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________________ प्रायश्चित्त ४. प्रायश्चित्त विधान साहुस्स होदि। -जिसने ( बार-बार ) अपराध किया है। (रा.वा./ १/२२/१०/६२२/५) । जो उपवास आदि करने में समर्थ है, सम प्रकार बलवान है, सब प्रकार शूर और अभिमानी है, ऐसे साधुको दिया जाता है । (चा, सा /१४३/१); (अन, ध./७/५४)। भा, पा./टी /७७/२२४/१ लोचनखच्छेदस्वप्नेन्द्रियातिचाररात्रिभोजनेषु पक्षमाससंवत्सरादिदोषादौ च उभयं आलोचनप्रतिक्रमणप्रायश्चित्त । -केश लोंच, नखका छेद, स्वप्नदोष, इन्द्रियोका अतिचार, रात्रि भोजन, तथा पक्ष, मास व सवत्सरादिके दोषोमें तदुभय प्रायश्चित्त होता है । ( अन.ध./७/५३ भाषा)। ४. विवेक रा. वा //२२/१०/६२२/२ शक्तयनिगृहनेन प्रयत्नेन परिहरत' कुतश्चि कारणादप्रासुकग्रहणग्राहणयो प्रासुकस्यापि प्रत्यारख्यातस्य विस्मरणात प्रतिग्रहे च स्मृत्वा पुनस्तदुत्सर्जनं प्रायश्चित्तम् । शक्तिको न छिपाकर प्रयत्नसे परिहार करते हुए भी किसी कारणवश अप्रासुकके स्वय ग्रहण करने या ग्रहण करानेमें छोडे हुए प्रासुकका विस्मरण हो जाये और ग्रहण करनेपर उसका स्मरण आ जाये तो उसका पुन उत्सर्ग करना (ही विवेक) प्रायश्चित्त है। (चा. सा/१४२/२)। ध, १३/५,४,२६/६०/१२ एदं (विवेगो णाम पायच्छितं ) कत्थ होदि। जम्हि स ते अणियत्तदोसो सो तम्हि होदि। जिस दोषके होनेपर उसका निराकरण नहीं किया जा सकता, उस दोषके होनेपर यह विवेक नामका प्रायश्चित्त होता है। ५. व्युत्सर्ग रा. वा./६/२२/१०/६२२/४ दुःस्वप्नदुश्चिन्तनमलोत्सर्जनमूत्रातिचारमहानदीमहावीतरणादिषु व्युत्सर्गप्रायश्चित्तम् । - दुस्वप्न, दुश्चिन्ता, मलोत्सर्ग, मूत्रका अतिचार, महानदी और महाअटवीके पार करने आदिमें व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है । (चा. सा/१४२/३)। ध. १३/५,४,२६/६१/३ विउस्सग्गो णाम पायच्छित्तं । सो कस्स होदि । कयावराहस्स णाणेण दिढणवट्ठस्स बज्जसंघडणस्स सीदवादादवसहस्स ओघसूरस्स साहूस्स होदि । - यह व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त जिसने अपराध किया है, किन्तु जो अपने विमल ज्ञानसे नौ पदार्थों के स्वरूपको समझता है, बज्र संहननवाला है; शीत-वात और आतपको सहन करनेमे समर्थ है, तथा सामान्य रूपसे शुर है, ऐसे साधुके होता है। भा. पा./टी/०८/२२४/३ मौनादिना लोचकरणे, उदरकृमिनिर्गमे, हिममशकादिमहावातादिसह तिचारे, स्निग्धभूहरिततृणप कोपरिगमने, जानुमात्रजलप्रवेशकरणे, अन्यनिमित्तवस्तुस्वोपयोगकरणे, नाबादिनदीतरणे, पुस्तकप्रतिमापातने, पंचस्थावरविधाते, अदृष्टदेशतनुमलविसर्गादौ, पक्षादिप्रतिक्रमण क्रियाया, अन्ताख्यानप्रवृत्यन्तादिषु कायोत्सर्ग एव प्रायश्चित्तम् । उच्चारप्रस्रवणादौ च कायोत्सर्ग प्रसिद्ध एव । म मौनादि धारण किये बिना ही लौच करनेपर; उदर में से कृमि निकलनेपर; हिम, दंश-मशक यद्वा महाबातादिके संघर्ष से अतिचार लगनेपर, स्निग्ध भूमि, हरित तृण, यद्वा कर्दम आदिके ऊपर चलनेपर, घोटुओंतक जल में प्रवेश कर जानेपर, अन्य निमित्तक वस्तुको उपयोगमें ले आनेपर; नावके द्वारा नदी पार होनेपर; पुस्तक या प्रतिमा आदि के गिरा देनेपर, पचस्थावरोका विषात करनेपर, बिना देखे स्थानपर शारीरिक मल छोडनेपर, पक्षसे लेकर प्रनिक्रमण पर्यन्त व्याख्यान प्रवृत्त्यन्तादिकोमे केवल कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है। और थूकने और पेशाब आदिके करने पर कायोत्सर्ग करना प्रसिद्ध ही है । ( अन ध./७/५३ भाषा)। ६. तप ध १३/५,४,२६/६१/६ एवं ( तवो पायच्छित्त ) कस्स होदि । तिविदियस्स जोवणभरत्थस्स बलव तस्स सत्तसहायरस कयावराहस्स होदि। - जिमकी इन्द्रियों तीव है, जो जवान है, बलवान् है, और सशक्त है, ऐसे अपराधी साधुको दिया जाता है । (चा सा /१४२/५ ) । भ. आ /मू /२६२/५०६ पिंडं उवधि सेजामविसोधिय जो खु भंजमाणो हु । मूलठ्ठाणं पत्तो बालोत्तिय णो समणबालो ।२६२ । - उद्गगमादि दोषोसे युक्त आहार, उपकरण, वसतिका इनका जो साध ग्रहण करता है वह मूलस्थानको प्राप्त होता है। वह अज्ञानी है, केवल नग्न है, न यति है न गणधर । ध १३/५,४२६/१२/२ मूल णाम पायच्छित्त । एद कस्स होदि। अव रिमिय अबराहस्स पासत्थोसण्ण-कुसीलसच्छदादिउव्वदृट्ठियस्स होदि । -अपरिमित अपराध करनेवाला जो साधु (रा. वा/8/२२/१०/६२२/ ५)। पाश्वस्थ, अवसन्न, कुशील, और स्वच्छन्द आदि होकर कुमार्गमें स्थित है, उसे दिया जाता है । (चा सा./१४२/३): (अन. ध/७/५५), ( आचारसार/पृ ६३)। ९. अनवस्थाप्य परिहार चा. सा/१४४/४ प्रमादादन्यमुनिसंपन्धिनमृर्षि छात्र गृहस्थं वा परपाखण्डिप्रतिबद्धचेतनाचेतनद्रव्यं वा परस्त्रियं वा स्तेनयता मुनीत प्रहरतो वाऽन्यदप्येवमादि विरुद्धाचरितमाचरतो नव दशपूर्वधरस्यापि त्रिकसहननस्य जितपरिषहस्य दृढधर्मिणो धीरस्य भवभीतस्य निजगुणानुपस्थापनं प्रायश्चित्तं भवति । ददिनन्तरोक्तान्दोषानाचरत' परगणोपस्थापनं प्रायश्चित्तं भवति । -१, प्रमादसे अन्य मुनि सम्बन्धी ऋषि, विद्यार्थी, गृहस्थ वा दूसरे पारवं डीके द्वारा रोके हुए चेतनात्मक बा अचेतनात्मक द्रव्य, अथवा परस्त्री आदिको चुरानेवाले, मुनियोको मारनेवाले, अथवा और भी ऐसे ही विरुद्ध आचरण करनेवाले, परन्तु नौ वा दस पूर्वोके जानकर, पहले तीन संहननको धारण करनेवाले परीषहोको जीतनेवाले, धर्म में दृढ रहनेवाले, धीर, वीर और संसारसे डरनेवाले मुनियोके निजगणानुपस्थापन नामका प्रायश्चित्त होता है। २. जो अभिमानसे उपरोक्त दोषो को करते है, उनके परगणानुपस्थापना प्रायश्चित्त होता है। (आचार सार/पृ. ६४), (अन ध/9/५६ भाषा)। दे० आगे पारंचिक्में ध/१३ विरुद्ध आचरण करनेवालोको दिया जाता है। १०. पारंचिक परिहार भ आ /म् /१६३७/१४८३ तित्थयरपवयणसुदे आइरिए गणहरे महढोए । एदे आसाद'तो पावइ पार चिय ठाण ।१६ ७। तीर्थ कर, रत्नत्रय, आगम, आचार्य, गणधर, और महर्द्धिक मुनिराज इनकी आसादना करनेवाला पार चिक नामक प्रायश्चित्त को प्राप्त होता है ।१६३७। - ध १३/५४.२६/६३/१ एदाणि दो वि पायच्छित्ताणि णरिदविरुद्धाचरिदे आइरियाण णय-दसपुव्वहर ण होदि । - ये दोनो (अनवस्था, तथा पार चिक) दो प्रकार के प्रायश्चित्त राजाके विरुद्ध आचरण करनेपर (रा. वा/8/२२/१०/६२२/५) नौ और दश पूर्वोको धारण करनेवाले आचार्य करते है। चा, सा /१४६/३ तीर्थंकरगणध्रगणिप्रबचनसघाद्यासादनकारक्स्य नरेन्द्र विरुद्धाचरितस्य राजानमभिमतामात्यादीना दत्तदीक्षस्य नृपकुलवनितासे वितस्यैवमाद्यन्यैर्दोषैश्च धर्मदूषकस्य पार चिके प्रायश्चित्त भवति। - जो मुनि, तीर्थकर, गणधर, आचार्य और शास्त्र व संध आदिकी झूठी निन्दा करनेवाले है, बिस्द्र आचरण करते है, जिन्होने किसी राजाको अभिमत ऐसे मन्त्री आदिको दीक्षा दी है, जिन्होने राजकुल की स्त्रियोका सेवन किया है, अथवा ऐसे ध. १३/५,४.२६/६१/४ छेदो णाम पायच्छित्त। एदं कस्स हादि । उववासा दिख मस्स ओवबलस्स ओघसुरस्स गम्बियस्स क्याबराहस्स जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० ३-२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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