित्यपि ।५७१ - जो साधु सम्यग्दर्शनको छोडकर मिथ्यात्वमें ( मिथ्यामार्गमे ) प्रवेश कर गया है। उसको पुन दीक्षा रूप यह प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसका दूसरा नाम उपस्थापन है। कोई-कोई महावतोका मूलोच्छेद होनेपर पुन । दीक्षा देनेको उपस्थापन कहते है। ३. शूद्रादि छुनेके अवसर योग्य प्रायश्चित्त आराधनासार/२/७० कपाली, चाण्डाल, रजस्वला स्त्रीको छूनेपर सिरपर कमण्डलसे पानीको धार डाले जो पैरोतक आ जाये। उपवास करे तथा महामन्त्रका जाप करे। प्रायोगिक बन्ध-दे० बन्ध/१ । प्रायोगिक शब्द-दे० शब्द । प्रायोगिको क्रिया-दे० क्रिया/२/४ । प्रायोग्य लब्धि-दे० लब्धि/२ ।। प्रायोपगमन चारित्र-दे० सल्लेखना/३ । प्रायोपगमन मरण-दे० सल्लेखना/३ । प्रारम्भ क्रिया-दे० क्रिया/३१२ । प्रावचन-१. श्रुतज्ञानका अपर नाम है -दे० श्रुतज्ञान/I/२। २. ध.१३/५,५,५०/२८०/११ प्रवचने प्रकृष्टशब्दकलापे भव ज्ञानं द्रव्यश्रुत वा प्रावचनं नाम । -प्रवचन अर्थात प्रकृष्ट शब्द कलापमें होनेवाला ज्ञान या द्रव्य श्रुत प्रावचन कहलाता है। प्राविष्कृत-बसतिकाका एक दोष-दे० वसतिका। प्रासाद-ध १४/५,६,६२/३६/३ पक्कसइला सइला आवासा पासादा णाम । -ईटों और पत्थरोके बने हुए पत्थरबहुल आवासोको प्रासाद कहते है। प्रासुकमू. आ./४८५ पगदा असो जह्मा तह्मादो दव्वदात्ति तं दव । पासुगमिदि। जिसमें से एकेन्द्रिय जीव निकल गये है वह प्रासुक प्रियांमत्र-एक राजपुत्र था। (म पु./७४/२३४-२४०) यह वर्धमान भगवानका पूर्वका चौथा भव है-दे० वर्धमान । प्रियोद्भव क्रिया-दे० सस्कार/२ | प्रीतिकर----१.म.पु /सर्ग/श्लोक पुण्डरीकिणी नगरी के राजा प्रियसेनका पुत्र था (६/१०८)। स्वयंप्रभु मुनिराजसे दीक्षा ले अवधिज्ञान व आकाशगमन विद्या प्राप्त की (8/११०)। ऋषभ भगवानको जबकि वे भोग भूमिज पर्यायमें थे (दे० ऋषभनाथ) सम्बोधनेके लिए भोगभूमिमें जाकर अपना परिचय दिया (६/१०५)। तथा सम्यग्दर्शन ग्रहण कराया (६/१४८) । अन्तमें केवलज्ञान प्राप्त किया (१०/१) । २ म पु /७६/श्लोक अपनी पूर्व की शृगालीकी पर्यायमें रात्रिभोजन त्यागके फलसे वर्तमान भवमें कुबेरदत्तसेठके पुत्र हुए (२३८-२८१) । बाल्यकाल में ही मुनिराजके पास शिक्षा प्राप्त की (२४४-२४८) । विदेशमें भाइयों द्वारा धोखा दिया जानेपर गुरुभक्त देवोंने रक्षा की (२४१-३८४) । अन्तमें दीक्षा ले मोक्ष प्राप्त किया (३८७३८८)। ३ प.पू./७७/श्लोक अरिंदम राजाका पुत्र था (६५)। पिताके कीट बन जानेपर पिताकी आज्ञानुसार उसको (कीटको) मारने गया। तब कीट विष्टामें घुस गया (६७)। तब मुनियोसे प्रबोधको प्राप्त हो दीक्षा धारण की (७०)। ४. नब ग्रैवेयकका नव पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग/५/३। प्रीतिक्रिया-दे० संस्कार/२। प्रत्य भाव न्या.स/मू /१/१/१६/२२ पुनरुत्पत्ति प्रेत्यभाव' । मरकर फिर किसी शरीरमें जन्म लेनेको प्रेत्यभाव कहते हैं। प्रम-ध./१४/४,२,८.६/२८४/१ प्रियत्वं प्रेम।-प्रियताका नाम प्रेम है। * अन्य सम्बन्धित विषय १. प्रेम सम्बन्धी विषय २. प्रेमप्रत्यय बन्ध कारणके रूपमे ३.प्रेम व कषायादि प्रत्ययोंके रूपमें । -दे० वात्सत्य। -दे० बंध/५॥ --दे० प्रत्यय/१। घ.६/३,४१/८७/५ पगदा ओसरिदा आसवा जम्हा त पासु, अथवा जं णिखज्ज तं पासुअ। कि । णाणदंसण-चरित्तादि । जिससे आस्रव दूर हो गये है उसका नाम (वह जीव) प्रासुक है, अथवा जो निरवद्य है उसका नाम प्रासुक है । वह ज्ञानदर्शन व चारित्रादिक ही हो सकते है। नि.सा./ता वृ/६३ हरितकायात्मकमूक्ष्मप्राणिसचारागोचरं प्रासुकमित्यभिहितम् । हरितकायमय सूक्ष्म प्राणियों के संचारको अगोचर वह प्रासुक (अन्न) ऐसा (शास्त्रमे) कहा है। * जलादि प्रातुक करनेकी विधि-दे. जलगालन । * वनस्पति आदिको प्रासुक करने की विधि-दे० सचित्त। * बिहारके लिए प्रासुक मार्ग-दे० बिहार/१।। प्रास्थल-भरत क्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । प्रिय-१ क पा./१/१,१३-१४/६२१६/२७२/६ स्वरुचिविषयीकृत वस्तु प्रिय, यथा पुत्रादि । जो वस्तु अपनेको रुचे उसे प्रिय कहते है। प्रेरक निमित्त-दे० निमित्त/१॥ प्रेष्य प्रयोग-ससि /३१/३६६/१० एव कुर्विति नियाग. प्रेष्य प्रयोग 1= ऐसा करो इस प्रकार काम में लगाना प्रेष्यप्रयोग है। रावा./७/३१/२/५५६/४ परिच्छिन्नदेशाबहि स्वयमगत्वा अन्यमप्य नीयव्यप्रयोगेण वाभिप्रेतव्यापारसाधन प्रेष्यप्रयोग । स्वीकृत मर्यादासे बाहर स्वय न जाकर और दूसरेको न बुलाकर भी नौकरवे द्वारा इष्ट व्यापार सिद्ध करना प्रेष्य प्रयोग है । (चा सा./१६/१) प्रोक्षण विधि-प्रतिष्ठाके समय प्रतिमाकी प्रोक्षण विधि-दे० प्रतिष्ठा विधान । प्रोषधोपवास-पर्वके दिनमे चारो प्रकार के आहारका त्याग करके धर्म ध्यान दिन व्यतीत करना प्रौषधोपवास कहलाता है, उस दिन आरम्भ करने का त्याग होता है। एक दिनमें भोजनकी दो वेला मानी जाती है। पहले दिन एक वेला, दूसरे दिन दोनो वेला और जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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