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________________ प्रत्यय १२६ २. मोह राग द्वेष तीन प्रत्यय न.च.वृ./३०१ पच्चयवतो रागा दोसामोहे य आसवा तेसि ।।३०१ = राग, द्वेष और मोह ये तीन प्रत्यय है, इनसे कर्मोंका आव होता है | २०१ २. मिध्यात्वादि चार प्रत्यय दु स.सा./मू / १०१-११० सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बधकत्तारो । मिच्छतं अविरमण कसाय जोगाय बोद्धव्वा । १०६ । तेसि पुणो वि य इमो भणिदो भेदी तेरस वियप्यो मादिट्ठी आदी जान सजोगिस्स चरमं । ११० - चार सामान्य प्रत्यय निश्चय से बन्धके कर्ता कहे जाते है, वे मिथ्यात्व अविरमण तथा कषाय और योग जानना |१०| (सं./प्र./४/००) (ध.७/२१०मा / २ / ६) ( ध ८/३६/११/१२ ) (न.च.वृ / ३०२ ) ( यो.सा./३/२) ( पं का /त प्र० / १४६ ) और फिर उनका यह तेरह प्रकारका भेद कहा गया है। जो कि मियाद लेकर योगकेवली (गुणस्थान है ।११० ४. मिथ्यात्वादि पाँच प्रत्यय त सू /८/१ मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादवषाययोगा बन्धहेतव |१| = मिथ्यादर्शन, अविरति प्रमाद, श्याम और योग ये बन्धके हेतु है ११। (मु.आ./ १२९६) । ५. प्राणातिपात आदि २८ प्रत्यय /१२/४.१/१-११/२०५ नम-मवहार-संगहाणं णाणावरणीयवेयणा पाणादिवादपच्चए |२| मुसावादपञ्चए | ३| अदत्तादाणपञ्चर |४| मेहुणा || परिग्मपथए । राणिपथ 11 एवं कोह मा माया लोह-राग-दोस मोह-पेम्मपचए 1 निदानपचर " हा अभक्खाप-कह-र-र-वहि-यदि माग मायमोस - मिच्छाणाण - मिच्छदं सण-पओअपच्चए |१०| एवं सत्तण्णं कम्माण | ११ | - नैगम, व्यवहार, और संग्रह नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदना - प्राणातिपात प्रत्ययसे; मृषावाद प्रत्ययसे; अदत्तादान प्रत्ययसे, मैथुन प्रत्यय परिषद् प्रत्ययसे रात्रि भोजन प्रत्ययसे, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह और प्रेम प्रत्ययोसे; निदान प्रत्ययसे; अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, मेय, मोष, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग इन प्रत्ययोसे होती है | २- १०१ इसी प्रकार शेष सात कर्मोंके प्रत्ययोंकी प्ररूपणा करनी चाहिए|११| ६. चार प्रत्ययोंके कुल ५७ भेद संत्रा/४/७० मिच्यासंजम हुति हु कसाय जोगा य बंधक से पच दुवालस भेया कमेण पणुवीस पण्णस्सं 1991 - मिथ्यात्व, असयम, कषाय और योग ये चार कर्मबन्धके मूल कारण है । इनके उत्तर भेद क्रमसे पाँच, बारह, पच्चीस और पन्द्रह है । इस प्रकार सब मिलकर कर्म बन्धके सत्तावन उत्तर प्रत्यय होते है 1७७ (घ) ३.६/२१/१) (गो.सू./०८/१५०) ३. प्रमादका कषायमें अन्तर्भाव करके पाँच प्रत्यय हो चार बन जाते हैं ६/०/२.१०/११/११ च धकारणाम कर पमादायो । कसायेस. कसायवदितिपादन भादो प्रश्न- पूर्वोक्त Jain Education International १. प्रत्ययके भेद व लक्षण (मिथ्यात्व, प्रमाद, कषाय, और योग) चार बन्धके कारणो मे प्रमादका कहाँ अन्तर्भाव होता है ' उत्तर-कषायोमे प्रमादका अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, कषायोंसे पृथक् प्रमाद पाया नहीं जाता । ( घ. १२/ ४,२,८,१०/२८६/१०) ४. प्राणातिपात आदि अन्य प्रत्ययोंका परस्पर में अन्तमव नहीं किया जा सकता ध. १२/४,२,८-१/पृ./पं. ण च पाणदिवाद-मुसावाद अदत्तादाणाणमंत - रंगा कोधादिपचरस अतन्मानो बचि तसो तेसि भेदभावो (२८२/८) । ण च मेहुणं अतरंगरागे णिपददि, तत्तो कथंचि एदस्स भेदु भादो (२०२७) | मोहन्ययोकोहादि सिदितिकामनिज्मदे अमयनामयमी वरिगण्यरुवाणमगसंस्था कारण जाणं एगाणेगसहावा बारमेगन्त्तविरोहाहो ( २०४ / १० ) । पेम्परयो लोभ-राम-पचर पविसदि रि पुणरुतो किम्प जायदे । ण, तेहितो एदस्स कधंचि भेदुवलं भादो । तं जहा बकत्थे ममेदं भावो लोभो । ण सो पेम्म, ममेदं बुद्धीए अपडिग्गहिदे वि दववाहले परदारे वा पेम्मुवलं भादो। ण रागो पेम्मं, माया लोहहस्सरसि शगस्स अवयवो अनयनरूपेम्मतविरोहादी (२८४ / १) प प एसओ मिच्यत्तपचर पविसदि मिच्छत्तसहचारिस्स मिच्छत्तेण एयन्तविरोहादो। ण पैम्मपञ्चर परिसद संपमापयविसम्म पेम्मम्मि संपयवियम्यि निदाणस्स १वेसविरोहादो । - १. प्राणातिपात, मृषावाद और अदत्तादान इन अंतरग प्रत्ययोका क्रोधादिक प्रत्ययोमे अन्तर्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि, उनसे इनका कथचित् भेद पाया जाता है । २० मैथुन अन्तरग रागमे गर्भित नहीं होता, क्योंकि, उससे इसमें कथं चित् भेद पाया जाता है ( २८२ / ७) । ३. प्रश्न- मोह प्रत्यय चूँकि क्रोधादिकमें प्रविष्ट है अतएव उसे कम क्यो नहीं किया जाता है । उत्तर- नहीं, क्योकि क्रमश व्यतिरेक व अन्वय स्वरूप, अनेक व एक संख्या वाले, कारण व कार्य रूप तथा एक व अनेक स्वभावसे संयुक्त अवयव अवयवीके एक होनेका विरोध है ( २८३ / १० ) । ४. प्रश्न - चूँकि प्रेम प्रत्यय लोभ व राग प्रत्ययो में प्रविष्ट है अतः वह पुनरुक्त क्यो न होगा ? उत्तर-नहीं, क्योंकि उनसे इसका कथचित् भेद पाया जाता है। वह इस प्रकार मे - बाह्य पदार्थों में 'यह मेरा है' इस प्रकार के भाको लोभ कहा जाता है। वह प्रेम नहीं हो सकता, क्योंकि, यह मेरा है' ऐसी बुद्धि अविषयभूत भी दाक्षाफल अथवा परस्त्रीके विषयमें प्रेम पाया जाता है। राग भी प्रेम नहीं हो सकता, क्योकि, माया, लोभ, हास्य, रति और प्रेमके समूह रूप अवयवी कहलाने वाले रागके अवयव स्वरूप प्रेम रूप होनेका विरोध है । ( २८४ / ३) । ५. यह (निदान) प्रत्यय मिथ्यात्व प्रत्यय में प्रविष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि वह मिध्यात्वका सहचारी है, अत मिथ्या के साथ उसकी एकताका विरोध है । वह प्रेम प्रत्यय में भी प्रविष्ट नहीं होता, क्योंकि, प्रेम सम्पत्ति एवं असंपत्ति दोनोको विषय करने वाला है, परन्तु निदान केवल सम्पत्तिको ही विषय करता है, अतएव उसका प्रेममे प्रविष्ट होना विरुद्ध है । ५. अविरति व प्रमाद अन्तर रा. वा./८/१/३२/५६५/४ अविरते प्रमादस्य चाविशेष इति चेत्, न; विरतस्यापि प्रमाददर्शनात् । ३२ | विरतस्यापि पञ्चदश प्रमादाः सभयन्ति विकथाकामेद्रियनिद्राणयक्षमा प्रश्न अनिरति और प्रमादमे कोई भेद नहीं है ? उत्तर- नहीं, क्योकि विरतके भी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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