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________________ काल २ निश्चयकाल निर्देश व उसकी सिद्धि ५. काल द्रव्य एक प्रदेशी असंख्यात द्रव्य है नि.सा/ता.वृ./६/२४/४ पञ्चानां वर्तनाहेतु' काल' | =पाँच द्रव्योंका वर्तनाका निमित्त वह काल है। द्र.सं.व./मू./२१ परिणामादोलक्खो वट्टणलक्खो य परमट्रो। वर्तना लक्षण वाला जो काल है वह निश्चय काल है। द. सं. ७/टी/२१/६१ वर्तनालक्षण कालाणुद्रव्यरूपो निश्चयकाल' । -वह वर्तना लक्षणवाला कालाणु द्रव्यरूप 'निश्चयकाल' है। २. काल द्रव्यके विशेष गुण व कार्य वर्तना हेतुत्व है त. सु./१/२२, ४० वतनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ।।२२।। सोऽनन्तसमयः॥४०॥ =वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये कालके उपकार हैं ॥२२॥ वह अनन्त समयवाला है। ति.प./४/२७६-२८२ कालस्स दो वियप्पा मुक्खामुक्खा हवं ति एदेसु। मुक्वाधारबलेण अमुक्वकालो पयट्ट दि ॥२७॥ जीवाण पुग्गलाणं हुवंति परियट्टणाइ विविहाइ । एदाणं पज्जाया कट्ट'ते मुक्रवकाल आधारे ॥२८०॥ सव्वाण पयत्थाण णियमा परिणामपहदिवित्तीओ। माहिर तरंगहेदुहि सम्बन्भेदेसु बट्ट'ति ॥२८१० वाहिरहेदु' कहिदो णिच्छयकालोत्ति सव्वद रिसीहिं । अभंतर णिमित्तं णियणियदव्वेसु चेट्ठदि ॥२२॥ कालके मुख्य और अमुख्य दो भेद हैं। इनमेंसे मुख्य कालके आश्रयसे अमुख्य कालकी प्रवृत्ति होती है ॥२७॥ जीव और पुद्गल के विविध प्रकारके परिवर्तन हुआ करते हैं। इनकी पर्यायें मुख्य कालके आश्रयसे वर्तती हैं ॥२८०॥ सर्व पदार्थोंके समस्त भेदोंमें नियमसे बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तोंके द्वारा परिणामादिक (परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व ) वृत्तियाँ प्रवर्तती हैं ॥२८१॥ सर्वज्ञ देवने सर्वपदार्थों के प्रवर्तनेका बाह्य निमित्त निश्चयकाल कहा है। अभ्यन्तर निमित्त अपने-अपने द्रव्यों में स्थित है। रा. वा./५/३६/२/५०१/३१ गुणा अपि कालस्य साधारणासाधारणरूपा' सन्ति। तत्रासाधारणा वर्तनाहेतुत्वम् । साधारणाश्च अचेतनत्वामूर्तत्वसूक्ष्मत्वागुरुलधुत्वादयः पर्यायाश्च व्ययोत्पादलक्षणा योज्याः। कालमें अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि साधारण गुण और वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण पाये जाते हैं। व्यय और उत्पादरूप पर्यायें भी कालमें बराबर होती रहती हैं। आ. प./२/88 कालद्रव्ये वर्तनाहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमिति विशेषगुणाः । -कालद्रव्यमें वर्तनाहेतुत्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व ये विशेष गुण हैं । (ध.५/३३/७) प्र.सा./त. प्र./१३३-१३४ अशेषशेषद्रव्याणांगं प्रतिपर्यायं समयवृत्तिहेतुत्वं कालस्य । =( कालके अतिरिक्त ) शेष समस्त द्रव्योंकी प्रतिपर्यायमें समयवृत्तिका हेतुत्व ( समय-समयकी परिणतिका निमितत्त्व ) कालका विशेष गुण है। नि. सा./मू./२६ कालस्स ण कायत्तं एयपदेसो हवे जम्हा ॥३६॥ -काल द्रव्यको कायपना नहीं है, क्योंकि वह एकप्रदेशी है। (पं.का/त. प्र/४) (द्र सं. वृ./मू./२५) प्र. सा./त. प्र./१३५ कालाणोस्तु द्रव्येण प्रदेशमात्रत्वात्पर्यायेण तु परस्परसंपर्कासंभवादप्रदेशत्वमेवास्ति। ततः कालद्रव्यमप्रदेश। -कालाणु तो द्रव्यत. प्रदेश मात्र होनेसे और पर्यायतः परस्पर सम्पर्क न होनेसे अप्रदेशी ही है। इसलिए निश्चय हुआ कि काल द्रव्य अप्रदेशी है। (प्र. सा./त. प्र./१३८) प्र. सा./त. प्र./१३६ कालजीवपुद्गलानामित्येकद्रव्यापेक्षया एकदेश अनेकद्रव्यापेक्षया पुनरञ्जनचूर्ण पूर्ण समुद्गकन्यायेन सर्व लोक एवेति ॥१३६॥ -काल, जीव तथा पुद्गल एक द्रव्यकी अपेक्षासे लोकके एकदेशमें रहते हैं, और अनेक द्रव्योंकी अपेक्षासे अंजनचूर्ण (काजल) से भरी हुई डिबियाके अनुसार समस्त लोकमें ही है। ( अर्थात द्रव्यको अपेक्षासे कालद्रव्य असंख्यात है।) गो. जी./F./५८५ एक को दु पदेसो कालाणूणं धुवो होदि ॥५८५॥ = बहुरि कालाणू एक एक लोकाकाशका प्रदेशविषै एक-एक पाइए है सो ध्रुब रूप है, भिन्न-भिन्न सत्व धरै है तातै तिनिका क्षेत्र एक-एक प्रदेशी है। ६. कालद्रव्य आकाश प्रदेशोंपर पृथक-पृथक अवस्थित है ध./४/१,५१/४/३१५ लोयायासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया दु एक्केवका । रयणाणं रासी इव ते कालाणू मुणेयव्वा ॥४-लोकाकाशके एक-एक प्रदेश पर रत्नोंकी सशिके समान जो एक एक रूपसे स्थित हैं. वे ___ कालाणु जानना चाहिए। (गो. जी./स./५८१) (द्र. सं. वृ./ मू/२२) ति.प./४/२८३ कालस्स भिण्णाभिण्णा अण्णुण्णपवेसणेण परिहोणा। पुहपुह लोयायासे चेट्ठ ते संचएण विणा १२८३॥ = अन्योन्य प्रवेशसे रहित कालके भिन्न-भिन्न अणु संचयके बिना पृथक्-पृथक् लोकाकाशमें स्थित है। (प.प्र.//२/२१) (रा. वा/५/२२/२४/४८२/३) (न. च. वृ./१३६) ७. काल दुव्यका अस्तित्व कैसे जाना जाये ३. काल द्रव्यगतिमें भी सहकारी है त. सू./५/२२ ...क्रिया....च कालस्य ॥२२॥ = क्रियामे कारण होना, यह काल द्रव्यका उपकार है। स.सि./५/२२/२६२/१ स कथं काल इत्यवसीयते । समयादीनां क्रियाविशेषाणां समयादिभिनिर्वय॑मानानां च पाकादीनां समय; पाक इत्येवमादिस्वसंज्ञारूढिसद्भावेऽपि समय. कालः ओदनपाकः काल इति अध्यारोप्यमाण' कालव्यपदेश' तव्यपदेश निमित्तस्य कालस्यास्तित्वं गमयति । कुतः । गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात् । -प्रश्न-काल द्रव्य है यह कैसे जाना जा सकता है। उत्तर---समयादिक क्रियाविशेषों की और समयादिकके द्वारा होनेवाले पाक आदिककी समय, पाक इत्यादिक रूपसे अपनी-अपनी रौढिक संज्ञाके रहते हुए भी उसमें जो समयकाल, ओदनपाक काल इत्यादि रूपसे काल संज्ञाका अध्यारोप होता है, वह उस सज्ञाके निमित्तभूत मुख्यकालके अस्तित्वका ज्ञान कराता है, क्योंकि गौण व्यवहार मुख्यकी अपेक्षा रखता है। (रा. वा./५/२२/६/४७७/१६ ) ( गो. जी. जी. प्र./५६८/१०१३/१४ ) प्र. सा./त. प्र/१३४ अशेषशेषतव्याणां प्रतिपर्यायसमयवृत्तिहेतुर्व कारणान्तरसाध्यत्वात्समयविशिष्टाया वृत्ते. स्वतस्तेषामसभवत्काल मधिगमयति । प्र. सा/त प्र./१३६ कालोऽपि लोके जीवघुद्गलपरिणामव्यज्यमानसम यादिपर्यायत्वात् । प्र. सा/त. प्र./१४२ ती यदि वृत्यंशस्यैव किं यौगपद्य न कि क्रमेण, योगपद्यन चेत् नास्ति यौगपद्म सममेकस्य विरुद्धधर्मयोरनवतारात् । ४. काल द्रव्यके १५ सामान्य विशेष स्वभाव न. च. वृ./७० पंचदसा पुण काले दबसहावा य णायव्वा ॥७०॥ काल द्रव्यके १५ सामान्य तथा विशेष स्वभाव जानने चाहिए। (आ प/४) ( वे स्वभाव निम्न हैं-सद्, असद, नित्य, अनित्य, अनेक. भेद, अभेद, स्वभाव, अचैतन्य, अमूर्त, एकप्रदेशत्व, शुद्ध, उपचरित, अनुपचरित, एकान्त. अनेकान्त स्वभाव) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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